चुनावी बॉन्ड असंवैधानिक क्यों ?
सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ ने एक ऐतिहासिक निर्णय में चुनावी बॉन्ड की व्यवस्था को असंवैधानिक ठहराते हुए रद्द कर दिया है। न्यायालय ने निर्वाचन आयोग को निर्देश दिया है कि वह इस बॉन्ड के बारे में पूरी जानकारी सार्वजनिक करे। लोकतांत्रिक सुधारों के लिए काम करने वाले संगठन और कुछ राजनीतिक दल काफी समय से यह कह रहे थे कि चुनावी बॉन्ड के माध्यम से चुनाव प्रक्रिया को भ्रष्ट बनाया जा रहा है। सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय दूरगामी प्रभाव वाला साबित हो सकता है।
पूजा सिंह
स्वतंत्र पत्रकार
आज़ादी के बाद देश में अब तक सत्रह बार लोक सभा के चुनाव हो चुनाव हो चुके हैं और इस दौरान चुनावों में धन के बेजा इस्तेमाल को लेकर चिंताएं भी लगातार बलवती होती रही हैं। ऐसे में छह वर्ष पहले जब चुनावी चंदे के लिए इलेक्टोरल (चुनावी) बॉन्ड के रूप में एक नई व्यवस्था आई तो इसे लेकर भी मिलीजुली प्रतिक्रिया सामने आई थी। राजनेताओं का एक वर्ग जहां दान देने वालों की गोपनीयता के अधिकार का हिमायती था तो एक तबका ऐसा था जो कह रहा था कि इससे चुनावों में बेनामी धन बढ़ रहा है और इस प्रकार भ्रष्टाचार में भी इजाफा हो रहा है।
इस बीच देश की सबसे बड़ी अदालत के पांच न्यायाधीशों वाली संवैधानिक पीठ ने चुनावी बॉन्ड को असंवैधानिक ठहराकर इस बहस को विराम दे दिया है। चुनावी चंदे में जरूरी पारदर्शिता लाने से जुड़ा यह निर्णय दूरगामी असर वाला है। सर्वसम्मति से निर्णय देने वाली इस पीठ में मुख्य न्यायाधीश डी.वाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति बी.आर. गवई, न्यायमूर्ति जे.बी.पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा शामिल थे।
पीठ ने अपने निर्णय में संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) का हवाला देते हुए कहा है कि बॉन्ड उसमें अंतर्निहित सूचना के अधिकार को नकारता है। मुख्य न्यायाधीश डी.वाई चंद्रचूड़ ने कहा, ‘‘प्राथमिक तौर पर राजनीतिक योगदान, ऐसा योगदान करने वालों की पहुंच को विधि निर्माताओं तक बढ़ाता है। यह पहुंच आगे चलकर नीति निर्माण में बदलाव में भी बदल जाती है।’’ उन्होंने कहा कि मतदान के विकल्प को प्रभावी ढंग से आजमाने के लिए राजनीतिक दलों को होने वाली चुनावी फंडिंग की पूरी जानकारी का सार्वजनिक होना आवश्यक है।
सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि इस बॉन्ड के माध्यम से चंदा देने वालों के बारे में किसी को कोई जानकारी नहीं होती है जबकि मतदाताओं को यह जानने का अधिकार है कि किस राजनीतिक दल को कौन कितना चंदा दे रहा है। न्यायालय ने चुनावी बॉन्ड को जारी करने के लिए अधिकृत सरकारी बैंक यानी भारतीय स्टेट बैंक को भी निर्देश दिया है कि 12 अप्रैल 2019 से अब तक जारी किए गये बॉन्ड्स की पूरी जानकारी निर्वाचन आयोग को प्रदान की जाये। वहीं निर्वाचन आयोग को कहा गया है कि वह छह से 13 मार्च 2024 के बीच यह सारी जानकारी अपनी वेबसाइट पर डाल दे।
चुनावी बॉन्ड की वैधता पर प्रश्नचिह्न लगाते हुए एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर), कॉमन कॉज तथा मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी सहित पांच याचिकाकर्ताओं ने देश की सबसे बड़ी अदालत का दरवाजा खटखटाया था। ध्यान रहे मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का दावा है कि उसने आज तक एक भी चुनावी बॉन्ड स्वीकार नहीं किया है और वह इसे भ्रष्टाचार और काले धन का जरिया मानते हुए इसके खिलाफ है।
न्यायालय के इस निर्णय को इस आलोक में देखे जाने की आवश्यकता है कि राजनीतिक दलों को इस प्रकार गोपनीय तरीके से चंदा देने की सुविधा स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के राह में एक बड़ी बाधा है। यह सीधे तौर पर लोकतंत्र पर नकारात्मक असर डालने वाली घटना है। एक उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि एक वर्ष पहले यानी मार्च 2023 में एडीआर ने कहा था कि 2020-21 में केंद्र के सत्ताधारी दल सहित सात राष्ट्रीय दलों की कुल आय का 66 फीसदी अज्ञात स्रोतों से प्राप्त हुआ था। हालात की गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इसमें चुनावी बॉन्ड की हिस्सेदारी 83 फीसदी से अधिक थी।
न्यायालय ने राजनीतिक दलों को कंपनियों की ओर से दिए जाने वाले चंदे पर भी अपनी राय रखी। उसने कहा कि आम लोगों की तुलना में कंपनियों में यह क्षमता अधिक होती है कि वे चुनाव प्रक्रिया को प्रभावित कर सकें। ऐसे में यह सही समय है कि निर्वाचन आयोग चुनावी चंदे को लेकर कुछ पारदर्शी नियम तैयार करे।
लोकसभा चुनाव के ठीक पहले सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय जमीनी स्तर पर शायद बहुत असरदार न साबित हो लेकिन उसने देश में चुनावी फंडिंग को लेकर अपारदर्शिता को लेकर पुरानी बहस को एक बार फिर छेड़ दिया है। बीते साढ़े सात दशक से भी अधिक समय से देश में चुनावी राजनीति को लेकर अलग-अलग तरह की बहस चलती रहती है और चुनाव सुधार की मांग भी इसके समांतर होती रहती है।
निर्वाचन आयोग और विधि आयोग जैसे संस्थान लगातार चुनाव सुधारों की सिफारिश करते रहे हैं लेकिन देश की सरकारें इसे अमली जामा पहनाने की इच्छुक नहीं नजर आयीं। आदर्श चुनाव आचार संहिता इसका उदाहरण है। शायद ही कोई उसे गंभीरता से लेता हो। संहिता के उल्लंघन के मामलों में भी चुनाव आयोग कभी ऐसी कार्रवाई नहीं कर सका जो नजीर बन सके।
यहां यह याद करना उचित होगा कि वर्ष 1975 में सिटीजंस फॉर डेमोक्रेसी नामक एक समूह के तहत जय प्रकाश नारायण ने न्यायमूर्ति वी. एम. तारकुंडे की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया था। इस समिति ने चुनावों में धन-बल के उपयोग, शासकीय व्यवस्था के दुरूपयोग, चुनाव आयोग की निष्पक्षता, चुनाव याचिकाओं के सुनवाई में होने वाले विलम्ब को रोकने के लिए सुझाव दिए थे। इसी समिति ने मतदान की आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष करने का सुझाव दिया था। इसी समिति ने आय-व्यय के लेखे, चुनाव खर्च का हिसाब-किताब रखने के लिए सुझाव भी दिये थे।
आदर्श चुनाव आचार संहिता में उल्लेख है कि कोई दल या प्रत्याशी विभिन्न जातियों, धार्मिक या भाषाई समूहों के बीच घृणा और मतभेदों को बढ़ाने वाला कोई काम नहीं करेंगे। परंतु ऐसा नहीं होता है। हमारे देश में चुनावों में धार्मिक ध्रुवीकरण जीत की गारंटी की तरह इस्तेमाल किया जाता है। धार्मिक घोषणाओं को बकायदा चुनाव घोषणापत्र में स्थान दिया जाता है। मतदाताओं के लिए निशुल्क उपहारों की होड़ में लगभग सभी प्रमुख राजनीतिक दल शामिल हैं। क्या मुफ्त उपहारों की घोषणा करके पाये गये मतों को निष्पक्ष और स्वतंत्र माना जा सकता है?
निर्वाचन आयोग के दिशानिर्देशों की मानें तो कोई भी राजनीतिक दल अपने घोषणापत्रों में ऐसी बातों का जिक्र नहीं करेगा जो संविधान में उल्लिखित सिद्धांतों और आदर्शों के खिलाफ जाती हों। अपने आसपास नजर डालने पर पता चलता है कि वास्तव में ऐसा नहीं होता है।
भारत की चुनाव प्रणाली और उसके अनुभवों पर बिना पूर्वाग्रह के विचार करने से पता चलता है कि संविधान सभा में मतदान प्रणाली पर चर्चा करते समय जो भी आशंकाएं व्यक्त की गयीं थीं, वे लगभग सभी सही साबित हुईं। एक तरफ तो भारतीय लोकतंत्र के तीनों स्तंभों – कार्यपालिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका ने चुनाव प्रणाली को संभालने की अपनी-अपनी भूमिका निभाने में लापरवाही बरती, तो वहीं मतदाताओं ने भी अपनी भूमिका नहीं निभाई।