सचिन कुमार जैन

संविधान शोधार्थी एवं अशोका फेलोशिप प्राप्त सामाजिक कार्यकर्ता। ‘संविधान की विकास गाथा’, ‘संविधान और हम’ सहित 65 से अधिक पुस्तक-पुस्तिकाओं का लेखन।

आज़ाद भारत के लिए एक “सभ्यता मूलक और लोकतांत्रिक व्यवस्था” की कल्पना करना कितना कठिन रहा होगा, यह डॉ. बी. आर. अम्बेडकर के उस वक्तव्य से स्पष्ट हो जाता है, जो उन्होंने 4 नवंबर  1948 को संविधान सभा में संविधान के प्रारूप पर बहस शुरू करते हुए दिया था। उन्होंने कहा था कि भारतीय भूमि स्वभावतः अप्रजातंत्रात्मक है और भारत में संवैधानिक नैतिकता नहीं है। संवैधानिक नैतिकता पर सभा में कम ही चर्चा हुई थी, लेकिन डॉ. अम्बेडकर इसे ही संविधान का “श्वसन तंत्र” मान रहे थे। आज़ादी के बाद भारत ने संविधान को अपना लिया, लेकिन संविधान की संवाहक ‘संवैधानिक नैतिकता” को कभी नहीं अपनाया। 

संवैधानिक नैतिकता का अर्थ क्या है?

संवैधानिक नैतिकता का मतलब है राजनीतिक दलों, न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका, सामाजिक संगठनों और नागरिकों का संवैधानिक मूल्यों और उस पर निर्मित व्यवस्था में विश्वास होना। जब समाज सजग होगा, तब वह प्रश्न पूछेगा ही और ऐसी स्थिति में स्पष्ट है कि राज्य व्यवस्था और सरकार आलोचना के अधीन खड़ी होगी। सरकार का आलोचना के अधीन होना भी संवैधानिक नैतिकता का सूचक है।  

संवैधानिक नैतिकता का एक सूचक बहुलता और विविधता भी है। इसे हृदय और व्यवहार की गहराइयों से अपनाया जाना लोकतंत्र के वजूद की बुनियादी शर्त है। यदि बहुलता और विविधता के तत्व को समाज अपनाएगा, तो हिंसा का भाव अपने आप निष्क्रीय हो जाएगा। इसीलिए डॉ. अम्बेडकर “बंधुता” के मूल्य को सबसे आधारभूत सामाजिक-राजनैतिक मूल्य मानते रहे। 

संवैधानिक नैतिकता का यह भी एक सूचक है कि कोई भी व्यक्ति अपने आप को पूरे समाज या देश का प्रतिनिधि घोषित नहीं करता है। जब एक व्यक्ति या एक समूह को देश का प्रतिनिधि स्थापित करने की कोशिश हो, तब उस कोशिश और उन समूहों पर गहरी शंका व्यक्त की जानी चाहिए। ऐसा इसलिए क्योंकि एक व्यक्ति को सबके प्रतिनिधि के रूप में स्थापित करके लोकतंत्र के मूल्यों और लोकतांत्रिक व्यवस्था को ख़तम करने की साजिश रची जाती है।  

वास्तव में भारत के लिए एक ऐसा संविधान बनाना बहुत ही दुरूह काम था, क्योंकि भारत एक समान स्वरूप वाला राष्ट्र नहीं था। वास्तव में राजनीतिक-आर्थिक स्वार्थों ने भारत की विविधता को इसकी सबसे बड़ी ताकत बनाने के बजाए, इसकी सबसे बड़ी कमजोरी बना दिया था। वास्तव में भारत के सामने खड़ी हुई चुनौतियां से जूझते हुए डॉ. अम्बेडकर ने जो भूमिका निभाई, सच्चाई तो यह है कि उसी के कारण भारत एक विधान के माध्यम से समग्र राष्ट्र का रूप ले पाने में सक्षम हुआ। हालांकि डॉ. अम्बेडकर को खुद भी यह अहसास था कि भारत की सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था इस संविधान को उसकी मूल भावना के साथ लागू नहीं होने देगी, क्योंकि इस संविधान को लागू करने के लिए देश में छुआछूत, जातिवादी व्यवहार, लैंगिक भेदभाव, आर्थिक असमानता पैदा करने वाली नीतियों को तिलांजलि देने सरीखे कदम उठाये जाने होंगे, जिनके लिए भारत का समाज बहुत तत्पर नहीं रहा। इसके साथ ही सत्ता हासिल करने के लिए लालायित भारत की राजनीति ने भी इन प्रश्नों पर बहुत प्रभावी रुख नहीं अपनाया।

डॉ. अम्बेडकर जानते थे कि अच्छा संविधान बन जाने के बावजूद सत्ता और सरकार पर देश के दो-तीन प्रतिशत लोगों का ही कब्ज़ा रहेगा, इसीलिए उन्होंने ऐसी व्यवस्था बनाने की कोशिश की, जिसमें एक व्यक्ति या एक छोटे समूह की तानाशाही स्थापित न हो पाए।
संविधान का प्रारूप प्रस्तुत करते हुए उन्होंने कहा कि भारत का राष्ट्र प्रमुख राष्ट्रपति होगा, किन्तु वह अकेले कोई भी निर्णय न ले पायेगा। अमेरिका के राष्ट्रपति को शासन के सभी अधिकार प्राप्त हैं। उसके अधीन कई सचिव होते हैं, जो भिन्न-भिन्न विभागों के अधिकारी होते हैं, वे चुने हुए प्रतिनिधि नहीं होते हैं। जबकि स्वतंत्र भारत में राष्ट्रपति राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है, किन्तु राष्ट्र पर शासन नहीं करता है। उसके अधीन विभिन्न विभागों के मंत्री होते हैं, ये मंत्री राज्यसभा या लोकसभा के सदस्य होते हैं। यही मंत्रिमंडल अपनी राय से राष्ट्रपति को अवगत करवाता है। सामान्तः यह राष्ट्रपति की बाध्यता होती है कि वह मंत्रिमंडल की राय को माने। वह उनकी राय के प्रतिकूल कुछ नहीं कर सकता है। अमेरिकी राष्ट्रपति किसी भी सचिव को कभी भी हटा सकता है, किन्तु भारत का राष्ट्रपति किसी मंत्री को तब तक नहीं हटा सकता, जब तक कि मंत्रिमंडल को बहुमत प्राप्त है। 

भारतीय सामाजिक व्यवस्था के चरित्र, स्वरूप और स्वभाव में व्याप्त चुनौतियों और जटिलताओं को समझते हुए ही संविधान में कई प्रक्रियाओं की भी व्याख्या की गयी है, क्योंकि यह माना गया था कि यदि संविधान को सूत्रों में लिखा जाएगा, तो आने वाली सरकारें और प्रभावशाली राजनीतिक दल अपने स्वार्थों के लिए संवैधानिक मूल्यों से समझौता करते जायेंगे। 

डॉ. अम्बेडकर ने संविधान सभा में इसी दिन कहा था कि कार्यपालिका में स्थिरता होना चाहिए और उसे दायित्वपूर्ण होना चाहिए। इसी तर्क के आधार पर संविधान में लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपनाया गया। वे कहते हैं कि भारत जैसे देश में कार्यपालिका वर्ग के दायित्वों की दैनिक छानबीन बहुत आवश्यक है। यह कार्य संसद की प्रक्रियाओं के जरिये किये जाने की व्यवस्था की गई। जहां सवाल-जवाब होते हैं। प्रश्न पूछे जा सकते हैं, अविश्वास प्रस्ताव, स्थगन प्रस्ताव और अभिभाषण पर बहस हो सकती है। यदि हमारी संसद में आज बहस कमज़ोर हो रही है, अधिनायकवादी तरीके से क़ानून बन रहे हैं या संशोधित किये जा रहे हैं, तो इसका मतलब है कि कार्यपालिका बहुमत का अश्लील इस्तेमाल करके संविधान की मूल भावना की उपेक्षा कर रही है। 

डॉ. अम्बेडकर के अपने मसौदे के अनुसार यह (मसौदा) ऐसी राज्य व्यवस्था स्थापित करता है जिसे हम द्विमुखी राज्य व्यवस्था कह सकते हैं। इसमें संघ राज्य (यानी केंद्र सरकार) और प्रादेशिक राज्य (राज्य सरकार) हैं, और इन दोनों को ही प्रभुता प्राप्त है, जिसका प्रयोग वे संविधान के मानकों के मुताबिक़ कर सकते हैं। संघ और राज्य सरकारों के दायित्वों और अधिकारों का निर्धारण बेहद संजीदा सोच विचार के बाद किया गया। डॉ. अम्बेडकर ने इस विषय पर कहा कि जरा कल्पना करें कि हमारे यहां 20 प्रादेशिक राज्य हैं और सभी में विवाह, तलाक, उत्तराधिकार, फौजदारी क़ानून, बैंकिंग और व्यवसाय और न्याय व्यवस्था के 20 अलग अलग क़ानून हैं, तब नागरिकों का क्या होगा? इससे राज्य कमज़ोर होगा। वे एक स्थान से दूसरे स्थान नहीं जा सकते हैं। इस स्थिति को ध्यान में रखकर देश में एक न्याय व्यवस्था, मूलभूत कानूनों और नियमों में एकरूपता और आवश्यक पदों पर नियुक्ति के लिए देश में एक लोक सेवा व्यवस्था का प्रावधान किया गया। इसके दूसरी तरफ शिक्षा, स्वास्थ्य, भूमि क़ानून, रोज़गार नीतियां, कृषि आदि पर राज्य सरकारों को कायदे-क़ानून बनाने का अधिकार दिया गया। 

एक भय उस वक्त व्यक्त किया गया था कि डॉ. अम्बेडकर केंद्र सरकार (संघ व्यवस्था) को बहुत ज्यादा अधिकार संपन्न बना रहे हैं। उस वक्त उनका कहना था कि देश को एक बनाए रखने के लिए शक्तिशाली केंद्र एक आवश्यकता है, शायद वे यह नहीं भांप पाए कि आने वाले सालों में प्रभावशाली राजनीतिक विचारधाराएं भ्रष्ट पूंजी के साथ मिलकर भारत में संघीय लोकतंत्र की अवधारणा को कमज़ोर कर सकती हैं। आप देखेंगे कि आज आर्थिक संसाधनों से लेकर, शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि तक की व्यवस्थाओं पर केंद्र ने अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया है और राज्य सरकारों को अपंग बना दिया है। 

लेकिन यह सच नहीं है कि डॉ. अम्बेडकर लोकतंत्र के संदर्भ में भविष्य की आशंकाओं से वाकिफ नहीं थे। उन्होंने संविधान सभा में ही इतिहासकार जार्ज ग्रोट के संदर्भ से कहा कि किसी भी स्वतंत्र और शांतिपूर्ण सरकार के लिए यह अनिवार्य रूप से आवश्यक है कि वैधानिक नैतिकता का प्रसार न केवल वहां के बहुसंख्यक लोगों में हो, बल्कि देश के सभी नागरिकों में किया जाए क्योंकि कोई भी शक्तिशाली, हठी, अल्पमत वाला वर्ग, चाहे वह स्वयं इतना शक्तिसंपन्न न हो कि शासन की बागडोर अपने हाथ में ले सके, पर स्वतंत्र-शासन का कार्य संचालन दुरूह या कठिन तो बना ही सकता है। 

आखिर वैधानिक नैतिकता का मतलब क्या है? – अपने कानूनों के प्रति ऐसी श्रद्धा, जिसकी आज्ञाओं और व्यवस्थाओं का पालन किया जाए; निश्चित कानूनों और तर्कों के अधीन वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की वृत्ति विकसित हो और शासन प्राधिकारियों की आलोचना की सुविधा हो; किसी भी दल, विचार, संघर्ष या परिस्थिति मरण संवैधानिक मूल्यों और व्यवस्था के प्रति आदर और विश्वास होना। 

आज भी भारत का संविधान प्रासंगिक बना हुआ है क्योंकि संविधान निर्माता ये जानते थे कि भारत में “सामाजिक विधानों” (जिनमें भेदभाव, छुआछूत, असमानता और हिंसा के कई रूप मौजूद हैं) का ज्यादा प्रभाव रहेगा और “संवैधानिक विधानों” की मौजूदगी बहुत कमज़ोर रहेगी क्योंकि समाज आने वाले समय में उन्हीं राजनीतिक दलों को शासन का अधिकार देगा, जो “सामाजिक विधानों” को बनाए रखने के लिए शासन करने के लिए तैयार रहेंगे। हुआ भी यही, जाति, आर्थिक भेद, हिंसा और पूंजी की लूट भारतीय राजनीति के केंद्र में स्थापित होते रहे। इसी आशंका को भांपते हुए संविधान में कई छोटी-छोटी बातों का उल्लेख किया गया ताकि आने वाली सरकारें संविधान को पूरी तरह से ख़तम न कर दें। इसी कारण से भारत का संविधान विश्व का सबसे बड़ा लिखित संविधान बन गया।  

डॉ. अम्बेडकर ने कहा था कि “संविधान को लागू करने के लिए वैधानिक नैतिकता बुनियादी जरूरत है। क्या हम वैधानिक नैतिकता का प्रसार संभव मानते हैं? वैधानिक नैतिकता की भावना स्वाभाविक, प्रकृति जन्य नहीं होती है। इसे तो अभ्यास द्वारा अपनाना होगा। हमें यह जानना चाहिए कि हमारे देशवासियों को अभी भी इसे सीखना है। भारतीय भूमि स्वभावतः ही अप्रजातान्त्रत्मक है और यहां प्रजातंत्र केवल एक ऊपरी आवरण है। ऐसे में शासन के नियमों के निर्धारण का काम विधान मंडल पर न छोड़ना की बेहतर है।”

डॉ. अम्बेडकर मानते थे कि “प्रजातंत्रात्मक संविधान को शक्तिपूर्ण तरीके से चलाने के लिए “नैतिकता” का प्रसार आवश्यक है, किन्तु इससे जुड़ी हुई दो बातें दुर्भाग्य से लोग नहीं जानते हैं – एक : शासन के तरीके (सरकार किसके हितों को प्रधानता देगी, नागरिकों की मूल जरूरतों को कल्याणकारी नज़रिये से देखेगी या नहीं, क़ानून का उपयोग जनहित के लिए करेगी या अहित के लिए, साम्प्रदायिक व्यवहार करेगी, पूंजी के एकाधिकार को संरक्षण देगी या नहीं आदि) का संविधान की व्यवस्था से गहरा संबंध है। इसका मतलब यह है कि सरकार किस मंशा से संविधान का पालन करेगी, यह महत्वपूर्ण हैं। दो : संविधान के स्वरूप को बदले बिना ही, केवल शासन प्रणाली में परिवर्तन करके संविधान को पूर्णतः उलट देना और शासन को संविधान की भावना के अनुरूप या प्रतिकूल बना देना बिलकुल संभव है। इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि जहां पर “वैधानिक नैतिकता” का प्रसार है, वहीँ हम शासन के विस्तार (शासन के तरीकों की छोटी से छोटी बातें) की बातों को विधान में न रखकर विधान मंडल (संसद) पर छोड़ सकते हैं। 

भारत साम्प्रदायिक, जातिवादी और उपनिवेशवादी जंजीरों के बीच छटपटा रहा, उसे एक बेहतर जीवन देने के लिए “संवैधानिक नैतिकता” का विकास करने की जरूरत है। समस्या यह है कि हमने संविधान को तो लागू कर दिया किन्तु नागरिकों का संविधान संस्कार नहीं किया, संविधान वाहिनी नहीं बनाई, शिक्षण संस्थाएं खड़ी कर दें, किन्तु नागरिक शालाएं नहीं चलाईं। इसी उपेक्षा का परिणाम है आज का संविधान विमुख भारत!

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