वाजिब थीं जयपाल सिंह मुंडा की शिकायतें
देश की आज़ादी की लड़ाई के दौर में जहां देश और समाज के सभी प्रमुख मुद्दों पर खुलकर बात की जा रही थी वहीं आश्चर्य की बात है कि आदिवासियों को लेकर बहुत कम बातचीत या विमर्श हो रहा था। देश की कथित मुख्यधारा से गायब आदिवासी समाज स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व करने वाले दलों और राजनेताओं के विचारों से भी ओझल था। भारत को ओलंपिक में हॉकी का पहला स्वर्ण पदक दिलाने वाली टीम के कप्तान रहे आदिवासी नेता जयपाल सिंह मुंडा ने इस विषय पर संविधान सभा में जो कुछ कहा वह एक कड़वी हकीकत है।
सचिन कुमार जैन
संविधान शोधार्थी एवं अशोका फेलोशिप प्राप्त सामाजिक कार्यकर्ता। ‘संविधान की विकास गाथा’, ‘संविधान और हम’ सहित 65 से अधिक पुस्तक-पुस्तिकाओं का लेखन।
यह सही है कि स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में जहां साम्प्रदायिकता, छुआछूत और जाति आधारित शोषण पर खूब बात हुई वहीं देश में आदिवासियों के हक और उनकी अस्मिता पर बहुत कम बहस हुई। संविधान सभा में आदिवासी समुदाय के अधिकारों पर प्रावधान और व्यवस्था बनाने का काम अल्पसंख्यकों के अधिकारों की उप-समिति द्वारा करना तय हुआ था। इस समिति ने अल्पसंख्यकों को तीन भागों में बांटा था :
वर्ग अ – भारतीय संघ में रियासतों को छोड़कर आधे प्रतिशत की कम आबादी वाले यानी एंग्लो इंडियन, पारसी और असम के मैदानों में रहने वाले कबीले;
वर्ग ई – वे जिनकी आबादी डेढ़ प्रतिशत से अधिक नहीं है यानी भारतीय ईसाई और सिख और
वर्ग उ – वे जिनकी आबादी डेढ़ प्रतिशत से अधिक है यानी मुसलमान और अनुसूचित जातियां;
आदिवासियों के साथ राजनीतिक भेदभाव
आदिवासी प्रतिनिधि इस बात को लेकर सजग थे कि किसी भी तरह की ख़ास पहचान, मसलन अल्पसंख्यक घोषित किया जाना, आगे चलकर आदिवासियों की मूल निवासी होने की पहचान पर प्रश्न चिन्ह लगाती रहेगी। संविधान निर्माण की प्रक्रिया के दौरान दलित और आदिवासियों को अनुसूचित जातियों की श्रेणी में शामिल किया गया। आदिवासी नेता अपने समुदाय को अल्पसंख्यक श्रेणी में रखे जाने से सहमत नहीं थे। उनकी मान्यता थी कि आदिवासी भारत के मूलनिवासी हैं और किसी भी अन्य समुदाय से पहले से भारत भूमि पर निवास करते आये हैं। उन्हें अलग श्रेणी में रखना गलत नीति है क्योंकि इससे यह मान्यता स्थापित होगी कि आदिवासी महज कुछ सदियों पहले भारत में बसे हैं और इस आधार पर उनके साथ दोयम दर्जे का सलूक होने लगेगा। हॉकी खिलाड़ी और आदिवासी राजनीतिज्ञ जयपाल सिंह मुंडा ने 24 अगस्त 1949 को संविधान सभा में कहा, “मैं पहले ही कह चुका हूं कि यदि किन्हीं लोगों को भारत में राज करने का अधिकार है, तो वह आदिवासियों को ही है। वे प्रथम श्रेणी के नागरिक हैं और अन्य लोग दूसरी, तीसरी, चौथी अथवा किसी अन्य श्रेणी की भारतीय हैं।”
मूलनिवासी होने के कारण उनका दावा उचित भी था। चूंकि वे भेदभाव की राजनीति को समझ चुके थे, इसलिए वे शासन व्यवस्था में आदिवासियों की मूल पहचान बरकरार रखने की कोशिश कर रहे थे।
उन्हें इस बात से भी आपत्ति थी कि संविधान सभा में आदिवासी मसलों पर की जा रही बहसों में उन्हें लाचार समूह के रूप में पेश किया जा रहा था। उन्होंने कहा भी कि “हम किसी प्रकार की भीख नहीं मांग रहे हैं, बहुसंख्यक समुदाय ने पिछले छः हज़ार वर्षों में जो पाप किए हैं, उनके लिए उसे प्रायश्चित करना चाहिए। इसका निर्णय वे करें कि भूतपूर्व शासकों ने इस देश के आदिवासियों के साथ न्याय किया या नहीं?”
ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र पढ़कर आने वाले जयपाल सिंह संविधान सभा में बिहार से निर्दलीय सदस्य के रूप में चुन कर आये थे। उनका कहना था कि “वास्तव में कांग्रेस ने भी आदिवासियों को नेतृत्व का अवसर प्रदान नहीं किया। बिहार में आदिवासियों की जनसंख्या 41 लाख थी, लेकिन वहां की विधान सभा में केवल 7 आदिवासी चुने गये। कांग्रेस ने भी सामान्य स्थान से किसी आदिवासी को चुनाव लड़ने के लिए खड़ा नहीं किया। मध्यप्रांत और बरार में 29 लाख की आदिवासी जनसंख्या होने के बावजूद उनके लिए केवल एक स्थान रखा गया। आदिवासी नेतृत्व का यह अनुभव था कि आज लोकतंत्र की बात की जा रही है किन्तु आदिवासियों को जंगलों से निकाल कर विधान मंडल में स्थान नहीं दिया जा रहा है।”
अल्पसंख्यक कहे जाने का विरोध
असमानता की खाई इतनी गहरी है, कि इसे बिना विशेष संवैधानिक प्रावधानों के नहीं पाटा जा सकता है। यह खाई केवल आर्थिक गरीबी के कारण नहीं, बल्कि आदिवासी समाज के प्रति सांस्कृतिक-सामाजिक-सामंती भावना के कारण भी गहरी हुई है। इस विषय पर संविधान सभा के सदस्य जयपाल सिंह ने 27 अगस्त 1947 को सभा में कहा कि “मैं भी परामर्श समिति का सदस्य हूं किन्तु अभी अपने साथियों को रिपोर्ट के लिए बधाई देने के लिए खड़ा नहीं हुआ हूं। हम संख्या की दृष्टि से अल्पसंख्यक हैं; इस बात को सामने रखकर हम यहां व्यवहार नहीं कर रहे हैं। हिंदुओं या मुसलमानों से हम कम हैं अथवा पारसियों से अधिक, हमारी इस स्थिति का इस बात से कोई संबंध नहीं। हमारा पक्ष तो इस बात पर निर्भर है कि हमारे तथा अन्य जातियों के लोगों के सामाजिक, आर्थिक और शिक्षा स्तरों में जमीन और आसमान का फर्क है। और यह संविधान द्वारा लगायी किसी विशेष शर्त द्वारा ही संभव हो सकता है कि हम लोगों को साधारण जनता के तल तक लाया जा सके। मेरे विचार में आदिस्वामी अल्पसंख्यक नहीं हैं। मेरा तो हमेशा से ही यह ख्याल रहा है कि वे लोग जो देश के आदिस्वामी थे उनकी संख्या चाहे कितनी ही थोड़ी क्यों न हो कभी भी अल्पसंख्यक नहीं समझे जा सकते। उन्हें ये अधिकार परम्परा से प्राप्त हुए हैं और संसार में कोई भी उनसे ये छीन नहीं सकता। हम इस समय परम्परा से प्राप्त इन अधिकारों की मांग नहीं कर रहे हैं। हम तो दूसरे लोगों से जो व्यवहार होता है उसकी ही मांग करते हैं। भूतकाल में हमें इस तरह अलग-अलग रखा गया था मानो कि हम किसी चिड़ियाघर में रहते हों। इसके लिए मुझे बड़े राजनैतिक दलों, अंग्रेजी सरकार और प्रत्येक शिक्षित भारतीय को धन्यवाद देना है।’’
ऐतिहासिक भेदभाव के शिकार हुए आदिवासी
जयपाल सिंह ने कहा कि भूतकाल में हमारे प्रति सब लोगों का इस प्रकार का व्यवहार रहा है। हमारा कहना तो यह है कि आपको हमारे साथ मिलना ही होगा और हम भी आपके साथ मिलने के लिए तैयार हैं। इसी कारण से तो हमने प्रांतीय सभाओं में स्थानों की सुरक्षा के लिए जोर लगाया है ताकि हम आपको समीप आने के लिए बाध्य कर सकें और स्वयं अवश्य ही आपके समीप आएं। हमने पृथक निर्वाचन की कभी मांग नहीं की और वस्तुतः हमें यह कभी प्राप्त भी नहीं हुआ। केवल आदिवासियों के एक छोटे से अंग को जो कि अन्य मतों को और विशेषकर पाश्चात्य ईसाई धर्म को अपना चुका था, पृथक निर्वाचन प्राप्त हुआ था। परंतु इनकी बहुत बड़ी संख्या, जहां कहीं पर भी उन्हें मत देने का अधिकार प्राप्त हुआ था, साधारण निर्वाचन के ही मातहत थी। हां, उनके लिए स्थान सुरक्षित कर दिये गये थे। अतः जहां तक आदिवासियों का संबंध है, कोई भी परिवर्तन नहीं हुआ। परंतु आंकड़ों की दृष्टि से एक बहुत बड़ा परिवर्तन हो चुका है।
भारत में जब ब्रिटिश साम्राज्य के तहत चुनाव हुए, तब भी आदिवासियों को उनकी संख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व नहीं मिला। जयपाल सिंह ने सभा को बताया कि “सन 1935 के एक्ट के अनुसार भारत की सारी प्रांतीय सभाओं (यानी राज्यों में) के 1585 सदस्यों में से आदिवासियों के केवल 24 सदस्य ही थे और केन्द्र में तो उनका एक भी सदस्य न था। अब वयस्क मताधिकार विधि के अनुसार, जो प्रत्येक लाख आबादी के पीछे एक सदस्य भेजने का अधिकार देती है, हमारी स्थिति में बड़ा भारी फर्क आयेगा। अब यह गिनती पहले से दस गुना होगी। जब मैं भारत का जिक्र करता हूं, तो क्या मैं देसी रियासतों से भी यह निवेदन कर सकता हूं। देसी रियासतों में आदिवासियों को थोड़ा-सा भी प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं। मैं आशा करता हूं, एक भारतीय भारत के भाव वहां पर भी उचित रूप से प्रवेश कर जायेंगे।”
सभा में कहा गया कि अनुसूचित जातियों के लिए नियुक्तियों में आरक्षण की बात हुई, किन्तु आदिवासियों को इस मामले में भुला ही दिया गया। इस विषय पर जयपाल सिंह और पं. गोविन्द वल्लभ पन्त के बीच नोक-झोंक भी हुई। किसी के द्वारा यह कहे जाने पर कि अल्पसंख्यक और कबाइली विदेशियों का मुंह ताकते हैं, जयपाल सिंह ने कहा कि “हम विदेशियों का नहीं देशवासियों का मुंह ताकते हैं। हम विदेश नहीं गये, हम बातचीत करने लंदन नहीं गये। हम मंत्रिमंडल मिशन के पास भी नहीं गये। हम केवल अपने देशवासियों की ओर देखते हैं कि वह हमसे समुचित और न्यायसम्मत व्यवहार करें। गत छः हजार वर्षों से हमारे साथ भद्दा व्यवहार किया जा रहा है। सलाहकार समिति में किसी आदिवासी महिला सदस्य का नाम नहीं है।”
आदिवासी समुदाय के मन में यह बात बहुत गहरे तक जमी हुई है कि मूल निवासियों के साथ आर्यों ने बुरा बर्ताव किया, उनसे उनके संसाधन तो छीने ही, साथ में उन्हें असभ्य साबित करते हुए उनकी पारंपरिक व्यवस्थाओं का अपमान किया।