सचिन कुमार जैन

संविधान शोधार्थी एवं अशोका फेलोशिप प्राप्त सामाजिक कार्यकर्ता। ‘संविधान की विकास गाथा’, ‘संविधान और हम’ सहित 65 से अधिक पुस्तक-पुस्तिकाओं का लेखन।

संविधान सभा की पहली बैठक नौ दिसंबर 1946 को हुई थी। राष्ट्रवाद की किसी भी बहस में भारत की आज़ादी का संघर्ष और उससे उत्पन्न संविधान सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण हैं। इन दोनों ही घटनाक्रमों में असंख्य उदाहरण मिलते हैं कि कैसे देशप्रेम की अवधारणा- अहिंसा, प्रेम, विविधता के अंगीकरण, न्याय के स्वभाव और राजनैतिक परिपक्वता के समीकरण से पनपती और विकसित होती है। 

वर्ष 1946 में जब भारत की आज़ादी की लड़ाई अंतिम चरण में थी, तब राष्ट्र और समाज के परस्पर संबंधों को परखने वाली राजनीति का प्रमाण भी रचा जा रहा था। एक तरफ मज़हब के आधार पर राजसत्ता के नियंत्रण की मांग थी, वहीं दूसरी तरफ भारत को अखंड रखने के लिए असंयम और अहंकार से टकराता राजनीतिक चरित्र सादृश्य खड़ा था। कैबिनेट मिशन योजना के मुताबिक़ आखिरकार 14 सदस्यीय अंतरिम सरकार का गठन तो हुआ जिसमें कांग्रेस के 6 और मुस्लिम लीग के 5 प्रतिनिधि शामिल थे, लेकिन इसका संचालन अवरोधों से भरा था। दूसरी तरफ ऑल इंडिया मुस्लिम लीग अंतरिम सरकार में शामिल होते हुए भी संविधान सभा में शामिल नहीं हुई। कांग्रेस ने परिपक्वता का परिचय देते हुए संविधान सभा को मजबूती देने का निश्चय किया। 

संविधान सभा के सदस्य के.एम. मुंशी पहले दिन का चित्रण करते हुए लिखते हैं, ‘‘हर तरफ उत्साह है। यह भारत के लिए एक महान दिन है। भारतीय खुद अपना संविधान रचने वाले हैं, लेकिन हर तरफ दुःख और चिंता भी है।” प्रमाण बताते हैं कि भारत बहुत जिम्मेदारी और संयम के साथ आज़ादी का हर राजनीतिक अनुष्ठान पूरा कर रहा था। देश की गरिमा को स्थापित करने के मानक क्या हो सकते हैं? निश्चित ही इनकी कोई तयशुदा सूची नहीं हो सकती लेकिन संविधान और संविधान सभा इसके कई प्रमाण देते हैं। यह अलग बात है कि इन प्रमाणों का प्रचार नहीं किया गया। 

संसद भवन के पुस्तकालय कक्ष में सभी पूर्व गवर्नर जनरलों के चित्र सजे हुए थे। यह संवेदनशील स्थिति थी क्योंकि संविधान सभा पूर्व क्षत्रपों की निगाहों के नीचे संविधान सभा अपनी भूमिका निभाती। अंतत: सभी चित्र उतारे गये और उन्हें किसी अनजान मुकाम पर पहुंचा दिया गया। 

तत्कालीन वायसराय लार्ड वावेल चाहते थे कि ब्रिटिश भारत के मुखिया होने के कारण वे स्वयं संविधान सभा के पहले दिन की बैठक के सभापति हों, लेकिन जवाहर लाल नेहरु ने इस बात को नकार दिया। इसी कारण 9 दिसंबर 1946 के दिन लार्ड वावेल ने उस दिन दिल्ली में नहीं रहना तय किया। 

संविधान सभा के पहले दिन सदन ने सबसे वरिष्ठ सदस्य डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा, जो वर्ष 1910 से विधायी व्यवस्थाओं से जुड़े रहे थे और पटना विश्वविद्यालय के कुलपति भी रहे, को अस्थायी सभापति चुना। उन्होंने सभा को सूचित किया कि आज के दिन के लिए अमेरिका और चीन के राजकीय प्रतिनिधियों ने और आस्ट्रेलिया की सरकार ने शुभकामना संदेश भेजे हैं। इन संदेशों के भारतीय संविधान सभा के वैश्विक महत्व का अनुमान लगता है। अमेरिका के सेकेट्री ऑफ स्टेट ने संदेश दिया कि “मानवजाति के स्थायित्व, शांति और सांस्कृतिक समुन्नति के लिए भारत को बहुत कुछ देना है। आपके काम को संसार की स्वतंत्रता प्रेमी जनता गंभीर उत्साह और आशा से देखेगी।’’  

चीन के विशेष मंत्री वांग सहीह चेह ने संदेश भेजा कि “आपकी यह विधान-परिषद सुसंपन्न और प्रजातंत्रीय भारत की ठोस नींव डालने में सफल हो।” आस्ट्रेलिया सरकार का संदेश था कि “आस्ट्रेलिया ने बड़ी दिलचस्पी और हमदर्दी से उस घटनाक्रम को देखा है, जिससे आज भारतीय जनता को विश्व की राष्ट्रसभा में उसका उचित स्थान मिला है।” 

लेकिन यह उल्लेख करना जरूरी है कि ब्रिटिश संसद और सरकार की तरफ से संविधान सभा को कोई शुभकामना संदेश नहीं भेजा गया। संभवतः इसलिए क्योंकि भारत के राजनीतिक दल ब्रिटिश सरकार की मंशा के अनुरूप और उसके निर्देशों पर काम नहीं कर रहे थे। 

दरअसल पहले दिन ही भारतीय संविधान के मूल्य, राजनीतिक पक्षधरता और संवेदनशीलता को स्थापित किया जा रहा था।

संविधान सभा में डॉ. सिन्हा ने अमेरिकी न्यायविद जोसेफ स्टोरी की पुस्तक को उद्धृत किया, “अमेरिका के नवयुवकों को यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि अपने विधान में उन्हें एक ऐसी ऊंची विरासत मिली है, जिसे उनके पूर्वजों ने अथक परिश्रम, कष्ट और बलिदान करके, अपना खून देकर हासिल किया था। अगर ईमानदारी से इसकी रक्षा की जाए और बुद्धिमता से इसे और बेहतर बनाया जाए तो वह इस योग्य है कि उनके भावी वंशजों को जीवन की समस्त कामनाओं – स्वतंत्रता, सम्पन्नता और धर्म का सुखद उपभोग- प्रदान कर सकता है। इस विधान की इमारत को बड़े-बड़े कुशल कारीगरों ने बनाया है; इसकी नींव ठोस है; इस इमारत का हर हिस्सा बड़ा फायदेमंद और खूबसूरत है; इसकी व्यवस्था बुद्धि और तारतम्य से पूर्ण है; इसकी रक्षात्मक व्यवस्था बाहर से अजेय है; यह इस तरह खड़ी की गयी है कि अमर रहे। यह मनुष्यकृति अमरत्व प्राप्ति की अधिकारी हो सकती है। पर अपने रक्षकों की यानी प्रजा की मूर्खता, उपेक्षा और आचारहीनता से यह इमारत क्षणभर में ढहकर खंडहर बन सकती है। मैं चाहूंगा कि आप यह याद रखें कि प्रजातंत्र की स्थापना होती है नागरिकों के बुद्धिबल से, उसकी जनसेवा भावना और उनके गुणों से, और जब ईमानदार बने रहने का साहस रखने के कारण बुद्धिमान और विवेकपरायण पुरुष जनसभाओं से बहिष्कृत कर दिए जाते हैं और सिद्धांतविहीन व्यक्ति जनता को ठगने के लिए उसकी मिथ्या प्रशंसा या खुशामद कर सम्मान प्राप्त करने लगते हैं, तो प्रजातंत्र नष्ट हो जाते हैं।” यही विचार भारतीय संदर्भ पर भी ज्यों का त्यों लागू होता है।

एक तरफ तो सभा के पहले ही दिन अपने स्वागत उद्बोधन में डॉ. सिन्हा ने सदस्यों को स्विट्ज़रलैंड, फ्रांस, कनाडा, अमेरिका, फ्रांस, आस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका, अमेरिका के संविधानों की कमजोरियों और सकारात्मक पक्षों से अवगत करवा दिया। उन्होंने कहा कि देश के लिए विधान बनाने की यह प्रणाली ब्रिटेन की प्रजा को नहीं मालूम थी। वहां संवैधानिक क़ानून नाम की कोई व्यवस्था ही नहीं है। वहां संसद ही सर्वशक्ति संपन्न सभा है। 

दूसरी तरफ उन्होंने भारत के विचार को भी उभारते हुए कहा कि महात्मा गांधी ने वर्ष 1922 में कहा था कि स्वराज्य ब्रिटिश संसद की ओर से उपहार की तरह नहीं होगा। यह तो भारत की समस्त मांगों की स्वीकृति सूचक एक घोषणा होगी, जिसे ब्रिटिश पार्लियामेंट क़ानून पारित कर प्रदान करेगी। परंतु यह घोषणा तो भारतीय जनता की चिर घोषित मांगों की केवल सौजन्यपूर्ण स्वीकृति ही होगी। यह स्वीकृति बतौर संधि या समझौते ही होगी, जिसमें ब्रिटेन एक पक्ष रहेगा। जब यह समझौता होगा तो ब्रिटिश पार्लियामेंट भारतीय प्रजा की इच्छानुसार चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा व्यक्त की हुई भारतीय जनता की मांगों को स्वीकार करेगी। इसके बाद मई 1934 में रांची में स्वराज्य पार्टी के गठन की योजना के साथ प्रस्ताव दिया गया कि यह कांफ्रेंस भारतवर्ष के लिए आत्म निर्णय के अधिकार का दावा करती है और इस सिद्धांत को कार्यान्वित करने का एकमात्र रास्ता यह है कि भारतीय जनता के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व करने वाली एक विधान परिषद बुलाई जाए, जो एक स्वीकृति-योग्य विधान बनाए। फिर दिसंबर 1936 में फैजपुर में हुए कांग्रेस अधिवेशन में घोषणा की गयी कि कांग्रेस भारत में वास्तविक प्रजातंत्रीय राज्य चाहती है, जहां सम्पूर्ण राजनैतिक सत्ता जनता को हस्तांतरित कर दी गयी हो और हुकूमत संपूर्णतः प्रजा के हाथ में हो। ऐसे राज्य का निर्माण तो ऐसी विधान-परिषद् ही कर सकती है, जो देश के लिए विधान बनाने की समस्त सत्ता रखती हो। नवम्बर 1939 में कांग्रेस कार्यसमिति ने प्रस्ताव पारित किया कि भारत की स्वतंत्रता तथा उसकी जनता को विधान-परिषद के द्वारा अपना विधान-निर्माण करने के अधिकार की स्वीकृति परम-आवश्यक है।

संविधान सभा के पहले ही दिन अखंड भारत के सामने खड़ी चुनौतियों की खुली राजनैतिक व्याख्या डॉ. सिन्हा ने की। उन्होंने कहा कि “मार्च 1940 से पहले पाकिस्तान संबंधी प्रस्ताव रखने के बाद संविधान सभा के गठन के प्रति मुस्लिम लीग का विचार बदल गया है। वे दो संविधान सभाएं बनाने की मांग करते हैं – एक पृथक मुस्लिम स्टेट बनाने के लिए और दूसरी शेष भारत के लिए।’’ कांग्रेस और मुस्लिम लीग, दोनों ही प्रमुख राजनीतिक दलों ने संविधान निर्माण के लिए संविधान सभा को स्वीकार किया, लेकिन कांग्रेस समस्त भारत के लिए एक संविधान सभा चाहती थी और मुस्लिम लीग दो राष्ट्रों की मांग के अनुरूप दो संविधान सभाएं।

भारत के लिए संविधान बनाना कितना भावुकतापूर्ण कार्य रहा होगा, किन मनःस्थितियों में सभा के सदस्यों ने अपनी भूमिका निभाई होगी, कैसे अपने राजनैतिक और सामाजिक पक्षधरता के बीच मेल बिठाया होगा, यह सोच पाना भी अकल्पनीय है। महज़ साम्प्रदायिक या हिंसक राजनीतिक प्रभुत्ववादी सोच रखकर वैसा संविधान नहीं बनाया जा सकता है, जैसा कि भारत ने बनाया। वास्तविकता तो यह है कि भारत का संविधान ही भारत की सांस्कृतिक-आध्यात्मिक विरासत को शासन प्रबंधन के आधारभूत मूल्य के रूप में स्थापित करता है। यह समझना बहुत जरूरी है कि भारत जिस राजनीतिक-अध्यात्मिक मुकाम को हासिल करना कहता है, वह संविधान के माध्यम से ही हासिल किया जा सकता है। तानाशाही, बर्बरता, साम्प्रदायिकता और हिंसा के शासन से भारत पतन की तरफ ही आगे बढ़ेगा।  

इस राष्ट्रीय अनुष्ठान के लिए डॉ. सिन्हा ने प्रार्थना की कि परमात्मा आपको अपना मंगलमय आशीर्वाद दे, जिससे आपकी परिषद् की कार्यवाही केवल विवेक, जन-सेवा-भावना और विशुद्ध देशभक्ति से ही परिपूर्ण न हो, बल्कि बुद्धिमत्ता, सहिष्णुता, न्याय और सबसे प्रति सम्मान, सद्भावना से भी ओत-प्रोत हो। आप अपने प्रयत्न से विशाल और उदार दूर-दृष्टि से काम लें। पवित्र ग्रंथ बाइबिल हमें सिखाता है कि “जहां दूर दृष्टि नहीं है, वहां मनुष्य का विनाश है।” ज़रा सोचिए कि ऐसे कौन से कारण हैं, जिनके चलते सभ्यता के इन मूलभूत तत्वों को भी खारिज करने में भारतीय राजनीतिज्ञ पीछे नहीं हट रहे हैं और राष्ट्रवाद की ऐसी परिकल्पना स्थापित कर रहे हैं, जिसके मूल में हिंसा, विद्वेष, अन्याय और दुःख भरा हो। 

जनप्रतिनिधियों के विचारों, नीतियों, हाव-भावों और सिद्धांतों से ही यह तय होता है कि वे किस तरह का राष्ट्र बनाना चाहते हैं। संविधान सभा ऐसा भारत बनाना चाहती थी, जिसमें अहिंसा, विश्व शांति, प्रेम न्याय और जिम्मेदारी का भाव हो। पाकिस्तान के निर्माण की मांग और हिंसक राजनीतिक घटनाओं के बाद भी संविधान सभा ने कभी भी मुस्लिम समाज के प्रति आक्रोश का इज़हार नहीं किया। यह व्यवहार भारतीय संस्कृति की महानता की पहचान है। इसे किसी भी तरह उसकी कमजोरी का परिचायक मानने की भूल नहीं की जानी चाहिए। 

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