संविधान दिवस विशेष
क्यों जरूरी है संविधान निर्माण की समझ?
हमारे संविधान निर्माताओं ने जो संविधान रचा, उसके पीछे अनेक परिस्थितियां थीं। ध्यान से देखें तो उस दौर के हालात और उनसे जुड़ी प्रतिक्रियाओं को भी हम संविधान में देख सकते हैं। भारतीय संविधान के प्रावधानों में औपनिवेशिक शासन की कमियों और ज्यादतियों को लेकर प्रतिक्रिया साफ महसूस की जा सकती है। एक परतंत्र देश से स्वतंत्रता की ओर बढ़ रहे हमारे देश के संविधान निर्माताओं ने संविधान में ऐसी तमाम बातों को शामिल किया जो आज़ादी के महत्व को रेखांकित करती हैं।
सचिन कुमार जैन
संविधान शोधार्थी एवं अशोका फेलोशिप प्राप्त सामाजिक कार्यकर्ता। ‘संविधान की विकास गाथा’, ‘संविधान और हम’ सहित 65 से अधिक पुस्तक-पुस्तिकाओं का लेखन।
आज पूरा देश संविधान दिवस मना रहा है। संविधान दिवस यानी 26 नवंबर का दिन। सन 1949 में आज ही के दिन हमने अपने संविधान को अपनाया था। वही संविधान जो वर्षों तक चली बैठकों, सघन बहसों और वाद-विवाद के बाद हमारे सामने आया था।
संविधान दिवस यह परीक्षण करने के लिए एकदम उचित दिन है कि वास्तव में हम अपने संविधान को आखिर कितना जानते हैं। विस्मृति के इतने संसाधनों के बीच क्या यह बात कभी हमारी वर्तमान पीढ़ी की स्मृति में भी आती होगी कि आज़ादी के पहले हमारा देश उपनिवेशवाद के किस दर्द से गुजरा है? क्या आज के युवा गुलामी के जीवन की कल्पना भी कर सकते हैं? यह सही है कि पितृ सत्ता और जातिवाद जैसी सामाजिक गुलामियां आज भी मौजूद हैं लेकिन उस वक्त तो सबसे आवश्यक थी अंग्रेजों की गुलामी से निजात।
उस दौर में अलग-अलग विचारधाराओं के लोग आज़ादी का लक्ष्य लेकर अपने-अपने तरीके से लड़े, परंतु इस बात पर पर्याप्त बहस और पहल नहीं हुई कि अंग्रेजों से आज़ाद होने के बाद हम सामाजिक-आर्थिक असमानता, जातिवाद और लैंगिक भेदभाव की गुलामी से कैसे मुक्ति पाएंगे। महात्मा गांधी और डॉ. बी. आर. अम्बेडकर के नेतृत्व में हुई पहल जरूर हमारे सामने हैं लेकिन उनके आंदोलन वैसे जनांदोलन नहीं बन सके जैसा कि उन्हें बनना चाहिए था।
स्वतंत्रता के बाद भी हम देश में वैसी शिक्षा, संवाद और सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था रच पाने में नाकाम रहे जो लोगों को अपने देश, अपनी धरती और अपने पर्यावरण से जोड़ पाने में कामयाब हो पाती। हम लोगों में भागीदारी की भावना विकसित कर पाने में नाकाम रहे और अपने पर्यावरण तथा अपनी धरोहरों के प्रबंधन और रखरखाव की जिम्मेदारी का अहसास पैदा नहीं कर सके।
इसके उलट राजनीतिक सत्ता ने नागरिकता के विकास को रोकने की कोशिश की। यह इसलिए ताकि निर्णय लेने और उन्हें लागू कराने का अधिकार सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक शक्तियों के हाथ में रहे। आदिवासियों, दलितों, वंचितों, महिलाओं, मजदूरों, किसानों और युवाओं को इन शक्तियों में शामिल नहीं होने दिया गया।
संविधान का निर्माण भी इसीलिए हुआ था ताकि इस सवाल का जवाब तलाशा जा सके कि आज़ाद होकर भारत कैसा देश बनेगा। डॉ. बी. आर. अम्बेडकर से लेकर डॉ. राजेंद्र प्रसाद तक सभी नेताओं का यही कहना था कि संविधान चाहे कितना भी अच्छा हो लेकिन अगर उसे लागू करने वाले लोग अच्छे नहीं होंगे तो वह संविधान बेकार साबित होगा।
भारत की आधिकारिक संविधान सभा भले ही 1946 में बनी हो लेकिन देश में संविधान निर्माण की पहल तो 1895 में संविधान विधेयक की प्रस्तुति के साथ ही आरंभ हो चुकी थी। अंतिम तौर बनी संविधान सभा ने भी पहले बने प्रारूपों का इस्तेमाल किया था।
गुलामी, स्वतंत्रता का विपरीत शब्द है। मुश्किलों से मिली स्वतंत्रता को ध्यान में रखते हुए ही हमारे संविधान में स्वतंत्रता को एक संवैधानिक मूल्य के रूप में स्थापित किया गया और अभिव्यक्ति की आज़ादी को इतना महत्व दिया गया। अंग्रेजी दासता ने हमारे मौलिक अधिकारों का हनन किया था। नतीजा, हमारे संविधान में हर भारतीय को मौलिक अधिकार प्रदान करने का निश्चय किया गया। यह सुनिश्चित किया गया कि देश के लोग अपना नेता, अपनी सरकार स्वयं चुनेंगे। इसके लिए संसदीय प्रणाली और चुनावों की व्यवस्था की गई।
इन बातों से समझा जा सकता है कि भारत का संविधान किसी बौद्धिक विमर्श का नतीजा नहीं है, बल्कि उसके हर प्रावधान में उपनिवेशवाद से मुक्ति का आग्रह है।
शायद ही किसी को इस बात पर संशय होगा कि औपनिवेशिक शासन लोगों की गरिमा, स्वतंत्रता और उनके सामाजिक और मौलिक अधिकारों को छीन लेते हैं। औपनिवेशिक शासन का लक्ष्य जनता का हित नहीं बल्कि संसाधनों की लूट होती है। ऐसे में न्याय तंत्र भी बेमानी हो जाता है और बच्चों की शिक्षा और महिलाओं के बुनियादी अधिकार भी छीन लिए जाते हैं। नए स्वतंत्र हुए भारत और उसका संविधान बना रहे विद्वत जनों की सभा के समक्ष भी ये सभी चुनौतियां थीं।
यही वजह है कि संविधान में यह सुनिश्चित किया गया कि हर व्यक्ति को गरिमा के साथ जीने का बुनियादी अधिकार मिले और रोजगार और आजीविका का हक़ हासिल हो। यह तभी संभव है जब संसाधनों का एक समान वितरण हो, बच्चों को शिक्षा का अधिकार मिले, लोगों को अभिव्यक्ति की आजादी हो और छुआछूत से परे हर किस्म का भाई-चारा और बहनापा हो।
यहां पर एक महत्वपूर्ण बात और सामने आती है और वह है, देश का पंथनिरपेक्ष और समाजवादी चरित्र। अक्सर यह सुनने को मिलता है कि ये दोनों शब्द मूल संविधान में नहीं थे और इन्हें 42वें संविधान संशोधन के माध्यम से संविधान की प्रस्तावना में शामिल किया गया। परंतु सत्य क्या है? सत्य तो यह है कि ये दोनों, शब्द रूप में भले ही संविधान में पहले से शामिल नहीं थे लेकिन संविधान में इनका भाव हमेशा से शामिल था। उदाहरण के लिए जब संविधान कहता है कि राज्य धर्म, जाति, लिंग, वंश आदि के आधार पर किसी से भेदभाव नहीं करेगा तो दरअसल वह पंथ निरपेक्षता की भी बात करता है। जब संविधान कहता है कि संसाधनों का समान वितरण होगा, समान काम का समान वेतन होगा और सबको आर्थिक न्याय का अधिकार होगा तो वह समाजवाद की ही बात करता है।
देश की स्वतंत्रता के साथ हमें धार्मिक आधार पर विभाजन, सांप्रदायिकता, गरीबी और लुटे-पिटे संसाधन हासिल हुए थे। ऐसे में पंथ निरपेक्षता और समाजवाद को हमारी संवैधानिक व्यवस्था का हिस्सा तो होना ही था, 42वें संशोधन ने तो बस इन भावों को शब्द दे दिए।
यदि हम उपनिवेशवाद के इतिहास, विभिन्न संघर्षों, राजनीतिक परिघटनाओं और तत्कालीन नेताओं के मनोभावों को समझे बिना संविधान को अपनाना चाहेंगे, तो वह निर्जीव और संवेदनाविहीन अनुच्छेदों के नीरस संकलन से ज्यादा कुछ नहीं होगा।
संविधान से रिश्ता बनाने के लिए संविधान निर्माण के इतिहास को जानना जरूरी है। इस दौरान ईस्ट इंडिया कंपनी और फिर ब्रिटिश साम्राज्य शासन द्वारा बनाए गए नियमों-अधिनियमों का भी संज्ञान लिया जाए। ऐसा भी नहीं है कि स्वतंत्रता के समय सीधे संविधान सभा का गठन हुआ और संविधान बन गया। वास्तव में 21 ऐसे प्रारूप-दस्तावेज-घोषणापत्र हैं, जो सन 1895 से दिसम्बर 1946 के बीच लिखे-प्रस्तुत किए गए और जो संविधान के स्वरूप को अलग-अलग नज़रिये से परिभाषित करने की कोशिश करते हैं। इन सभी का असर भारतीय संविधान पर दिखता है। इन सभी प्रारूपों में मानव अधिकारों और स्वयं की शासन व्यवस्था को स्थापित करने का बड़ा सपना जरूर शामिल था।
कहा तो यह भी जाता है कि भारत का संविधान मौलिक दस्तावेज नहीं है। इस बात को स्वयं डॉ. अम्बेडकर ने भी स्वीकार किया है, किन्तु साथ में यह प्रश्न भी उन्होंने पूछा कि अच्छी व्यवस्था बनाने के विचार और विकल्प हमेशा मौलिक कैसे हो सकते हैं? हमने दुनिया भर की संवैधानिक व्यवस्थाओं का अध्ययन किया और उन्हें भारत की सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक कसौटियों पर कसा, इसके बाद ही उन पर निर्णय लिया। यानी हमने उपयोगी विकल्पों का स्थानीयकरण-भारतीयकरण भी किया।
बहरहाल सच तो यह है कि संविधान सभा के कई सदस्यों, जिनमें डॉ. राजेन्द्र प्रसाद भी थे और डॉ. अम्बेडकर भी ने कहा था कि संविधान कैसा भी हो, उसका क्रियान्वयन तो हमारे नेताओं और प्रतिनिधियों की मंशा और चरित्र पर निर्भर करेगा। संविधान कितना ही अच्छा हो, यदि उसका क्रियान्वयन करने वाले भ्रष्ट, साम्प्रदायिक, फासीवादी और अनैतिक हैं; तो अच्छे से अच्छा संविधान भी बेकार ही साबित होगा।
संविधान सभा में भारत की विविधता का प्रतिनिधित्व करने वाले नेता और विशेषज्ञ शामिल थे। कई ऐसे सदस्य भी थे, जिन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में संघर्ष किया और जो सामाजिक परिवर्तन आंदोलन के प्रतिनिधि भी थे। इस सभा में विचारों और प्रस्तावों पर गंभीर मतभेद थे, किन्तु महत्वपूर्ण यह है कि खूब बहस हुई, संवाद हुआ और ज्यादातर विषयों पर सहमति बनी। भारत के संविधान में दर्ज प्रावधानों और अनुच्छेदों के भावों को समझने के लिए संविधान सभा के वाद-विवादों को पढ़ना एक किस्म की अनिवार्यता है। इसके बिना संवैधानिक प्रावधानों की महत्ता स्थापित कर पाना कठिन होगा।