सचिन कुमार जैन

संविधान शोधार्थी एवं अशोका फेलोशिप प्राप्त सामाजिक कार्यकर्ता। ‘संविधान की विकास गाथा’, ‘संविधान और हम’ सहित 65 से अधिक पुस्तक-पुस्तिकाओं का लेखन।

दूसरे विश्व युद्ध के समय ब्रिटिश सरकार का कहना था कि स्वतंत्र भारत की दिशा में तभी बढ़ा जा सकता था जब कांग्रेस और मुस्लिम लीग अपने मतभेदों को हल कर लें। कांग्रेस विभाजन के खिलाफ थी और लीग पाकिस्तान की मांग कर रही थी। ऐसे में इस गतिरोध को तोड़ने के लिए महात्मा गांधी के करीबी कांग्रेस नेता सी. राजगोपालाचारी ने सीआर फॉर्मूला तैयार किया। माना जाता है कि यह पहला अवसर था जब किसी कांग्रेसी नेता ने विभाजन की अनिवार्यता को स्वीकार किया। नेहरू ने भी कभी इस फॉर्मूले को उग्र प्रतिक्रिया के साथ खारिज नहीं किया।

सीआर फॉर्मूला या राजाजी फार्मूला

सीआर फॉर्मूले में कहा गया कि ब्रिटिशों से स्वतंत्रता पाने के लिए लीग और कांग्रेस साथ आएंगे और केंद्र में एक अस्थायी सरकार बनाएंगे। 1944 में गांधी और जिन्ना के बीच इस फॉर्मूले के आधार पर बातचीत हुई लेकिन वह विफल रही क्योंकि कांग्रेस जिन्ना के द्विराष्ट्र सिद्धांत को स्वीकार नहीं कर रही थी।

जब दोनों प्रमुख राजनीतिक शक्तियों के बीच कोई साझा विकल्प स्थापित नहीं हुआ तब, ब्रिटिश सरकार द्वारा भेजे गये कैबिनेट मिशन ने 16 मई 1946 को भारत की स्वतंत्रता और संविधान सभा के गठन से संबंधित अपनी योजना प्रस्तुत की। इस योजना में भारत को राज्यों/रियासतों/प्रांतों के तीन मंडलों में विभाजित किया गया था। वैसे तो कैबिनेट मिशन ने सांप्रदायिक आधार पर पाकिस्तान के निर्माण के विकल्प को अस्वीकार कर दिया था, लेकिन इसके एवज़ में भारत को तीन मंडलों में विभाजित करने और मंडलों को मज़बूत बनाने और केंद्र सरकार (संघ व्यवस्था) को कमज़ोर रखने के विकल्प योजना में रखे गये।

के.एम. मुंशी, कैबिनेट मिशन की योजना से खुश नहीं थे। उन्होंने लिखा था कि ‘‘यदि यह योजना लागू हुई तो भारत चार भागों में बंट जाएगा – एक हिन्दू, दो मुस्लिम और एक रियासतें।” भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने कैबिनेट मिशन योजना पूरी तरह से लागू नहीं होने दी।

कांग्रेस, अंतरिम सरकार और संविधान सभा ने कैबिनेट मिशन की योजना में से दो बिंदुओं को अपनी नीतियों में शामिल किया। ये बिंदु थे – देश के विभिन्न प्रांतों के प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करते हुए हर 10 लाख की जनसंख्या पर एक प्रतिनिधि को नामित करते हुए संविधान सभा का गठन करना और दूसरा संविधान सभा के संचालन, नागरिकों, अल्पसंख्यकों और उपेक्षित क्षेत्रों के अधिकारों के लिए संविधान सभा के भीतर परामर्श समिति का गठन करना।

इन दो बिंदुओं के अलावा कैबिनेट मिशन की योजना का कोई भी बिंदु लागू नहीं किया गया; जैसे भारत को प्रांतों के तीन समूहों/मंडल में विभाजित करना, प्रांतों को पूर्ण स्वायत्तता प्रदान करना, अलग-अलग मंडलों के लिए अलग-अलग संविधान बनाना, किसी भी सांप्रदायिक मसले को सुलझाने की व्यवस्था, कैबिनेट मिशन योजना के कुछ प्रावधानों को अस्वीकार किए जाने से यह स्पष्ट होता है कि भारत के तत्कालीन राजनीतिज्ञ संजीदगी से भारत की स्वतंत्रता को संभालने में सक्षम थे।

यह तय हुआ कि प्रांतीय विधानसभा, संविधान सभा के लिए सामान्य, मुस्लिम और सिख समुदाय को प्रतिनिधित्व देते हुए निर्धारित संख्या में अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करेगी। इस आधार पर कैबिनेट मिशन ने भारत के प्रांतों को तीन मंडलों में बांटा –

  • मंडल अः मद्रास, बंबई, संयुक्त प्रांत, बिहार, मध्यप्रांत, और उड़ीसा। इनके लिए 187 सदस्य संख्या (167 सामान्य और 20 मुस्लिम) तय की गयी।
  • मंडल ब: पंजाब, उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत और सिंध। इनके लिए 35 सदस्य संख्या (9 सामान्य, 22 मुस्लिम और 4 सिख) तय की गयी।
  • मंडल स: बंगाल और असम। इनके लिए 70 सदस्य संख्या (34 सामान्य और 36 मुस्लिम) तय की गयी।

संविधान सभा का वर्गीकरण तीन खंडों में होना था और हर खंड को अपने मंडल के लिए संविधान का निर्माण करना था। इसके साथ ही उन विषयों का निर्धारण भी करना था, जो संघ के संविधान में शामिल किए जाने थे। इसके साथ ही प्रस्ताव यह भी था कि तीनों मंडल के सभी प्रांतीय समूह और सदस्य मिलकर संघ के संविधान के निर्माण के लिए इकठ्ठा होंगे। इसका अर्थ यह है कि भारत में बड़े स्तर पर ‘विकेंद्रीकृत शासन व्यवस्था’ का निर्माण होना था, जिसमें कुछ अहम क्षेत्रों, जैसे विदेशी मामले, संचार, रक्षा और परिवहन जैसे विषय ही संघ/केंद्र सरकार के अधीन होंगे और शेष सभी विषयों पर अधिकारिता प्रांतों/राज्यों/मंडलों की होगी।

कांग्रेस ने कैबिनेट मिशन के प्रस्ताव को स्वीकार जरूर किया था लेकिन कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में जवाहरलाल नेहरू ने 10 जुलाई 1946 को यह घोषणा भी कर दी थी कि “कांग्रेस संविधान सभा में समझौतों से पूर्ण रूप से मुक्त होकर प्रवेश करेगी और जब जैसी परिस्थितियां होंगी, उनसे निपटने के लिए स्वतंत्र रहेगी।” नेहरू की यह घोषणा मुस्लिम लीग और रियासतों के लिए स्पष्ट संदेश थी।

नेहरू की अध्यक्षता में विशेषज्ञ समिति

जुलाई 1946 के पहले पखवाड़े में कांग्रेस ने संविधान सभा के लिए प्रस्तावित संविधान का खाका बनाने के लिए पंडित नेहरू की अध्यक्षता ने एक विशेषज्ञ समिति का गठन कर दिया था। इस समिति में के. एम. मुंशी, आसफ अली, एन. गोपालस्वामी आयंगर, के. टी. शाह, के. संथानम, हुमायूं कबीर और डी.आर. गाडगिल थे। उधर, महात्मा गांधी भारत के विभाजन की संभावना को किसी भी तरह से खारिज करना चाहते थे, इसीलिए उन्होंने कैबिनेट मिशन की योजना के बनते समय और फिर उसके बाद लार्ड माउंटबेटन की योजना बनते समय भी यह विकल्प रखा था कि मोहम्मद अली जिन्ना को भारत की अंतरिम सरकार का प्रधानमंत्री बना दिया जाए और जिन्ना-मुस्लिम लीग ही मंत्रिमंडल का भी गठन करें। ऐसा भी प्रचारित किया गया कि जवाहर लाल नेहरू महात्मा गांधी के इस प्रस्ताव से नाराज़ थे, लेकिन तथ्य बताते हैं कि ऐसा नहीं था। स्टैनली वोलपर्ट अपनी किताब ‘जिन्ना ऑफ पाकिस्तान’ में लिखते हैं कि “जवाहर लाल नेहरू ने इस प्रस्ताव पर क्रोध में कोई प्रतिक्रिया नहीं दी थी, न ही वे अचंभित थे।”

लार्ड माउंटबेटन और महात्मा गांधी के बीच हुई बातचीत के दस्तावेज (द ट्रांसफर ऑफ पावर्स 1942-7, भाग 10) के मुताबिक़ एक अप्रैल 1947 को महात्मा गांधी ने लार्ड माउंटबेटन से मुलाक़ात की और कहा कि वे जिन्ना से प्रधानमंत्री पद स्वीकार करने का आग्रह करें। महात्मा गांधी के इस प्रस्ताव पर नेहरू ने संशय जरूर जाहिर किया था कि क्या जिन्ना यह प्रस्ताव स्वीकार करेंगे?

नेहरू और वी.पी. मेनन ने अलग-अलग अवसरों पर वायसराय लार्ड माउंटबेटन से कहा था कि यह प्रस्ताव गांधी पहले भी दे चुके हैं और अपने कारणों से जिन्ना ने उसे स्वीकार नहीं किया। जिन्ना जानते थे कि कांग्रेस बहुमत में है और तत्कालीन परिस्थितियों में लोकतांत्रिक ढंग से कोई भी निर्णय लेने के लिए उन्हें कांग्रेस के समर्थन की जरूरत थी। तत्कालीन सांप्रदायिक टकरावों के माहौल में अगर वे स्थिति नियंत्रित नहीं कर पाये, तो उनका राजनीतिक वजूद ख़त्म हो जाएगा। खाद्य असुरक्षा और गरीबी का संकट भी सामने था। सबसे बड़ी बात यह थी कि इससे पाकिस्तान की मांग कमज़ोर पड़ जाती। ऐसे में वे जानते और मानते थे कि मुस्लिम लीग अंतरिम सरकार नहीं चला पाएगी। अगर जिन्ना अंतरिम सरकार के प्रधानमंत्री बनते तो मुस्लिम लीग के लिए संविधान सभा में शामिल होना भी जरूरी हो जाता। कुल मिलाकर महात्मा गांधी का प्रस्ताव बहुत परिपक्व राजनीति का परिणाम था। यह अलग बात है कि मुस्लिम लीग के रुख को देखते हुए कांग्रेस ने भी इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया।

जब मुस्लिम लीग ने कैबिनेट मिशन के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया तो वायसराय लार्ड वावेल ने 12 अगस्त 1946 को 14 सदस्यों के मंत्रिमंडल वाली अंतरिम सरकार के गठन के लिए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के जवाहरलाल नेहरू को आमंत्रित किया, इनमें से 5 मुस्लिम सदस्य रखे जाने थे। 24 अगस्त 1946 को अंतरिम सरकार के 12 सदस्यों की घोषणा कर दी गयी, जिसमें जवाहरलाल नेहरू, वल्लभ भाई पटेल, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, आसफ अली, सी. राजगोपालाचारी, शरत चन्द्र बोस, जान मथाई, बलदेव सिंह, शफात अहमद खान, जगजीवन राम, अली जहीर और सी.एच. भाभा शामिल थे। इसमें दो और मुस्लिम सदस्यों को शामिल किया जाना शेष था। मुस्लिम लीग अंतरिम सरकार में शामिल नहीं हुई। जवाहर लाल नेहरू ने मोहम्मद अली जिन्ना से सरकार में शामिल होने का आग्रह किया और इसके लिए 15 अगस्त 1946 को बम्बई में उनके साथ बैठक भी की; लेकिन मुस्लिम लीग ने इसे स्वीकार नहीं किया 16 अगस्त 1946 को मुस्लिम लीग ने इन राजनीतिक घटनाक्रमों के विरोध में मुसलामानों से “सीधी कार्रवाई” के लिए आगे आने और बलिदान देने का आह्वान कर दिया। इससे देश में सांप्रदायिक टकराव शुरू हो गया।

मुस्लिम लीग भारतीय संविधान सभा में भी शामिल नहीं हुई। नौ दिसंबर 1946 को संविधान सभा ने अपना काम करना शुरू कर दिया था। मुस्लिम लीग की अनुपस्थिति में अनौपचारिक रूप से यह तय किया गया कि संविधान सभा एक महीने कोई निर्णायक बात न करे ताकि मुस्लिम लीग का विश्वास अर्जित किया जा सके कि उनके हितों को सभा में नज़र अंदाज़ नहीं किया जाएगा। इसके लिए 23 दिसंबर 1946 के बाद सभा की बैठक 20 जनवरी 1947 को हुई। लेकिन मुस्लिम लीग सभा में शामिल नहीं हुई।

23 जनवरी 1947 को पंडित नेहरू ने संविधान सभा में कहा कि “हम, सबका सहयोग पाने के इच्छुक हैं। तब से आज छह हफ्ते गुज़र चुके हैं और इस बीच अगर वे आना चाहते तो उनको काफी मौका मिला। दुर्भाग्य से उन्होंने अब तक आने का फैसला नहीं किया और अभी भी अनिश्चय की अवस्था में पड़े हैं। मुझे इसका खेद है और मैं इतना ही कह सकता हूं कि वे भविष्य में जब आना चाहें आयें, हम उनका स्वागत करेंगे, पर यह बात साफ़-साफ़ समझ लेनी चाहिए और इसमें कोई ग़लतफ़हमी नहीं होनी चाहिए कि भविष्य में हमारा काम रुकेगा नहीं, चाहे कोई आवे या न आवे।”

संघ संविधान और नेहरू

कैबिनेट मिशन योजना के मुताबिक़ भारत का विभाजन नहीं होना था और इसके बजाय एक विकेंद्रीकृत संवैधानिक व्यवस्था बनाई जानी थी। इस व्यवस्था में भारत को तीन मंडलों – मंडल अ, ब और स में वर्गीकृत किया गया था। इन तीनों मंडलों के अलग-अलग संविधान बनाये जाने की व्यवस्था थी। इसके साथ ही एक संघ संविधान भी बनाया जाना था। संघ संविधान के अंतर्गत ऐसी व्यवस्थाएं बनाई जानी थीं, जिनके माध्यम से भारत के सभी वर्गीकृत हिस्सों का परस्पर जुड़ाव बना रहे और इसके साथ ही प्रांतों-मंडलों और संघ के दायरों को साफ़-साफ़ तरीके से परिभाषित किया जाना था।

संघ विधान समिति

संघ (यानी केंद्र सरकार) के संविधान को बनाने के लिए 25 जनवरी 1947 को संविधान सभा ने संघ विधान (संविधान) समिति अथवा संघ अधिकार समिति गठन किया था। इस समिति में पंडित जवाहर लाल नेहरू, शरतचंद्र बोस, डॉ. बी. पट्टाभि सीतारमैय्या, पं. गोविंद वल्लभ पंत, जयरामदास दौलताराम, विश्वनाथ दास, सर एन. गोपालस्वामी आयंगर, बख्शी सर टेकचंद, सर अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर, डी.पी. खेतान, एम. आर. मसानी और के.एम. मुंशी शामिल किए गये। इस समिति की अध्यक्षता भी पंडित नेहरू ने ही की थी। इस समिति ने केंद्र सरकार की शक्तियों के निर्धारण में अहम भूमिका निभाई।

इस समिति को संयुक्त भारत के लिए एक ऐसा सामंजस्यपूर्ण संविधान बनाना था, जो भारत के विभिन्न प्रांतों/मंडलों से व्यवस्थागत विरोधाभासों और टकराव की संभावना को समाप्त करता हो। इसके साथ ही, उस संविधान में केंद्र को रक्षा, यातायात और विदेशी मामलों के अधिकार दिए गए हों और इसके साथ ही केंद्रीय व्यवस्था के संचालन के लिए आर्थिक संसाधन जुटाने की व्यवस्था की गयी हो।

इस समिति का काम बहुत चुनौतीपूर्ण था क्योंकि अल्पसंख्यकों और आदिवासी क्षेत्रों की योजना से संघ के संविधान का कैसा संबंध होगा? जब दो प्रांतों या गुटों के बीच असहमति होगी, तब उस विषय का निर्णय और समाधान कैसे होगा? जब अलग-अलग गुटों/मंडलों के अपने संविधान होंगे, तब न्यायिक व्यवस्था और मौलिक अधिकारों के संरक्षण की व्यवस्था कैसी होगी?

इस समिति की पहली रिपोर्ट 28 अप्रैल 1947 को और दूसरी रिपोर्ट 4 जुलाई 1947 को जमा की गयी, जिस पर 21 जुलाई 1947 को सभा में चर्चा हुई।

संघ विधान समिति की रिपोर्ट को प्रस्तुत करते हुए पंडित नेहरू ने कहा था कि – हमें प्रारंभ में ही एक बात का निर्णय कर लेना है कि हमारी शासन पद्धति क्या होगी? इस समिति ने राष्ट्रपति के अप्रत्यक्ष निर्वाचन की व्यवस्था बनाई थी। पंडित नेहरू का कहना था कि बहुतेरे सदस्य राष्ट्रपति के अप्रत्यक्ष निर्वाचन पर आपत्ति कर सकते हैं और वयस्क मताधिकार के आधार पर चुनाव किया जाना पसंद करेंगे। हमने इस विषय पर गंभीर चिंतन किया और इस दृढ़ निश्चय पर पहुंचे हैं कि ऐसा करना उचित न होगा। हम मंत्रिमंडल मूलक शासन पद्धति पर ही जोर देना चाहते हैं। वस्तुतः शक्ति मंत्रिमंडल और व्यवस्थापिका में निहित है, न कि राष्ट्रपति में; पर साथ ही हम यह भी नहीं चाहते हैं कि राष्ट्रपति केवल काठ की मूरत हो यानी नाममात्र का प्रधान हो। हमने उसे कोई वास्तविक क्षमता तो नहीं दी है पर उसके पद को बड़ी ही मर्यादा और क्षमता संपन्न बनाया है। वह समूची रक्षा सेना का प्रधान नायक है।

उन्होंने आगे कहा- कुछ लोगों का यह भी कहना है कि राष्ट्रपति के चुनाव की इतनी जटिल प्रणाली क्यों रखी? क्यों न केंद्रीय व्यवस्थापिका ही राष्ट्रपति चुन लें? अवश्य ही यह बहुत सरल होगा, पर इससे बड़ी संकीर्णता आ जाएगी। केंद्रीय व्यवस्थापिका में एक दल या गुट की प्रधानता हो सकती है; अगर वह दल या गुट राष्ट्रपति का निर्वाचन करता है तो अवश्य ही अपने ही दल के किसी व्यक्ति को राष्ट्रपति चुनना चाहेगा। ऐसा राष्ट्रपति कठपुतली के अलावा क्या होगा?

इसी समिति ने भारत में दो सदनों वाली संसदीय व्यवस्था का निर्धारण किया, राष्ट्रपति के चुनाव और अधिकारों, सर्वोच्च न्यायालय और निर्वाचन की व्यवस्था की प्रारम्भिक व्याख्या की। इसके साथ ही व्यवस्था के संचालन के लिए संघीय विषयों, प्रांतीय विषयों और सहगामी विषयों की सूची का प्रावधान किया।

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