शेख मुईन अहमद

हरदा में जिला अदालत में एडवोकेट एवं संविधान संवाद फेलो

पॉक्‍सो एक्‍ट में सजा को लेकर छाए कुंहासे को सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश राज्य बनाम सोनू कुशवाह मामले में साफ किया है। उत्तर प्रदेश राज्य बनाम सोनू कुशवाह (2023 (एससी) 502/सीआरए 1633/2023) मामले में दिनांक 5 जुलाई 2023 को आने निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अदालतें पॉक्सो अधिनियम में निर्धारित न्यूनतम सजा से कम सजा नहीं दे सकती हैं। इस मामले में इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय ने सजा को कम कर दिया था। 

शिकायतकर्ता ने अभियुक्त सोनू कुशवाहा के खिलाफ 26 मार्च 2016 को चिरगांव जिला झांसी में प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराई थी। इसमें कहा गया था कि 22 मार्च 2016 को शाम 5 बजे सोनू कुशवाह शिकायतकर्ता के घर आया और उसके लगभग 10 वर्ष के बेटे को हरदोल के मंदिर में ले गया। वहां उसे 20 रुपए दिए और उससे ओरल सेक्‍स किया। अभियुक्त कुशवाहा ने पीड़ित 20 रुपए लेकर घर आया। पीड़ित के रिश्तेदार/साक्षी ने पीड़ित से पूछा कि उसे 20 रुपए कहां से मिले तब पीड़ित ने अपने साथ हुई पूरी घटना बताई। अभियुक्त ने पीड़ित को धमकी दी थी कि वह घटना के बारे में किसी को ना बताएं। घटना के समय पीड़ित की उम्र 10 वर्ष थी। 

इस मामले में ट्रायल कोर्ट ने आरोपी को पॉक्सो अधिनियम की धारा 6 के तहत दंडनीय अपराध के लिए दस साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई और 5,000 रुपए का जुर्माना देने का निर्देश दिया था। उसे आईपीसी की धारा 377 के तहत दंडनीय अपराध के लिए सात साल के कठोर कारावास की सजा दी गई। आईपीसी की धारा 506 के तहत दंडनीय अपराध के लिए एक वर्ष के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई। 

आरोपी की अपील को आंशिक रूप से स्वीकार करते हुए इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय ने माना कि आरोपी पॉक्सो अधिनियम की धारा 4 के तहत दंडनीय पेनेट्रेटिव सेक्‍सुअल असॉल्ट के अपराध का दोषी था, न कि पॉक्सो अधिनियम की धारा 6 के तहत दंडनीय गंभीर पेनेट्रेटिव सेक्‍सुअल असॉल्ट के अपराध का। इसलिए, पॉक्सो अधिनियम के तहत दंडनीय अपराध के लिए उसकी सजा को 5,000 रुपए के जुर्माने के साथ सात साल के कारावास में बदल दिया गया। 

सुप्रीम कोर्ट के सामने अपील में एकमात्र प्रश्न गया था कि अभियुक्त लैंगिक अपराधों से बालकों के संरक्षण अधिनियम 2012 की धारा 6 के अंतर्गत दंडनीय यौन हमले के अपराध का दोषी है, क्या उसे पॉक्सो अधिनियम में न्यूनतम दंड से दंडनीय सजा से कम दंड दिया जा सकता है?

अपील पर विचार करते हुए सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अभय एस ओका और ज‌स्टिस राजेश बिंदल की पीठ ने माना कि विभिन्न प्रकार के बाल शोषण के अपराधों के लिए अधिक कठोर दंड प्रदान करने के लिए पॉक्सो अधिनियम बनाया गया था। इस एक्‍ट में सजा को शिथिल करना बच्‍चों के प्रति होने वाले अपराधों पर असर डालेगा।  पीठ ने कहा कि हाईकोर्ट ने पाया था कि आरोपी ने लगभग 10 साल के पीड़ित के मुंह में अपना लिंग डाला था और वीर्य निकाला था।

सुप्रीम कोर्ट ने माना कि अल्पायु के बच्चे के मन पर इस घिनौने कृत्य का असर जीवन भर रहेगा। इसका असर पीड़ित के स्वस्थ बाल विकास पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालेगा क्योंकि घटना के बाद पीड़ित की आयु 12 वर्ष से कम थी, इसलिए उच्च न्यायालय के फैसले को रद्द करते हुए विचारण न्यायालय के फैसले को बहाल करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।

पीठ ने कहा कि, इस निष्कर्ष को देखते हुए, आरोपी ने गंभीर पेनेट्रेटिव सेक्‍सुअल असॉल्ट का अपराध किया है क्योंकि उसने बारह साल से कम उम्र के बच्चे पर पेनेट्रेटिव सेक्‍सुअल असॉल्ट किया है। कोर्ट ने कहा, “आश्चर्यजनक रूप से, हाईकोर्ट ने पाया कि धारा 5 लागू नहीं थी, और अभियुक्त/अपीलार्थी द्वारा किया गया अपराध पेनेट्रेटिव सेक्‍सुअल असॉल्ट के कम अपराध की श्रेणी में आता है, जो पॉक्सो अधिनियम की धारा 4 के तहत दंडनीय है। इस प्रकार, हाईकोर्ट ने यह मानकर एक स्पष्ट त्रुटि की कि अपीलार्थी/अभियुक्त द्वारा किया गया कृत्य गंभीर यौन उत्पीड़न नहीं था। वास्तव में, विशेष न्यायालय ने धारा 6 के तहत अपीलार्थी/अभियुक्त को दंडित करने और उसे पांच हजार के जुर्माने के साथ दस साल के कठोर कारावास की सजा देने का निर्णय सही किया था।” 

सजा के संबंध में, पीठ ने अपील की अनुमति देते हुए कहा कि “पॉक्सो अधिनियम को विभिन्न प्रकार के बाल दुर्व्यवहार के अपराधों के लिए अधिक कठोर दंड प्रदान करने के लिए अधिनियमित किया गया था और यही कारण है कि बच्चों पर यौन हमलों की विभिन्न श्रेणियों के लिए पॉक्सो अधिनियम की धारा 4, 6, 8 और 10 में न्यूनतम दंड निर्धारित किए गए हैं। इसलिए, धारा 6, अपनी स्पष्ट भाषा में, न्यायालय के लिए कोई विवेकाधिकार नहीं छोड़ती है और ट्रायल कोर्ट द्वारा की गई न्यूनतम सजा लगाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। जब एक दंडात्मक प्रावधान वाक्यांश “से कम नहीं होगा …” का प्रयोग करता है तब अदालतें इस धारा का उल्लंघन नहीं कर सकती हैं और कम सजा नहीं दे सकती हैं। अदालतें ऐसा करने में तब तक शक्तिहीन हैं जब तक कि कोई विशिष्ट वैधानिक प्रावधान न हो जो अदालत को कम सजा देने में सक्षम बनाती हो।”

Similar Posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *