संसद के खिलाफ सत्ता
सतना जिले के दो गांवों के आदिवासियों ने कानून के मुताबिक 2008 में वन अधिकार समिति के पास अपने दावा फ़ार्म/आवेदन जमा कर दिए थे। लेकिन 13 वर्ष गुजर जाने के बाद आज तक उनके दावों का निराकरण नहीं हुआ। कमलेश मवासी और लल्लू मवासी सरकार के साथ पट्टे के लिए लगातार लम्बी लड़ाई लड़ रहे हैं परन्तु व्यवस्था में उनके हकों के बावजूद सुनवाई नहीं हो रही।
संविधान संवाद टीम
‘जीवन में संविधान’ पुस्तक से:
सतना जिले के दो गांवों के आदिवासियों ने कानून के मुताबिक 2008 में वन अधिकार समिति के पास अपने दावा फ़ार्म/आवेदन जमा कर दिए थे। लेकिन 13 वर्ष गुजर जाने के बाद आज तक उनके दावों का निराकरण नहीं हुआ। कमलेश मवासी और लल्लू मवासी सरकार के साथ पट्टे के लिए लगातार लम्बी लड़ाई लड़ रहे हैं परन्तु व्यवस्था में उनके हकों के बावजूद सुनवाई नहीं हो रही।
“औपनिवेशिक काल के दौरान और स्वतंत्र भारत में राज्य वनों (जो सरकार के नियंत्रण में रहता है) को समेकित करते समय वनों में निवास करने वाले आदिवासियों और अन्य परम्परागत वन निवासियों को उनकी पैतृक भूमि पर वन अधिकार और उनके निवास को पर्याप्त मान्यता नहीं दी गई थी। इसके परिणामस्वरूप इन समुदायों (वन क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों) के साथ ‘ऐतिहासिक अन्याय’ हुआ है, जो वन-पारिस्थितिकी व्यवस्था को बचाने और बनाए रखने के लिए अभिन्न अंग हैं। इन्हें राज्य के विकास के कारण अपने घरों को छोड़ने के लिए मजबूर किया गया। वनों पर अधिकार इसलिए भी जरूरी माना गया क्योंकि इससे ही उनकी जीविका और खाद्य सुरक्षा भी जुड़ी हुई है।”
ये शब्द किसी राष्ट्रद्रोही संस्थान या देशद्रोही व्यक्ति के नहीं हैं। ये वर्ष 2006 में संसद द्वारा पारित कानून – अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन-निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम के शुरुआती शब्द हैं, जो कानून की पृष्ठभूमि को परिभाषित करने के लिए लिखे गए थे। हमारी सरकार ने यह माना था कि राज्य ने जंगल पर अपना नियंत्रण तो बढ़ाया, लेकिन आदिवासियों के जंगल से रिश्तों को समझा नहीं और न ही इसके लिए माकूल व्यवस्था बनाई। अपना दायरा बढ़ाते हुए, सरकार आदिवासियों को जंगल का अतिक्रमणकारी घोषित करती चली गई। इससे समाज का बहुत बड़ा हिस्सा लगातार विस्थापित और बेदखल किया जाता रहा। स्वतंत्र भारत के लिए बने संविधान ने हर व्यक्ति के लिए सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक न्याय का वादा किया और साथ ही यह भी कहा कि वह आदिवासियों की पहचान और परंपरागत व्यवस्था को पूरी तरह से स्वीकार करेगा, उनका सम्मान करेगा। इसके लिए पांचवीं अनुसूची को संविधान में शामिल भी किया गया; लेकिन राज्य ने समाज पर अपना विस्तार बढ़ाने की जद्दोजहद में आदिवासियों और वन निवासियों की अस्मिता के साथ न्याय नहीं किया।
15 अगस्त 2021, यानी वन अधिकार कानून लागू होने के 15 वर्ष बाद भी सतना के मझगवां विकासखंड के पंचायत के पड़ो नामक गांव में 14 आदिवासी परिवार 28 एकड़ वन भूमि पर और सिंहपुर पंचायत के किरहाई पोखरी गांव के 7 परिवार 20 एकड़ वन भूमि पर हक रखते हुए 13 दिसंबर 2005 (वन अधिकार कानून कहता है कि जो आदिवासी इस तारीख से पहले से वन भूमि पर खेती कर रहे हैं, उन्हें 10 एकड़ तक जमीन का अधिकार पत्र दिया जाएगा) से भी कई साल पहले से खेती कर रहे हैं। लेकिन पड़ो और किरहाई पोखरी गांव के आदिवासियों के साथ क्या हुआ?
पड़ो के रहने वाले कमलेश मवासी कहते हैं कि हम सभी परिवार वन विभाग के कंपार्टमेंट नंबर 56 में 28 एकड़ भूमि पर तीन पीढ़ियों से खेती करते आ रहे थे। इस जमीन पर हमारे दादा-बाबा ने महुआ, आम आदि के 70 पेड़ लगाए थे। ये आज भी फल दे रहे हैं।
इसी प्रकार किरहाई पोखरी के लल्लू मवासी कहते हैं कि हमारा दावा केवल जमीन तक ही नहीं है। इसी जंगल में हमारी डीहें और पूजा के स्थान हैं। हमारे दावा करने के बाद भी वन विभाग ने हमारे खड़ी फसलें नष्ट की हैं।
इन दोनों गांवों के 21 परिवार भारतीय संसद द्वारा बनाए गए अधिनियम के तहत अपना हक पाने और उससे भी अधिक ‘ऐतिहासिक अन्याय’ से मुक्ति पाने के लिए बार-बार सरकार के सामने आवेदन दे चुके हैं, डिजिटल मंचों से शिकायत कर चुके हैं, लेकिन इनकी सुनवाई नहीं हुई।
यह अनुभव बताता है कि जिस मुल्क के संविधान की उद्देशिका यह कहती है कि यह एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न देश है, यानी जहां सरकार को कोई भी शक्ति इसके नागरिकों से मिलती है, वहीं यही सरकार नागरिकों के साथ भरपूर अन्याय करती है। संविधान हर व्यक्ति को सामाजिक, आर्थिक और न्याय उपलब्ध कराने की भावना व्यक्त करता है, किन्तु पड़ो और किरहाई पोखरी के आदिवासियों को उनकी पहचान और व्यवस्था से सम्मान भी हासिल नहीं हो रहा है।
संविधान कहता है कि आदिवासियों की परम्परागत व्यवस्था, रीति-रिवाजों और उनकी आस्थाओं के निर्वाह के लिए सरकार व्यवस्थाएं करेगी; इसके लिए ही वन अधिकार कानून बनाया गया है। लेकिन व्यवस्था का मूल चरित्र ‘न्याय’ की अवधारणा को अब तक आत्मसात कर नहीं पाया है। ऐसा लगता है कि देश का भूगोल तो आजाद हो गया, लेकिन व्यवस्थाएं और सरकारें उपनिवेशवादी चरित्र से मुक्त नहीं हो पाईं। उन्हें यह भी याद नहीं कि यह देश एक संविधान पर संचालित होता है।
संविधान की उपेक्षा जारी है। इन गांवों में अब वन विभाग पौधरोपण करने की तैयारी कर रहा है। यानी एक बार फिर मध्यप्रदेश के सतना जिले के इन गांवों में आदिवासियों के न्याय और गरिमा के साथ जीवन जीने के अधिकार का हनन होना है।
आदिवासी समुदायों के अधिकारों की इस उपेक्षा का कारण क्या है? अन्य मतदाताओं की तरह वे भी वोट देते हैं। फिर उनकी यूं अनदेखी क्यों की जाती है? क्या उनके सांगठनिक एकजुटता प्रदर्शित करने से हालात बदलेंगे? क्या सर्वोच्च न्यायालय को इस अवस्था का संज्ञान नहीं लेना चाहिए?