अजय बोकिल

लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार एवं संविधान संवाद फेलो हैं।

भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में संसद और विधानमंडलों की चुनाव प्रक्रिया संविधान के भाग 15 के तहत अनुच्छेद 324 व 325 के अंतर्गत सम्पन्न होती है, लेकिन मीडिया द्वारा संवैधानिक मूल्यों को ध्यान में रखकर रिपोर्टिंग करने अथवा उन मूल्यों की कसौटियों पर कसने का अलग से उपक्रम शायद ही हुआ हो। इसका कारण शायद यह है कि देश में संवैधानिक मू्ल्यों और लोकतांत्रिक मूल्यों में कोई बुनियादी और भावात्मक अंतर नहीं है। चुनाव प्रक्रिया लोकतां‍त्रिक मूल्यों के तहत लोकतांत्रिक मूल्यों के संरक्षण के लिए ही सम्पन्न की जाती है। ताकि शासन व्यवस्था में जनता की सर्वोच्चता बरकरार रहे।

भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और विश्व की लगभग 14 फीसदी आबादी इस प्रक्रिया में हिस्सेदारी करती है। इस चुनाव प्रक्रिया में मीडिया की भूमिका जहां लोगों तक चुनाव से सम्बन्धित हर सूचना, पूरी प्रामाणिकता के साथ पहुंचाने, इसको लेकर लोक जिज्ञासा का शमन करने के साथ साथ इस समूची प्र‍क्रिया में कुछ असंवैधानिक अथवा अलोकतांत्रिक घट रहा हो तो उसे जनता के समक्ष पुरजोर तरीके से उठाने की होती है। संक्षेप में कहें तो समूची चुनाव प्रक्रिया में मीडिया की भूमिका उस पहरेदार की है, जो स्वयं प्रक्रिया का सीधे तौर पर हिस्सेदार नहीं होता, लेकिन पूरी प्रक्रिया पर उसकी बारीक नजर और घटनाओं के सम्प्रेषण में अहम भूमिका रहती है।

दरअसल, संविधान की उददेशिका में उल्लेखित समता, समानता, स्वंतत्रता और न्याय के मूलभूत तत्व हर लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर उसी शिद्दत से लागू होते हैं, जिनमें चुनावी रिपोर्टिंग भी शामिल है। आजकल चुनावी रिपोर्टिंग बाजार को ध्यान में रखकर अटकलबाजी, सर्वे और निम्न स्तर के आरोप-प्रत्यारोपों, उनकी व्याख्या और खंडन मंडन पर ज्यादा केन्द्रित होती है। रिपोर्टर अगर फील्ड में जाते भी हैं तो कई बार वह बताने की कोशिश करते हैं कि जिस एजेंडे के तहत वो रिपो‍र्ट कर रहे हैं, वह कितना सही है। जमीनी हकीकत से उनका वास्ता कम ही होता है। इलेक्ट्राॅनिक मीडिया में तो आजकल मानो पहले से चुनाव नतीजा तय कर लिया जाता है और उसे जायज ठहराने के लिए तरह तरह के तर्क, पोल सर्वे और डाटा विश्लेषण प्रस्तुत किया जाता है। यह प्रवृत्ति भी मतदाता की स्वतंत्र सोच को प्रभावित करने और एक नागरिक की हैसियत से विचार स्वातंत्र्य के अधिकार के विरूद्ध है। इन माध्यमों के जरिए कई बार तो हमें यह खुलकर यह संकेत देने की कोशिश की जाती है कि आपको किसे वोट देना चाहिए। यह मतदान की गोप‍नीयता भंग के साथ साथ राजनीतिक न्याय के अधिकार का भी उल्लंघन है।

चुनाव रिपोर्टिंग

वास्तव में चुनाव रिपोर्टिंग राजनीतिक रिपोर्टिंग की ही एक निहायत रोचक और रोमांचक शाखा है। इसमें खास बात यह है कि मीडिया कर्मी की स्वयं की अपनी राजनीतिक विचारधारा और रूझान होने के बावजूद उसे चुनाव रिपोर्टिंग एक न्यायाधीश की निष्पक्षता और गंभीरता के साथ ही करनी होती है। वह निर्णय प्रक्रिया का सक्रिय हिस्सा होते हुए भी स्वयं निर्णायक नहीं होता और न ही हो सकता है। वास्तव में, चुनाव रिपोर्टिंग मतदाता के मन के जानने का एक बाह्य उपक्रम है। जिसमे संकेतों के जरिए मतदाता के राजनीतिक रूझान की थाह पाने की बहुआयामी कोशिश की जाती है। चुनाव रिपोर्टिंग में रिपोर्टर को मतदाता से यह उगलवाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए‍ कि वह किस प्रत्याशी को जिताना चाहता है, क्योंकि मतदान से पहले ऐसा कहलवाना उसके मताधिकार की गोपनीयता को भंग कर सकता है।

मैंने भी कुछ सालों तक चुनाव रिपोर्टिंग की है। हालांकि, तब धर्म के आधार पर खुलकर राजनीति नहीं होती थी। विचारधारा और स्थानीय समस्याएं और उनके समाधान की अपेक्षा खास मुद्दे हुआ करते थे। 1989 का लोकसभा चुनाव शायद आखिरी चुनाव था, जब भ्रष्टाचार अथवा समाजवादी विचार चुनाव का अहम मुद्दा थे। उसके बाद लगातार मतदाताओं का धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण होता गया है, जो संविधान की धर्मनिरपेक्षता की भावना के अनुरूप नहीं है। चूंकि पहले जैसी स्थिति तो अब लौटना मुश्किल है, लेकिन फिर भी एक जिम्मेदार रिपोर्टर के नाते हमे यह देखना चाहिए कि चुनाव प्रचार में भी धार्मिक भावनाओं का दुरूपयोग तो नहीं किया जा रहा है। एक धर्म के भावनाओं को राजनीतिक शोषण से दूसरे धर्म के लोगों की भावनाओं को ठेस तो नहीं पहुंचाई जा रही है। इसके अलावा लोगों की जिंदगी से जुड़े आर्थिक,सामाजिक न्याय के मुददे को भी पूरे महत्व के साथ रेखांकित किया जाना चाहिए। धार्मिक मुद्दों के शोर शराबे में संविधान में शामिल राजनीतिक, आर्थिक सामाजिक न्याय की भावना गुम नहीं हो जानी चाहिए। ये मुददे जीवित रहें, यह काम मीडिया का भी है।

चुनाव रिपोर्टिंग को संवैधानिक मूल्यों के हिसाब से कैसे परखें

यहां सवाल उठता है कि चुनाव‍ रिपोर्टिंग को क्या संवैधानिक मूल्यों के हिसाब किया और परखा जा सकता है? क्या यह संभव है और नैतिक दृष्टि से यह कितना जरूरी है? खासकर तब कि जब चुनाव प्रक्रिया शुरू होने से उसके समाप्त होने का पूरा ताना बाना आजकल बाजार की शक्तियों से संचालित होने लगा है। इसे समझने के पहले हमे यह जानना होगा कि संविधान ने हमे जो राजनीतिक अधिकार दिया है, वह वयस्क मताधिकार के रूप में है। या यूं कहें कि जितने भी मौलिक अधिकार संविधान ने हमे दिए हैं, उनमें सबसे ताकतवर यह राजनीतिक अधिकार है, जो किसी भी धर्म, मूलवंश, जाति या लिंग‍ निरपेक्ष है। यानी जो भी व्यक्ति 18 वर्ष से ऊपर का है, वह मताधिकार रखता है और इसी आधार पर वह मतदान करता है। इसके जरूरी है कि उसका नाम मतदाता सूची में हो। यहां मीडिया की दृष्टि से पहला संवैधानिक मूल्य यह है कि कोई मतदाता धर्म, जाति या लिंग के आधार पर मताधिकार वंचित नहीं किया जा सकता। उसका नाम मतदाता सूची में होना ही चाहिए। अगर ऐसा नहीं है तो चुनाव रिपोर्टर को इसे तुरंत और आलोचनात्मक भाव से रिपोर्टिंग करनी चाहिए कि फलां फलां व्यक्ति को किसी धर्म, जाति और लिंग के आधार पर मतदान से वंचित तो नहीं किया जा रहा है। अगर किसी भेदभाव के तहत किसी नागरिक को मताधिकार से वंचित करने की कोशिश की जा रही है तो मीडिया को तुरंत इसके खिलाफ आवाज उठाकर उसे न्याय दिलाने का प्रयत्न करना चाहिए।

दूसरा मुद्दा लोकतं‍त्र और राजनीतिक शुचिता का है। हम देख रहे हैं कि अब तो अपराधी भी चुनकर संसद में पहुंच रहे हैं। आर्थिक भ्रष्टाचार और फौजदारी गुनाह ऐसे मुद्दे नहीं रहे, जब तक कि वो बहुत गंभीर किस्म के न हो, किसी को चुनाव मैदान में उतरने से नहीं रोकते। ऐसे में मीडिया का काम है कि लोकतंत्र का मुखौटा पहनने वाले तत्वो को हिम्मत से बेनकाब करे और जनता के सामने उनके असली चरित्र को सामने लाकर मतदाता को ऐसे तत्वो को न चुनने के लिए प्रेरित करे। क्योंकि यह लोकतं‍त्र की शुचिता और व्यक्ति की गरिमा कायम रखने के लिए जरूरी है।

बीते एक दशक में हेट स्पीच और धर्म के आधार पर कटु आलोचना अथवा अनावश्यक महिमा मंडन की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। इसके पीछे उद्देश्य वोटों की धर्म आधारित गोलबंदी कर चुनाव जीतना है। हमारे संविधान की प्रस्तावना में साफ कहा गया है कि इस देश में हर नागरिक को उसकी आस्था के अनुरूप उपासना की स्वतंत्रता है। ऐसे में किसी धर्म विशेष की निंदा कर वोट बटोरना नैतिक रूप से अपराध है। अगर चुनाव प्रचार के दौरान कोई प्रत्याशी ऐसा करता है तो रिपोर्टर का काम है कि वो इस बदनीयती को बेनकाब करे, बजाए इसके कि खुद ही उस भाव धारा में बहने के।

भारत की आजादी के अमृत काल में देश की सबसे बड़ी उपलब्धि यही है कि हमारे यहां सत्ता परिवर्तन एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया और जन भागीदारी से होता है। इसलिए उसकी वैधता ज्यादा है। बीते सात दशकों में एक आम वोटर भी इतना परिपक्व तो हो ही गया है कि उसे पता है कि वह किसी उद्देश्य और किस काम के लिए वोट कर रहा है। इसीलिए कई बार लोकसभा और विधानभा के चुनावों में वोटर का रूझान अलग अलग दिखाई देता है। लेकिन इस मानसिक परिपक्वता को भी प्रलोभन की राजनीति और वादों से तोड़ने की कोशिश की जा रही है। यह संस्कृति मतदाता के विचार की स्वतंत्रता के मूलभूत अधिकार को बाधित करने वाली है। एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए इसे कतई जायज नहीं ठहराया जा सकता। लोक लुभावन वादों से सत्ता हासिल करना वास्तव में मतदाता के विवेक पर ताला डालकर सत्ता चुराने जैसा है।

चुनाव प्रक्रिया के दौरान प्रत्याशी चयन, उसका आधार, प्रचार अभियान की दिशा और दशा, राजनीतिक दलों के घोषणा पत्र में किए जाने वाले वादे, चुनाव प्रचार में किया जाने वाला अंधाधुंध खर्च, प्रलोभन, प्रचार की शैली, चुनाव प्रत्याशी का वोटर के साथ व्यवहार, चुनाव जीतने के बाद अपने क्षेत्र के लोगों के साथ उसका रिश्ता, उसकी आर्थिक सम्पन्नता में होने वाले बदलाव भी मीडिया के लिए चुनाव रिपोर्टिंग का हिस्सा होने चाहिए।

हमारा संविधान देश की एकता अखंडता का पैरोकार है। कोई भी दल अथवा पत्याशी चुनाव में ऐसा प्रचार तो नहीं कर रहा है, जिससे देश की एकता अखंडता पर आंच आती हो, इस बात पर नजर रखना भी जरूरी है। अगर ऐसा है तो उसे जनता के सामने लाने में कोताही नहीं करनी चाहिए। संविधान के इन स्थापित मूल्यों के अलावा कुछ और बातें हैं, जिनका ध्यान रखना जरूरी है। पहला है पर्यावरण।

राजनीतिक दलों के घोषणा पत्र में पर्यावरण संरक्षण का स्थान गौण है। जबकि यह बहुत गंभीर वैश्विक समस्या है और समूची मानव जाति तथा पृथ्वी के अस्तित्व से जुड़ा मुद्दा है। अफसोस है कि इसको लेकर राजनीतिक दलों में कोई जागरूकता नहीं है और शायद जनता भी जो पर्यावरण विनाश के नतीजे भुगत रही है, सत्ता निर्धारण में इस बात को ज्यादा महत्व नहीं देती है। राजनीतिक दल राशन, नकदी, मकान आदि देने की बात तो करते हैं,लेकिन यह कोई नहीं कहता कि हम सत्ता में इतने लाख पेड़ प्राथमिकता के साथ लगवाएंगे और देश में वनो और पर्यावरण के विनाश को हर कीमत पर रोकेंगे। राजनीतिक दल जागेंगे भी तो तब जब पानी सर पर से गुजर जाएगा। मेट्रो शहरों में भयंकर जल संकट से इसकी शुरूआत हो चुकी है, कुछ सालो में यह छोटे शहरों और कस्बों तक फैलने वाला है।

चुनाव जैसी अहम लोकतांत्रिक प्रक्रिया में कुछ वर्षों से धार्मिक संतो, बाबाअोंऔर डेरों की दखलंदाजी भी बढ़ी है। यह मतदाता के विवेक और विचार स्वातंत्र्य को कहीं न कहीं अवश्य प्रभावित करती है। लेकिन इससे भी ज्यादा चिंताजनक धर्म के नाम पर फैलाई जा रही अंधश्रद्धा है। चुनाव रिपोर्टिंग में ऐसे मामले को बेखौफ उजागर किया जाना चाहिए।

तीसरा संवैधानिक मूल्यों जेंडर समानता का है। बेशक राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ रही है, लेकिन अभी भी वह उतनी नहीं है, जितनी कि होनी चाहिए। संसद ने महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण का बिल भले पास कर दिया हो, लेकिन व्यवहार में राजनीतिक दलों ने इस चुनाव में भी 20 फीसदी से ज्यादा टिकट शायद ही दिए हैं। इसी तरह मतदाताओं में भी महिलाओं की संख्या लगभग 49 फीसदी है। लेकिन इनमें से कितनी महिलाएं वोट डाल पाती हैं और कितनी स्वविवेक से वोट डाल पाती हैं, यह भी चुनाव रिपोर्टिंग में देखा जाना चाहिए। इसी तरह समाज के कमजोर वर्गों जैसे कि बूढ़ों, दिव्यांगों को किस तरह से वोट करने दिया जाता है, दिया जाता भी है या नहीं, इस पर भी बतौर‍ रिपोर्टर नजर रखने की जरूरत है। लोग अपने मताधिकार का प्रयोग बेखौफ होकर करें, अपने विवेक से करें, बिना किसी प्रलोभन के करें, इस पर मीडियाकर्मी होने के नाते हमे बारीक नजर रखनी चाहिए।

चौथा मुद्दा राजनीति में अपराधियों की बढ़ती भागीदारी का है। इस चुनाव में भी कई ऐसे प्रत्याशी खड़े हैं, जिन पर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। ऐसे प्रत्याशियों की कार्यशील और नीयत पर भी बतौर चुनाव रिपोर्टर हमे पैनी नजर रखनी चाहिए। क्योंकि दरअसल अपराधियों के राजनीति में आने और उच्च पदों पर पदासीन होने से लोकतंत्र की शुचिता और निष्पक्षता के मूल्य का ही हरण हो गया है। इसे जितना नियंत्रित किया जा सकता है, करना चाहिए।

चुनावों में राजनेताओं की भाषा और अभिव्यक्ति का गिरता स्तर बड़ी चिंता का विषय है। मीडिया कर्मी होने के नाते हमे इसकी आलोचना करने और भाषा का स्तर सुधारने पर जोर देना चाहिए। क्योंकि स्वस्थ लोकतंत्र में निम्नस्तरीय भावाभिव्यक्ति का कोई स्थान नहीं है। चुनाव जितने निष्पक्ष होने चाहिए, वैसे ही निष्पक्ष दिखने और उतने ही शालीन भी होने चाहिए। यह व्यक्ति के साथ साथ राजनीतिक दल और समूचे समाज की गरिमा को कायम रखने की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। आज कुछ दूसरे लोकतांत्रिक देश हमारी चुनाव प्रक्रिया और नीयत को लेकर सवाल उठा रहे हैं, जोकि नहीं होना चाहिए।

एक बड़ा खतरा अब चुनाव में फेक न्यूज और झूठे प्रचार का है। प्रौद्योगिकी ने यह बहुत आसान कर ‍िदया है कि आप सौ फीसदी झूठ और बनावटी खबरें व सूचनाएं थोक में प्रसारित करें। यह निष्पक्ष चुनाव की संविधान की भावना के विपरीत और मतदाता को भ्रमित कर किया जाने वाला दुर्भावनापूर्ण कृत्य है। जिम्मेदार मीडिया होने के नाते हमे ऐसे प्रयासों का गंभीरता के साथ फैक्ट चैक करके असलियत मतदाता को बतानी चाहिए।

एक और महत्वपूर्ण संवैधानिक मूल्य है, बंधुता। लोकतंत्र में चुनाव केवल सत्ता के कर्णधारों का मतदान के माध्यम से चयन है। सत्ताधीश जनता के सेवक हैं न कि मालिक। वो अपने संकीर्ण राजनीतिक हितों के लिए लोगों में फूट डालकर अपना उल्लू सीधा करें, यह कतई अस्वीकार्य होना चाहिए। देश में भाईचारा रहेगा तो ही लोकतंत्र कायम रहेगा। यह भाईचारा और बंधुता धार्मिक़, सामाजिक, जातीय, साम्प्रदायिक, सामुदायिक, क्षेत्रीय और भाषाई स्तर पर होनी चाहिए। बंधुता संविधान का बुनियादी मूल्य है। केवल सत्ता हासिल करने के लिए इस मूल्य से छेड़छाड़ की किसी भी कोशिश को उजागर करना और उसकी आलोचना करना मीडिया काम होना चाहिए।

चुनाव तमाम लोकतांत्रिक देशों का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक पर्व होता है। क्योंकि यह जन द्वारा नियं‍त्रित होता है। हमारे देश में प्रेस परिषद ने चुनाव रिपोर्टिंग की कुछ गाइड लाइन्स तय की हैं। प्रेस परिषद ने मीडिया से अपेक्षा की है कि वह चुनाव की वस्तुनिष्ठ और जिम्मेदार रिपोर्टिंग करे। इसका आशय यही है कि मीडिया को पार्टी बनकर काम नहीं करना चाहिए। चुनाव रिपोर्टिंग में संवैधानिक मूल्यों का पालन कैसे हो, इस बारे में कुछ विधिवेत्ता और पत्रकारों की संस्थाओं ने भी प्रयास किए हैं। रिपोर्टर्स कमिटी फॉर फ्रीडम ऑफ द प्रेस ने तो इलेक्शन लीगल गाइड भी जारी की है।

कहते हैं कि वोट के माध्यम से जनता में अपने देश के मालिक होने का बोध जागता है। मतदान के अधिकार की गारंटी 1948 के यूएन मानवाधिकारों और 1966 की नागरिक और राजनीतिक अधिकारों की अंतरराष्ट्रीय प्रतिज्ञा में भी है। इसलिए ज्यादा से ज्यादा से लोग मतदान की प्रक्रिया में भाग लें, इसके लिए उन्हें जागरूक और प्र‍ेरित करना मीडिया की नैतिक और लोकतांत्रिक जिम्मेदारी है। यह सभी का राष्ट्रीय कर्तव्य है क्योंकि लोकतंत्र है, इसीलिए संविधान है और संविधान है, इसीलिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी है।

 

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