बहुसंख्यक अधर्म
धर्मनिरपेक्षता हमारे संविधान का आधारभूत ढांचा है। संविधान सभी धर्मों और धार्मिक समुदायों को एक समान मानता है और धर्म के आधार पर किसी भी प्रकार के भेदभाव को नकारता है। परंतु हमारी सामाजिक हकीकत इससे अलग है। गंगा-जमनी तहजीब का दम भरने वाले हमारे देश में कई जगह बहुसंख्यक, अल्पसंख्यकों के साथ रहने तक को तैयार नहीं है। क्या यह धर्म है?
संविधान संवाद टीम
‘जीवन में संविधान’ पुस्तक से:
मध्य प्रदेश के इंदौर जिले के कंपेल पिवड़ाय गांव में बहुसंख्यक समुदाय के लोगों ने पिछले दिनों अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को फरमान सुना दिया कि उन्हें हर हालत में 9 अक्टूबर 2021 तक गांव खाली कर देना है क्योंकि वे नहीं चाहते कि उनके गांव में दूसरे धर्म के लोग रहें।
पीड़ित परिवार के एक करीबी रिश्तेदार फजलुद्दीन ने मीडिया को बताया कि उनके परिजनों को दो-तीन महीने पहले यह धमकी दी गई थी कि वे 9 अक्टूबर तक हर हालत में गांव खाली कर दें। जब उन्होंने इस धमकी को गंभीरता से नहीं लिया तो बहुसंख्यक समुदाय के 30-40 लोगों ने शनिवार की रात उनके परिवार पर हमला कर दिया। इसमें पीड़ित परिवार की दो महिलाओं समेत पांच लोग घायल हुए हैं। यह परिवार पारंपरिक तौर पर लोहे के औजार बनाने का काम करता है और हमलावरों ने उनके ही औजारों से उन पर हमला किया।
हालांकि पुलिस महकमा इस आरोप को सिरे से नकार रहा है। पुलिस अधीक्षक महेशचंद्र जैन का कहना है कि यह आपसी विवाद का मामला है और दोनों पक्ष के घायलों को बहुत सामान्य चोटें आई हैं। उन्होंने बताया कि दोनों पक्षों ने एक-दूसरे के खिलाफ एफआईआर दायर की है।
वहीं दूसरी ओर पीड़ित परिवार को कानूनी सहायता मुहैया करा रहे वकील एहतेशाम हाशमी ने आरोप लगाया है कि इस परिवार पर धार्मिक भेदभाव के कारण हमला किया गया है।
हम इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक में हैं। मनुष्य को चांद पर पहुंचे 50 वर्ष से अधिक हो चुके हैं। हमारी प्रगति का आलम यह है कि बिना वाहन चालक की कार सड़क पर उतर रही हैं। मनुष्य अंतरिक्ष में बस्तियां बसाने का स्वप्न देख रहा है। लेकिन क्या इस भौतिक प्रगति का हमारी मानसिक प्रगति से कोई तालमेल है? यदि ऐसा होता तो धर्म के आधार पर लोगों से गांव छोड़ने के लिए मारपीट नहीं की जाती।
भारतीय संविधान भी ऐसे किसी कृत्य की इजाजत नहीं देता है और यह पूरी तरह आपराधिक है। हमारा संविधान हर व्यक्ति को अपने धर्म का पालन करने, उसकी पद्धति से पूजा-अर्चना करने और रीति-रिवाजों का पालन करने की पूरी छूट देता है।
देश के सर्वोच्च न्यायालय ने एसआर बोम्मई बनाम भारत संघ (1994) के मामले में कहा था कि धर्मनिरपेक्षता संविधान का आधारभूत ढांचा है। संविधान सभी धर्म और धार्मिक समुदायों के साथ समान व्यवहार करता है, धर्म व्यक्तिगत विश्वास की बात है, उसे अलौकिक क्रियाओं में नहीं मिलाया जा सकता है।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 25 धर्म की स्वतंत्रता के संबंध में दो तरह के अधिकार देता है – पहला, अंत:करण की स्वतंत्रता और दूसरा, धर्म को मानने, उसका आचरण करने और उसका प्रचार करने की स्वतंत्रता। अंत:करण की स्वतंत्रता यानी ईश्वर के साथ व्यक्तिगत संबंध जबकि इस स्वतंत्रता के बाहरी रूपों को धर्म का प्रचार कहते हैं। धर्म को मानने से तात्पर्य है अपने धर्म के प्रति श्रद्धा और विश्वास की खुलकर घोषणा करना। हमारा संविधान धर्म के आधार पर किसी भी प्रकार के भेदभाव का पूर्णतः निषेध करता है।