संविधान सभा ने एक माह तक की लीग की प्रतीक्षा
सन 1946 के आखिरी दिनों में जब देश का विभाजन रोकने की तमाम कोशिशों के बावजूद मुस्लिम लीग की जिद के कारण यह लगभग तय हो गया था कि देश का बंटवारा होगा। तब भी मुस्लिम लीग द्वारा संविधान सभा में शामिल होने से स्पष्ट इनकार के बाद भी सभा ने एक माह तक उसकी प्रतीक्षा की थी। यह समावेशी राजनीति और संयम का अभूतपूर्व उदाहरण है।
सचिन कुमार जैन
संविधान शोधार्थी एवं अशोका फेलोशिप प्राप्त सामाजिक कार्यकर्ता। ‘संविधान की विकास गाथा’, ‘संविधान और हम’ सहित 65 से अधिक पुस्तक-पुस्तिकाओं का लेखन।
सन 1946 में इस बात का हर संभव प्रयास किया जा रहा था कि भारत का विभाजन न हो। यह एक स्थापित तथ्य है कि मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग धर्म के आधार पर एक अलग देश ‘पाकिस्तान’, बनवाना चाहती थी। वह दौर अत्यंत संवेदनशील था। एक तरफ भावनाओं का सैलाब था तो दूसरी तरफ देश की आज़ादी को संभालने की जिम्मेदारी लेने का भी वही समय था।
उस वक्त का तकाजा था कि सभी लोग, समाज, सम्प्रदाय और राजनैतिक दल अपने-अपने निजी सत्ता स्वार्थों और हितों को त्याग दें; लेकिन ऐसा नहीं हुआ। कम से कम सम्प्रदाय के आधार पर विभाजन से तो यही स्पष्ट होता है। यही वजह है कि आज़ादी मिलने के सात दशक बाद भी गली-नुक्कड़ पर खड़े लोग अक्सर यही निर्णय सुनाते सुनाई पड़ते हैं कि महात्मा गांधी ने, कांग्रेस ने, जवाहर लाल नेहरु ने भारत का विभाजन करवाया। इस दौरान एक उल्लेखनीय घटना घटी जिसका कहीं कोई जिक्र नहीं किया जाता है। वह यह कि अखिल भारतीय मुस्लिम लीग द्वारा संविधान सभा में शामिल नहीं होने की घोषणा कर दिए जाने के बाद भी भारत की संविधान सभा ने पूरे एक महीने तक अपनी कार्यवाही को रोके रखा। यह मज़बूत राजनीतिक संयम का उदाहरण है।
दरअसल, मोहम्मद अली जिन्ना ने 21 नवम्बर 1946 को ही यह स्पष्ट कर दिया था कि मुस्लिम लीग संविधान सभा में उपस्थित नहीं होगी। लेकिन कोशिशें जारी थीं। 13 दिसंबर 1946 को पंडित जवाहर लाल नेहरु ने भारतीय स्वतंत्रता का घोषणा पत्र और संविधान का लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव संविधान सभा में प्रस्तुत करते हुए कहा कि “हमको अफ़सोस है कि इस सभा में कई सदस्य इस वक्त शरीक नहीं हैं। इससे हमारी एक मायने में जिम्मेदारी बढ़ जाती है। हमें ख्याल करना पड़ता है कि हम कोई ऐसी बात न करें, जो औरों को तकलीफ पहुंचाए, या जो बिलकुल उसूलों के खिलाफ हो। हम उम्मीद करते हैं कि जो लोग शरीक नहीं है, वे जल्द शरीक हो जायेंगे और वे भी इस आईन (संविधान) को बनाने में पूरा हिस्सा लेंगे, क्योंकि आखिर यह आईन उतनी ही दूर तक जा सकता है, जितनी ताकत उसके पीछे हो।”
जब नेहरु के इस प्रस्ताव पर चर्चा हुई तो बम्बई से संविधान सभा के सदस्य एम.आर. जयकर ने सभा की कार्यवाही को स्थगित करने का प्रस्ताव प्रस्तुत किया ताकि मुस्लिम लीग और रियासतों के आने का इंतज़ार किया जाए। उनका प्रस्ताव था कि –
“यह सभा अपना दृढ और गंभीर निश्चय घोषित करती है कि भारत के भावी शासन के लिए जो विधान यह बनाएगी, वह एक स्वतंत्र, गणतांत्रिक सत्ता-संपन्न राज्य का संविधान होगा। परंतु ऐसा विधान बनाने में मुस्लिम लीग और देसी रियासतों का सहयोग पाने और इस तरह अपने निश्चय को और उग्र बनाने के उद्देश्य से सभा इस प्रश्न पर और विचार आगे के लिए स्थगित रखती है, ताकि उपरोक्त दोनों संगठनों के प्रतिनिधि, यदि चाहें, इस सभा की कार्यवाही में हिस्सा ले सकें।”
श्री जयकर ने कहा कि “कई प्रसिद्ध और स्नेही मित्रों ने मुझे समझाया कि मुझे यह संशोधन पेश नहीं करना चाहिए, इससे सभा में फूट पड़ जायेगी। किसी ने कहा कि मैं मुस्लिम लीग को संतुष्ट करने के लिए ऐसा कर रहा हूं। पर जब आप मेरा वक्तव्य सुनेंगे तो आशा है कि आप इससे सहमत होंगे कि यह संशोधन फूट पैदा करने की गरज से पेश नहीं किया गया है।” उन्होंने कैबिनेट मिशन योजना और संविधान सभा के कार्यक्रम की प्रक्रिया का उल्लेख करते हुए कहा कि “कई अनुच्छेदों के मुताबिक़ अल्पसंख्यकों के, प्रांतों के विविध समूहों (अ, ब और स समूहों) के प्रतिनिधियों की मौजूदगी इस सभा की वैधानिकता के लिए जरूरी है। योजना के मुताबिक़ मूलभूत अधिकारों की परामर्श समिति में भी प्रतिनिधित्व होना चाहिए। यदि यहां संविधान निर्माण में मुस्लिम सम्प्रदाय जैसा सम्प्रदाय शामिल नहीं होता है, तो उसका परिणाम क्या होगा? सर स्टेफर्ड क्रिप्स ने इसकी व्याख्या “देश के अनिच्छुक भाग” कह कर की थी। इन शब्दों का मतलब है, भारत के उस भाग से जहां मुसलमान बाहुल्य है। यदि मुस्लिम सम्प्रदाय की अनुपस्थिति में आप संविधान बनायेंगे तो वह हिन्दुस्तान के उन भागों पर, जहां के लोग उसे मंज़ूर नहीं करते है, जबरदस्ती नहीं लागू किया जाएगा। स्थिति यह है कि यदि वे आपकी कार्यवाही में न शामिल होना ही पसंद करें, तो आपके प्रयास को वे व्यर्थ जरूर कर सकते हैं। यह भी हो सकता है कि अगर मुस्लिम लीग संविधान बनाने में शामिल नहीं होती है, तो देसी रियासतें भी शामिल न हों। तब भाग ब और स के लिए अलग संविधान सभा बिठानी होगी, जैसा जिन्ना चाहते हैं।” श्री जयकार ने इस विषय पर ब्रिटेन के हाउस ऑफ कामंस में चल रही चर्चाओं का भी जिक्र किया। आखिर में उन्होंने कहा कि “कम से कम 20 जनवरी (1947) यानी आज से करीब चार हफ़्तों तक आप कोई अहम काम करने नहीं जा रहे हैं। कम से कम तब तक के लिए तो मुस्लिम लीग के लिए आपको रास्ता साफ़ रख देना चाहिए कि वे आकर हमारी कार्यवाही में हिस्सा लें।”
श्रीकृष्ण सिन्हा ने इस प्रस्ताव पर कहा कि “श्री जयकर ने हमें निराश करने वाली कोई बात नहीं की है। वस्तुतः उन्होंने यह राय दी है कि यदि हमारे लीगी मित्र कुछ समय तक न आयें, तो फिर हमें अपने काम में अग्रसर हो जाना चाहिए।”
एफ.आर. एंथनी ने कहा कि संशोधन का आशय यह है कि “हम एक ऐसी घोषणा, चाहे वह कितनी भी न्याय संगत क्यों न हो, न करें, जिससे हम पर यह अभियोग, चाहे वह बिलकुल बेबुनियाद ही क्यों न हो, लगाया जा सके कि हमनें तफसीली बातों को पहले से ही तय कर दिया, जिन पर इस सभा में पूरी तरह से वाद-विवाद होना चाहिए था और सभी लोगों का मत लिया जाना चाहिए था।”
17 दिसंबर 1946 को डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने एम.आर. जयकर के प्रस्ताव का कटु विरोध करते हुए कहा कि “जैसा डॉ. जयकर कह रहे हैं, उस हिसाब से तो विधान परिषद को आहूत ही नहीं किया जाना चाहिए था। डॉ. जयकर को भी सभा में नहीं आना था और गवर्नर जनरल को सूचित करना था कि मुझे खेद है कि आपका आमंत्रण स्वीकार नहीं कर सकता। मैं यह महसूस करता हूं कि संविधान सभा को बुलाकर आप भूल कर रहे हैं क्योंकि मुस्लिम लीग और देसी रियासतें उसमें नहीं शामिल हो रही हैं।”
इसी दिन डॉ. भीम राव अम्बेडकर ने श्री जयकर के प्रस्ताव का समर्थन करते हुए कहा – “हम सभी यह समझें कि यह कानूनी प्रश्न नहीं है। हम सही हैं या गलत, जो रास्ता हम ग्रहण कर रहे हैं वह हमारे कानूनी अधिकारों से संगत है या नहीं, वह 16 मई या 6 दिसंबर के वक्तव्य के अनुकूल है या नहीं, इन सब बातों को छोड़ दीजिये। हमारी समस्या इतनी गहन है कि कानूनी अधिकारों से उसका संधान न होगा। हमें कानूनी ख्याल छोड़ कर कुछ ऐसा प्रयत्न करना चाहिए, जिससे वे लोग, जो शामिल नहीं है, संविधान सभा में वे शामिल हो जाएं। हम उनका यहां आना संभव बनाएं, यही मेरी प्रार्थना है। यह मेरी गंभीर चेतावनी है और इसकी उपेक्षा करना खतरनाक होगा। अगर किसी के दिमाग में यह ख्याल हो कि बल प्रयोग द्वारा, युद्ध द्वारा, क्योंकि बल-प्रयोग ही युद्ध है, हिन्दू-मुस्लिम समस्या का समाधान किया जाये ताकि मुसलामानों को दबाकर उनसे यह संविधान मनवा लिया जाए, जो उनकी रजामंदी से नहीं बना है, तो इससे देश ऐसी स्थिति में फंस जाएगा कि उसे मुसलमानों को जीतने के लिए सदा लगे रहना पड़ेगा।”
सरदार उज्जवल सिंह ने कहा – ‘‘औरों की तरह मुझे भी मुस्लिम लीग की अनुपस्थिति पर खेद है और मैं भी लीग के सहयोग को कीमती समझता हूं और उसे पाना चाहता हूं, पर वे मित्र अनुपस्थित हैं, इसमें सभा का कोई दोष नहीं है।”
सेठ गोविन्द दास ने 17 दिसंबर 1946 को कहा, ‘‘हम युद्ध नहीं बल्कि शांति चाहते हैं। न तो हम मुसलमानों से लड़ना चाहते हैं, न ही ब्रिटिश गवर्नमेंट से। लेकिन यदि ब्रिटिश हुकूमत मुसलमानों को शिखंडी बनाकर हमसे लड़ाना चाहती है, तो हम भीष्म पितामह की तरह इसलिए शस्त्र नहीं रख देंगे कि हमारे सामने शिखंडी खड़ा किया गया है। हम चाहते हैं कि हमारे मुसलमान भाई आएं और हमारा साथ दें, परंतु हमारे यह सब चाहने पर भी धैर्य रखने पर और शांति चाहने पर भी यदि वे नहीं आना चाहते हैं तो हम इसके लिए काम नहीं रोकेंगे।”
18 दिसंबर 1946 को सभा के आने वाले दिनों के कामकाज की योजना पर हुई चर्चा से पता चलता है कि दिसंबर के आखिरी हफ्ते में कुछ दिन कामों के लिए तय किए जा रहे थे। आर. के. सिधावा भी इस बात के पक्ष में नहीं थे कि मुस्लिम लीग के लिए काम रोका जाए। एन. गोपालस्वामी आयंगर, देवी प्रसाद खेतान डॉ. हरी सिंह गौड़ भी सभा की कार्यवाही को रोकने के पक्ष में नहीं थे। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने 21 दिसंबर 1946 को लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव पर चल रही चर्चा को यह कहकर रोक दिया कि इस विषय पर अभी बहुत सारे सदस्यों को बोलना है। अगर सभी को समय दिया तो सभा के दूसरे जरूरी काम रुक जायेंगे।
संविधान सभा की बैठक 23 दिसंबर 1946 तक चली और फिर इसके बाद का सत्र 20 जनवरी 1947 को आयोजित हुआ। इसका मतलब यह था कि वास्तव में प्रत्यक्ष घोषणा तो नहीं हुई, लेकिन संविधान सभा ने चार हफ्ते के लिए अपनी कार्यवाही रोक दी थी और उम्मीद कर रही थी कि मुस्लिम लीग के प्रतिनिधि संविधान बनाने के काम में जुटेंगे।
22 जनवरी 1947 को पंडित जवाहर लाल नेहरु ने स्वतंत्रता के घोषणा पत्र और लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव पर चली लम्बी चर्चा के बाद अपना वक्तव्य देते हुए कहा, “डॉ. जयकर की तरमीम का बहुत कुछ मतलब मुल्तवी करने का था। मैं उनका मशकूर हूं कि उन्होंने उस तरमीम को वापिस ले लिया है। सभा के हर सदस्य ने पूरी तौर पर इस प्रस्ताव की ताईद की, किसी ने मुखालफ़त नहीं की। इस नियत से यह प्रस्ताव पेश हुआ था और बड़े गौर खोज के बाद अलफ़ाज़ जोड़े गये थे ताकि कोई ऐसी बात पेश न हो, जो ज्यादा बहस तलब हो, बल्कि हमारे करोड़ों आदमियों के दिलों में जो आरजुएं हैं, उनको लफज़ी जामा पहना कर पेश करें। इस पर ख़ास कुछ कहने की क्या जरूरत है, लेकिन आपकी इजाज़त से दो एक बातों की ओर तवज्जो दिलाऊंगा। एक वजह इसको मुल्तवी करने की यह थी कि हम चाहते थे कि हमारे जो भाई यहां नहीं आये हैं, उनको यहां आने का मौका मिले। इसे मुल्तवी करके एक महीने का मौका दिया गया था, लेकिन अफ़सोस कि अब तक उन्होंने आने का फैसला नहीं किया। लेकिन बहरसूरत जैसा कि मैंने शुरू में कहा था – हम इस दरवाज़े को खुला रखेंगे, आखिरी दम तक खुला रखेंगे और उनको और हरेक को, जिनको यहां आने का हक़ है, पूरे तौर पर आने का मौका देंगे, जाहिर है कि दरवाज़ा खुला है, लेकिन हमारा काम रुक नहीं सकता। इसलिए जरूरी हो गया है कि इस प्रस्ताव को पूरी मंजिल तक पहुंचाएं। मुझे उम्मीद है कि अब भी जो साहिबान बाहर हैं, वे आने का फैसला करेंगे। 6 हफ्ते हमने इंतज़ार किया लेकिन दरअसल 6 हफ्ते का सवाल नहीं है, बल्कि इंतज़ार करते-करते उम्रें गुज़र गईं। कब तक हम और इंतज़ार करें? बहुत लोग इंतज़ार करते करते गुज़र भी गये। अक्सर लोगों का भी आखिरी जमाना आ रहा है। इंतज़ार काफी हो चुका, अब ज्यादा इंतज़ार नहीं हो सकता। चुनाचे हमें संविधान सभा के काम को चलाना है, तेजी से चलाना है और जल्द ख़त्म करना है।”