स्वतंत्र भारत का गांधीवादी संविधान
महात्मा गांधी का भारत के संविधान निर्माण की प्रक्रिया से प्रत्यक्ष जुड़ाव नहीं था। इसके बावजूद उन्होंने जो विपुल लेखन किया उससे हम जान सकते हैं कि वह कैसा भारत चाहते थे। ‘हिंद स्वराज’ और ‘मेरे सपनों का भारत’ वे प्रमुख कृतियां हैं जिनमें गांधी के स्वप्न को महसूस किया जा सकता है। गांधी आज़ाद भारत में जो व्यवस्थाएं चाहते थे उनका संकलन उनके एक सहयोगी द्वारा संकलित पुस्तक ‘द गांधीयन कांस्टीट्यूशन ऑफ फ्री इंडिया’ में पाया जा सकता है।
सचिन कुमार जैन
संविधान शोधार्थी एवं अशोका फेलोशिप प्राप्त सामाजिक कार्यकर्ता। ‘संविधान की विकास गाथा’, ‘संविधान और हम’ सहित 65 से अधिक पुस्तक-पुस्तिकाओं का लेखन।
भारतीय संविधान निर्माण की प्रक्रिया में भले ही गांधी सीधे तौर पर शामिल नहीं थे लेकिन अपने भाषणों और लेखों के माध्यम से वह अक्सर यह बताते रहते थे कि वह कैसा भारत चाहते हैं। भारत के भावी संविधान को लेकर उनके जहां-तहां बिखरे विचारों को प्रसिद्ध गांधीवादी अर्थशास्त्री श्रीमन नारायण अग्रवाल ने ‘द गांधीयन कांस्टीट्यूशन ऑफ फ्री इंडिया’ (स्वतंत्र भारत का गांधीवादी संविधान) नामक दस्तावेज में गांधी के उन विचारों को शामिल किया जो स्वतंत्र भारत की व्यवस्थाओं से संबंधित थे। इनमें मूलभूत अधिकार और कर्तव्य, स्थानीय सरकार, केंद्र सरकार और न्यायपालिका जैसे विषय शामिल थे। यह दस्तावेज गांधी के सपनों के भारत को बहुत साफगोई से पेश करता है।
गांधी का रामराज
वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य में भले ही रामराज राजनैतिक शब्दावली का हिस्सा बन गया है लेकिन गांधी के लिए रामराज एक आदर्श की कल्पना था। ‘द गांधीयन कांस्टीट्यूशन ऑफ फ्री इंडिया’ में श्रीमन नारायण अग्रवाल ने गांधी के रामराज्य को परिभाषित करते हुए लिखा है, ‘‘धार्मिक आधार पर इसे धरती पर ईश्वर के शासन के रूप में समझा जा सकता है। राजनीतिक तौर पर इसका अर्थ है एक संपूर्ण लोकतंत्र जहां रंग, नस्ल, संपत्ति, लिंग के आधार पर कोई भेदभाव न हो। जहां जनता का शासन हो। तत्काल और कम खर्च में न्याय मिले। उपासना की, बोलने की और प्रेस को आजादी मिले और यह सब आत्मनियमन से हो। ऐसा राज्य सत्य और अहिंसा पर निर्मित हो और वहां ग्राम और समुदाय प्रसन्न और समृद्ध हों।’’
गांधी के संविधान में मौलिक अधिकार
‘द गांधीयन कांस्टीट्यूशन ऑफ फ्री इंडिया’ में मौलिक अधिकारों की व्याख्या करते हुए कहा गया है, “क़ानून के समक्ष सभी नागरिक समान होंगे और जाति, वर्ण, पंथ, लिंग, धर्म या संपत्ति के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होगा। इन आधारों पर वे रोज़गार, लोक सम्मान, व्यापार और वाणिज्य में किसी भी किस्म की अक्षमता का सामना नहीं करेंगे। अहिंसा और सार्वजनिक/लोक नैतिकता के अधीन हर नागरिक को अपनी बात कहने, संगठन बनाने और संवाद करने की स्वतंत्रता होगी। इसके साथ ही लोक व्यवस्था और नैतिकता के सिद्धांतों के अधीन हर नागरिक को अपनी निजी और सामाजिक परम्पराओं का पालन करने की स्वतंत्रता होगी। सभी नागरिकों को अपनी लिपि, भाषा और संस्कृति को सहेजने और विकसित करने की आज़ादी होगी। सभी नागरिकों को कुंओं, तालाबों, मार्गों, विद्यालयों, स्थानीय निकायों या राज्य या निजी व्यक्तियों द्वारा स्थापित सार्वजनिक स्थानों का उपयोग करने की स्वतंत्रता होगी। हर नागरिक को निःशुल्क बुनियादी शिक्षा (नई तालीम) हासिल करने का अधिकार होगा। हर नागरिक हो हिंसा या विपरीत परिस्थितियों में पुलिस का संरक्षण पाने, अपने ईमानदार काम के एवज़ में जीवनयापन के लिए न्यूनतम वेतन पाने, स्वास्थ्य सेवाएं पाने, मतदान करने का अधिकार होगा।”
युद्ध और विश्व शांति: गांधी का नजरिया
आज जबकि दुनिया का एक बड़ा हिस्सा भूराजनैतिक लड़ाइयों में उलझा हुआ है। यूक्रेन-रूस, अरब-इजरायल संघर्ष ने दुनिया को दो हिस्सों में बांट दिया है तब यह जानना जरूरी है कि गांधी विश्व शांति को लेकर क्या सोच रहे थे और युद्धों को लेकर उनके क्या विचार थे। ‘द गांधीयन कांस्टीट्यूशन ऑफ फ्री इंडिया’ में लिखा है, “यह साबित करने की जरूरत नहीं है कि दुनिया में हर युद्ध का बुनियादी कारण आर्थिक शोषण और विश्व बाज़ार पर नियंत्रण पाने का भयंकर लालच है। अब युद्धों में विनाश का सामना करने के बाद ये बड़े देश अपने यहां के उत्पादों का निर्यात बढ़ाकर अपनी विलासिता को भोगते रहना चाहते हैं। उपनिवेश बनाये रखने की यह प्रवृत्ति दुनिया में दुर्भावना और हिंसा को बरकरार रखेगी। जो देश विश्व शांति बनाने की मंशा रखते हैं, उन्हें अपने यहां स्थानीय और विकेन्द्रीकृत उद्योग स्थापित करने चाहिए। आंतरिक रूप से समान वितरण की व्यवस्था स्थापित किए बिना कोई भी देश विश्व शांति की कल्पना नहीं कर सकता। यदि उपनिवेशवाद और आर्थिक नियंत्रण की भावना को नियंत्रित किया जा सके, तो विश्व शांति स्थापित हो सकती है।”
गांधी के संविधान में अल्पसंख्यक प्रश्न
‘द गांधीयन कांस्टीट्यूशन ऑफ फ्री इंडिया’ में अल्पसंख्यकों के सवालों को भी संबोधित किया गया। इस दस्तावेज में कहा गया कि भारत का विभाजन या पाकिस्तान का निर्माण होने से मुस्लिम अल्पसंख्यकों की समस्या का निराकरण नहीं होने वाला। इसमें कहा गया कि अल्पसंख्यकों के अधिकारों और प्रतिनिधित्व से सम्बंधित व्यवस्था बनाने के लिए संविधान सभा की एक समिति बनायी जा सकती है। दस्तावेज के मुताबिक हिन्दू और मुसलमानों की समस्याओं की बुनियाद में अति गरीबी है। स्वराज के माध्यम से इनकी आर्थिक बदहाली को ख़त्म किया जा सकता है।
औंध का संविधान
दक्षिण महाराष्ट्र के सतारा जिले में औंध नामक एक छोटी सी रियासत थी। उस रियासत के शासक ने महात्मा गांधी से प्रभावित होकर अपनी रियासत की सत्ता नागरिकों को सौंपने का निर्णय लिया। गांधी इस बात से प्रसन्न हुए और उन्होंने खुद औंध के लिए एक संविधान तैयार करवाया।
गांधी की सलाह पर तैयार किए गए औंध के संविधान में हर नागरिक को जीवन का अधिकार, अभिव्यक्ति की आजादी, शांतिपूर्ण ढंग से एकत्रित होने का अधिकार, उपासना का अधिकार, कानून के समक्ष समानता का अधिकार, निशुल्क बुनियादी शिक्षा का अधिकार, रोजगार का अधिकार और न्यूनतम वेतन का अधिकार आदि देने पर सहमति बनी। वहां पंचायती राज व्यवस्था कायम की गई और राजा की शक्तियां निर्धारित करने का काम विधायिका पर छोड़ा गया। शिक्षा, समाज कल्याण, पानी की उपलब्धता, सफाई आदि के काम पंचायत को सौंपे गए।
औंध में विधायिका की व्यवस्था की गई। वहां कैबिनेट की व्यवस्था भी की गई जिसके खिलाफ विधायिका अविश्वास प्रस्ताव ला सकती थी। छोटे मोटे मामले पंचायत में निपटाये जाने थे और बड़े मामलों के लिए मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति की गई थी।
इस तरह 1939 में एक छोटे से भारतीय राज्य में संवैधानिक लोकतंत्र का प्रयोग शुरू हुआ। यह गांधी की दृष्टि को ध्यान में रखकर बनाया गया था जहां ग्राम पंचायत राज्य की सबसे बुनियादी इकाई थी। सन 1948 में भारत में विलय होने तक औंध अपने संविधान का बखूबी पालन करता रहा।
कहा जा सकता है कि भारतीय संविधान के निर्माण के साथ सीधे तौर पर न जुड़े होने के बावजूद गांधी के पास आज़ाद भारत के शासन-प्रशासन के लिए एक दृष्टि थी जिसे वह समय-समय पर प्रकट करते रहते थे। आश्चर्य नहीं कि भारत के संविधान में गांधी के कई विचारों से सहमति स्पष्ट देखी जा सकती है।