हिंदी दिवस:
राज भाषा निर्माण का संघर्ष
आज का दिन ऐतिहासिक महत्व का है। आज ही के दिन यानी 14 सितंबर 1949 को भारत की संविधान सभा ने देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिंदी को भारत की आधिकारिक भाषा के रूप में स्वीकार किया था। तब से हम हर वर्ष 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाते हैं। परंतु राज भाषा का चयन इतना आसान न था। इसके पीछे गहन विचार विमर्श और तर्क वितर्क थे।
सचिन कुमार जैन
संविधान शोधार्थी एवं अशोका फेलोशिप प्राप्त सामाजिक कार्यकर्ता। ‘संविधान की विकास गाथा’, ‘संविधान और हम’ सहित 65 से अधिक पुस्तक-पुस्तिकाओं का लेखन।
जिस समय भारत ब्रिटिश उपनिवेशवाद से आज़ाद हो रहा था और एक नए राष्ट्र के रूप में उसका एकीकरण हो रहा था, ठीक उसी समय पहली बार भारत की राज भाषा और राष्ट्र भाषा का प्रश्न खड़ा हुआ। संविधान सभा में हिंदी और अहिंदीभाषी सदस्यों के बीच लंबी बहस के बाद हिंदी को राज भाषा बनाने पर सहमति बन सकी।
हिंदी को अपनाने की कोशिशों की पड़ताल करें तो वर्ष 1904 में पंडित मदन मोहन मालवीय और पुरुषोत्तमदास टंडन ने हिंदी के विकास को ध्यान में रखते हुए हिंदी साहित्य सम्मलेन की स्थापना की। वर्ष 1917 में महात्मा गांधी ने भी कहा था कि हिंदुस्तानी ही हमारी राष्ट्र-भाषा हो सकती है। उन्होंने कहा, “अगर हमें एक राष्ट्र होने का दावा सिद्ध करना है, तो हमारी अनेक बातें एक जैसी होनी चाहिए। हमें समान भाषा की भी जरूरत है। देसी भाषााओं की जगह नहीं बल्कि उनके अलावा। इस पर आम सहमति है कि यह माध्यम ‘हिंदुस्तानी’ ही होना चाहिए, जो हिंदी और उर्दू के मेल से बने और जिसमें न तो संस्कृत की और न फ़ारसी या अरबी की ही भरमार हो।”
हिंदी: राज भाषा बनने की पृष्ठभूमि
महात्मा गांधी ने राष्ट्र-भाषा को राजनीतिक सवाल बनाने से पहले सामाजिक सवाल बनाया और तमिलनाडु जैसे सुदूर दक्षिण प्रदेशों में हिंदी शिक्षण-प्रशिक्षण का काम शुरू करवाया। पंडित नेहरू भी हिंदुस्तानी के पक्षधर थे। संविधान सभा में बहस शुरू होने से पहले तक हिंदी समर्थक राजनीतिज्ञ भी ‘हिंदुस्तानी’ के ही पक्ष में थे।
आगे चलकर भाषा की सहिष्णुता सांप्रदायिकता की आग में झुलसने लगी। सांप्रदायिक कट्टरता ने भाषा को भी अपने प्रभाव में ले लिया। संविधान सभा में जिस विषय पर सबसे अधिक विवाद और कटुतापूर्ण बहस हुई, वह राज भाषा का विषय था। दक्षिण भारतीय या अहिंदी भाषी प्रांतों ने हिंदी का विरोध नहीं किया, लेकिन जिस तरह से हिंदी समर्थकों ने कठोर रुख अपनाया और जिस तरह की बातें कहीं, उससे अहिंदीभाषी लोगों में यह भय बैठ गया कि शायद यहां हिंदी को अपनाने की नहीं, बल्कि प्रांतीय भाषाओं को समाप्त करने की बात की जा रही है। आखिर में हिंदी ‘राज भाषा’ और देवनागरी को लिपि के रूप में स्वीकार कर लिया गया, लेकिन वह सौहार्दपूर्ण निर्णय नहीं कहा जा सकता है। 14 सितंबर 1949 को हिंदी को राज भाषा के रूप में संविधान में शामिल किया गया। इसीलिए हर वर्ष 14 सितंबर को ‘हिंदी दिवस’ मनाया जाता है।
भारत में सवा सौ सालों से यह बहस चल रही है कि ‘हिंदी’ भारत की राष्ट्रीय भाषा होनी चाहिए। भारत में राष्ट्र भाषा के निर्धारण का विषय आसान नहीं रहा है। महात्मा गांधी ने 20 अक्टूबर 1917 को गुजरात एजुकेशनल कांफ्रेंस, भरूच में अपने भाषण में तर्क दिया कि मातृ भाषा में शिक्षा प्राप्त करने से घर के लोगों से, स्थानीय समाज से गहरा संबंध स्थापित होता है। उन्होंने कहा कि अपनी भाषा में ही श्रेष्ठ साहित्य रचा जा सकता है और उसी भाषा में न्यायाधीश को बेहतर तरीके से अपने पक्ष से अवगत कराया जा सकता है।
महात्मा गांधी ने राष्ट्र-भाषा के पांच लक्षण गिनाये थे:
-वह भाषा सरकारी नौकरियों के लिए आसान होनी चाहिए।
-उस भाषा से भारत का आपसी धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक कामकाज सशक्त होना चाहिए।
-उस भाषा को भारत के ज्यादातर लोग बोलते हों।
-वह भाषा राष्ट्र के लिए आसान होनी चाहिए।
-उस भाषा का विचार करते समय क्षणिक या अस्थायी स्थिति पर जोर न दिया जाए।
गांधी मानते थे कि अंग्रेजी में इनमें से एक भी लक्षण नहीं है जबकि हिंदी भाषा में ये सारे लक्षण मौजूद हैं। गांधी ने कहा, “आखिर हिंदी भाषा कौन सी है? मैं हिंदी उसे कहता हूं, जिसे उत्तर में हिंदू और मुसलमान बोलते हैं और देवनागरी या फ़ारसी लिपि में लिखते हैं। ऐसी दलील दी जाती है कि हिंदी और उर्दू दो अलग भाषाएं हैं। यह दलील सही नहीं है। उत्तर भारत में मुसलमान और हिंदू एक ही भाषा बोलते हैं। भेद पढ़े-लिखे लोगों ने कर डाला है। इसका अर्थ यह है कि हिंदू शिक्षित वर्ग ने हिंदी को केवल संस्कृतमय बना दिया है। इस कारण कितने ही मुसलमान उसे समझ नहीं सकते। लखनऊ के मुसलमान भाइयों ने उस उर्दू में फ़ारसी भर दी और उसे हिंदुओं के समझने के अयोग्य बना दिया। ये दोनों केवल पंडिताऊ भाषाएं हैं और उनका जनसाधारण में कोई स्थान प्राप्त नहीं है।”
राष्ट्र भाषा की जरूरत
गांधी ने 1918 में दक्षिण हिंदी प्रचार सभा की स्थापना की। वर्ष 1920 में उन्होंने मद्रास प्रेसिडेंसी के लोगों से राष्ट्र की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए यह आह्वान किया कि सभी लोग हिंदी सीखें। महात्मा गांधी भारतीय राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोने के लिए ‘भाषा’ को एक बेहद महत्वपूर्ण तत्व मानते थे और यही कारण रहा कि जब 1920 के दशक में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जनांदोलन के तरीके से काम करने लगी, तब उसने ‘लोगों की भाषा’ को ही संवाद का माध्यम बनाया। समस्या तब उत्पन्न हुई जब ‘हिंदी से जुड़ी कट्टरता’ बढ़ने लगी। मध्य और उत्तर भारत में हिंदी की राजनीति होने लगी और यह आग्रह किया जाने लगा कि ‘संस्कृतनिष्ठ हिंदी’ को ही राष्ट्र-भाषा के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए और उस हिंदी को स्थान नहीं दिया जाना चाहिए, जो आम लोग बोलते हैं।
हिंदुस्तानी पर जोर
हिंदुस्तानी (हिंदी और उर्दू से मिलकर बनी भाषा) को लोगों से संवाद की भाषा के रूप में स्वीकार करने का एक बड़ा कारण यह भी था कि इससे हिंदुओं और मुसलमानों के बीच बढ़ती सांप्रदायिकता को कम किया जा सकता था। इसमें संस्कृत और फ़ारसी को भी स्थान मिल जाता है। परंतु संस्कृतनिष्ठ हिंदी और फारसीनिष्ठ उर्दू के कट्टर अनुयाई यह मानने के लिए तैयार नहीं थे।
भारतीय संविधान के जानकार इतिहासकार ग्रेनविल आस्टिन ने लिखा है, “जुलाई 1947 की संविधान सभा की बहसों में यह बात बहुत जोर से उठाई जाने लगी कि प्रांतीय विधायिकाओं में हिंदुस्तानी की जगह ‘हिंदी’ को वैकल्पिक भाषा बनाया जाए। फिर कहा गया कि प्रांतीय विधायिकाओं में अंग्रेजी का प्रयोग प्रतिबंधित किया जाए। वहां केवल प्रांतीय भाषा या हिंदी का ही प्रयोग हो। कुल मिलाकर यह प्रयास था कि ‘हिंदी’ को ही राष्ट्र-भाषा के रूप में स्थापित कराया जाए। नई राजनीतिक परिस्थितियों में कांग्रेस के कई सदस्य भी हिंदुस्तानी के स्थान पर हिंदी की ही मांग करने लगे थे। खुलकर यह मांग की जाने लगी कि संघ की भाषा भी ‘हिंदी’ ही होना चाहिए। देश के विभाजन की काली छाया का सबसे बड़ा प्रभाव यह पड़ा कि भारत में जो लोग हिंदुस्तानी को राष्ट्र-भाषा का बेहतर विकल्प मानते थे, वे भी अब हिंदी के पक्षधर हो गए।”
पुरुषोत्तम दास टंडन ने सात अगस्त 1949 को यह तक कह दिया कि जो लोग हिंदी को राष्ट्रीय भाषा और नागरी को एकमात्र लिपि घोषित करने का विरोध कर रहे हैं, वे अभी भी राष्ट्र विरोधी तुष्टिकरण की नीति पर चल रहे हैं और साम्प्रदायिक भावनाओं को शह देने का काम कर रहे हैं (ग्रेनविल आस्टिन)।
भाषा और राष्ट्र का विकास
संस्कृतनिष्ठ हिंदी के पैरोकार दक्षिण भारतीय लोगों से यह सपाट अपील कर रहे थे कि हिंदी के कई शब्द संस्कृत से ही आते हैं और दक्षिण भारत की भाषाओं का मूल भी संस्कृत ही है, इसलिए उन्हें हिंदी सीखने में कोई कठिनाई नहीं होगी; परन्तु हिंदी सीखना बहुत आसान कार्य नहीं हो सकता था। इस विषय भ्रम को दूर करने के लिए नजीरुद्दीन अहमद ने कहा कि प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य होना चाहिए और जब हम यह देखें की प्रत्येक राज्य में कम से कम 60 प्रतिशत लोग अपनी भाषा में साक्षर हैं और जबकि प्रांत भी भाषा के आधार पर विभाजित कर दिए गए हैं, तब एक आयोग होना चाहिए, सार्वजनिक बहस होनी चाहिए। तभी जनता के लिए राष्ट्र-भाषा को चुनना और स्वीकार करना सरल होगा।
भाषा पर हुई संविधान सभा की बहस बताती है कि हमारे राष्ट्र निर्माता एक ऐसा भारत बनाना चाहते थे जो आधुनिक तो हो लेकिन साथ ही अपनी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और संस्कृति से भी जुड़ा रहे। जिस प्रकार भारत की प्राचीन संस्कृति में असमानता, शोषण और संकीर्णता जैसी कई कमियां थीं उसी तरह नएपन को बिना सोचे समझे अपनाने में भी कुछ मुश्किलें थीं। यही वजह है कि संविधान निर्माताओं ने भाषा के मुद्दे पर भी बिना हड़बड़ी दिखाए एक लंबी बहस के बाद राज भाषा का चुनाव किया। सभी को संतुष्ट कर पाना तो वास्तव में कभी संभव नहीं होता लेकिन उन्होंने हिंदी को सर्वाधिक मान्य पाते हुए राज भाषा का दर्जा दिया।