संवैधानिक मूल्य की अवहेलना है मीडिया ट्रायल
आजादी के बाद देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मुख्य झंडाबरदार मीडिया का स्वरूप जितना बहुआयामी होता गया है, उसी अनुपात में उसने न्यायिक सत्ता भी परोक्ष रूप से अपने हाथ में लेना शुरू कर दिया है। न्याय के लिए आवश्यक सत्यान्वेषण और जरूरी तथ्यों को उजागर करने की जगह मीडिया की भूमिका न्यायिक दोषसिद्धि के पहले ही आरोपी को दोषी सिद्ध करने के टूल की होती जा रही है। यह अपने आप में एक खतरनाक ट्रेंड है।
अजय बोकिल
लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं संविधान संवाद फेलो हैं।
यह विडंबना ही है कि आजादी के बाद देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मुख्य झंडाबरदार मीडिया का स्वरूप जितना बहुआयामी होता गया है, उसी अनुपात में उसने न्यायिक सत्ता भी परोक्ष रूप से अपने हाथ में लेना शुरू कर दिया है। न्याय के लिए आवश्यक सत्यान्वेषण और जरूरी तथ्यों को उजागर करने की जगह मीडिया की भूमिका न्यायिक दोषसिद्धि के पहले ही आरोपी को दोषी सिद्ध करने के टूल की होती जा रही है। यह अपने आप में खतरनाक ट्रेंड है और संविधान की नैसर्गिक न्याय, व्यक्ति की गरिमा और समानता के मूल्यों के भी खिलाफ है। मीडिया की इन नकली अदालतों के खिलाफ आवाजें भी उठती रही हैं, लेकिन व्यावसायिक दबावों और टीआरपी की अंधी दौड़ में मीडिया और खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया विरोधी आवाजों को पूरी तरह अनदेखा करते हुए अलोकतांत्रिक और गैर जिम्मेदार ढंग से व्यवहार करने में कोई संकोच नही कर रहा है।
संवैधानिक मूल्यों की अवहेलना
हमारे देश के संविधान निर्माताओं ने नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ- साथ व्यक्ति को विचार, सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक सद्भाव और गरिमा के साथ जीवन जीने की भी गारंटी दी है। लेकिन मीडिया का एक वर्ग अपने ‘ट्रायल’ के जरिए इस बुनियादी मूल्यों की ही अवहेलना करने में लगा है। सत्ताएं इस पर प्रभावी अंकुश लगाने के प्रति उदासीन दिखती हैं। जबकि देश की सर्वोच्च अदालत ने भी ‘मीडिया ट्रायल’ पर गहरी नाराजी जताते हुए कहा था कि इससे न्यायिक प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न होती है और न्याय व्यवस्था को लेकर अनावश्यक भ्रम फैलता है। भारत में पिछले दो दशकों में ऐसे करीब एक दर्जन बड़े मामले सामने आए हैं, जिसमें व्यक्ति अथवा समुदाय को टारगेट करके मीडिया ट्रायल किया गया। इससे खुद मीडिया की विश्वसनीयता भी घटी है। संक्षेप में कहें तो मीडिया का काम तथ्य सामने रखना है, छद्म अदालतें चलाना नहीं है। यहां उन नकली मीडिया अदालतों की बात नहीं हो रही है, जो घोषित रूप से मनोरंजन के लिए प्रायोजित की जाती हैं।
मीडिया ट्रायल का इतिहास
भारत में मीडिया का इतिहास करीब ढाई सौ साल पुराना है, लेकिन मीडिया ट्रायल की कहानी कुछ दशको पुरानी ही है। प्रिंट मीडिया में यह पूर्व में पीत पत्रकारिता के रूप में आंशिक रूप में मौजूद था। लेकिन इसका व्यापक स्वरूप भारत में इलेक्ट्राॅनिक मीडिया के साथ शुरू हुआ और सोशल मीडिया ने तो मीडिया ट्रायल को एक एजेंडे में ही तब्दील कर दिया। अनधिकृत तौर पर किसी व्यक्ति अथवा संस्था के खिलाफ मुहिम चलाकर उसे बदनाम करना अथवा अपना पक्ष रखने का मौका न देकर उसे अपने स्तर पर ही दोषी के रूप में प्रोजेक्ट करना ही ‘मीडिया ट्रायल’ है। । कुछ लोग इस के लिए कंगारू कोर्ट शब्द का भी प्रयोग करते हैं। कुल मिलाकर यह अभिव्यक्ति की आजादी की आड़ में मनुष्य के संवैधानिक मूल्यों को नकारना और नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत का खुला उल्लंघन है।
क्या है ‘मीडिया ट्रायल’
मीडिया ट्रायल शब्द की शुरूआत 20 सदी के पूर्वार्द्ध से मानी जाती है, जब मूक फिल्मों के दौर में अमेरिका में एक कमेडियन रोजेस्को फैटी अर्बुकल को उसकी एक महिला मित्र की मौत के मामले में फंसाया गया। आरोप था कि रोजेस्को ने उसके साथ रैप किया था। पुलिस ने रोजेस्को को गिरफ्तार किया और मीडिया ने उसके खिलाफ काफी कुछ छापा। हालीवुड ने भी रोजेस्को पर प्रतिबंध लगा दिया। रोजेस्को अपना पक्ष रखने की बहुतेरी कोशिश करता रहा। लेकिन उसकी कोई सुनवाई नहीं हुई। बाद में उजागर हुआ कि रोजेस्को के खिलाफ यह सब राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के कारण हुआ था। अंत में जूरी ने रोजेस्को को निर्दोष पाया, लेकिन इस अवधि में रोजेस्को अपना सब कुछ पैसा, प्रतिष्ठा, विश्वसनीयता आदि सब कुछ खो चुका था। यानी उसका निर्दोष साबित होना भी सैद्धांतिक ही ज्यादा था। इसका सीधा अर्थ यह था कि मीडिया ने रोजेस्को के खिलाफ जो (पूर्वाग्रहित दुष्प्रचार) अभियान चलाया, उसने रोजस्को का समूचा कॅरियर बर्बाद कर दिया। हताशा में वह शराब का आदी हो गया और उसकी कम उम्र में ही मृत्यु हो गई। मीडिया ट्रायल के कारण रोजेस्को का जो नुकसान हुआ, उसकी भरपाई करने का कोई जरिया नहीं था। जबकि मीडिया अपने हितों के हिसाब से काम करता रहा।
व्यक्ति की प्रतिष्ठा से खिलवाड़: इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया द्वारा मीडिया ट्रायल जैसा शब्द 20 सदी के उत्तरार्द्ध में चलन में तब आया, जब मीडिया व्यक्ति की इज्जत के साथ खिलवाड़ करने लगा। माना जाता है कि ब्रिटेन में 70 के दशक में जाने माने पत्रकार डेविड फ्रॉस्ट ने इस शब्द को लोकप्रिय बनाया। फ्रास्ट टीवी पर ऐसे व्यक्तिगत विरोधात्मक सवाल पूछते थे, जिससे सम्बन्धित व्यक्ति के निष्पक्ष न्याय के अधिकार का हनन होता था। लोकप्रिय मीडिया द्वारा इस तरह के सवालों की झड़ी, जिनसे आरोप कम दोषसिद्धी ज्यादा प्रतीत हो, को ही मीडिया ट्रायल कहा जाने लगा। यानी कि ऐसी छद्म मुकदमेबाजी जो अंतिम फैसले से पहले ही व्यक्ति के दोषी होने का माहौल बनाती है। जबकि वास्तव में ये आरोप अक्सर तथ्यहीन अथवा अर्द्धसत्य पर आधारित होते हैं। इसमें आरोपी भले अंत में निर्दोष छूट जाए, लेकिन तब तक वो अपनी साख समाज में खो चुका होता है, जो उसे शायद ही वापस मिलती है।
कंगारू कोर्ट: मीडिया ट्रायल का एक और प्रकार कंगारू कोर्ट है। यह भी एक अवैध समांनातर न्याय प्रणाली है, जहां अभियुक्त के बारे में निर्णय आम तौर पर पूर्व निर्धारित होता है। यह स्व-गठित अथवा छद्म न्यायालय है, जिसे बिना किसी पूर्व चिंतन के निर्णय देने के उद्देश्य से स्थापित किया जाता है और आमतौर पर आरोपी व्यक्ति के संदर्भ में फैसला किया जाता है। इसे कंगारू कोर्ट इसलिए कहा गया क्योंकि इस तरह का पहला मामला उस ऑस्ट्रेलिया में देखा गया, जहां दुर्लभ कंगारू प्राणी बहुतायत में पाया जाता है। अलबत्ता में अमेरिका में ऐसा पहला मामला वर्ष 1849 के कैलिफोर्निया गोल्ड रश के दौरान दर्ज किया गया था। पूर्व के सोवियत संघ में वामपंथी तानाशाह स्टालिन के कार्यकाल में वहां ऐसे ही कंगारू कोर्ट काम कर रहे थे, जिन्हें ‘मॉस्को ट्रायल’ के रूप में भी जाना जाता है।
मीडिया ट्रायल के निहितार्थ
किसी भी मीडिया ट्रायल के पीछे सम्बन्धित मीडिया चैनल अथवा पोस्ट के पीछे ज्यादा से ज्यादा टीआरपी या फिर हिट्स हासिल कर अधिकाधिक विज्ञापन बटोरने की नीयत के अलावा निम्नलिखित गंभीर, दोषपूर्ण और दूरगामी उद्देश्य हो सकते हैं।
1. न्यायिक कामकाज को प्रभावित करना: यह देखने में आया है कि न केवल व्यक्ति विशेष बल्कि न्यायाधीशों के खिलाफ विशेषकर सोशल मीडिया संचालित मीडिया ट्रायल अभियान न्यायिक काम काज को प्रभावित करते हैं। इसी प्रकार न्यायालयों में लंबित मुद्दों पर मीडिया में गैर-सूचित, पक्षपातपूर्ण और एजेंडा संचालित बहस न्यायदान को प्रभावित करता है।
2. नकली असली में भेद न कर पाना: मीडिया ट्रायल किसी भी मामले को तय करने में मार्गदर्शी कारक नहीं हो सकता। नए मीडिया उपकरण में विस्तार की क्षमता भले हो, लेकिन वो सही और गलत, अच्छे तथा बुरे एवं असली व नकली के बीच अंतर करने में असमर्थ हैं।
3. घटनाओं की गलत व्याख्या: आजकल मीडिया उन घटनाओं का वर्णन भी बेहिचक करने लगा है, जिन्हें अमूमन जनहित और देशहित में गुप्त रखा जाता था। ऐसे करने से सम्बन्धित व्यक्ति की प्रतिष्ठा धूमिल हो जाती है, उसका चरित्र संदिग्ध हो जाता है।
4. लोकतंत्र के लिये अनुचित: कई बार मीडिया ने अपनी ज़िम्मेदारी का उल्लंघन करते हुए लोकतंत्र को पीछे ले जाने का काम किया है तथा लोगों को प्रभावित किया है और व्यवस्था को क्षति पहुँचाई है। अभी भी प्रिंट मीडिया में कुछ हद तक जवाबदेही है, जबकि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की जवाबदेही बहुत कम दिखाई देती है।
5.नफरत और हिंसा भड़काना: वस्तुनिष्ठ पत्रकारिता का अभाव समाज में सत्य की झूठी प्रस्तुति की ओर ले जाता है जो लोगों की धारणा और राय को प्रभावित करता है। देश में ही हमने कई मामलों में यह देखा है, जिसका मकसद राजनीतिक हितों की पूर्ति ज्यादा होता है। पेड न्यूज़ और फेक न्यूज़ जनता की धारणा में हेरफेर कर सकते हैं तथा समाज में विभिन्न समुदायों के बीच नफरत, हिंसा एवं वैमनस्य पैदा कर सकते हैं।
6. निजता के अधिकार का हनन: मीडिया ट्रायल के जरिए मीडिया व्यक्ति अथवा संस्था की निजता पर सीधा हमला करता है, जबकि हमारे संविधान ने प्रत्येक नागरिक को अनुच्छेद 21 के तहत निजता (एकांतता) के अधिकार की गारंटी दी है। मीडिया ट्रायल स्पष्ट रूप से इस अधिकार का उल्लंघन करता है।
7. फैसला सुनाने की प्रवृत्ति: मीडिया में यह प्रवृत्ति बढ़ रही है कि वो जनता के मुद्दे उठाने और जनता की आवाज बनने की जगह उन मुद्दों को उठाने की ज्यादा कोशिश करता है, जिनका जनता से ज्यादा सरोकार नहीं होता। यही नहीं वह व्यक्ति विशेष अथवा संगठन को कटघरे में खड़ा करने का प्रयास कर उसे कई बार दोषी करार देने का फैसला देने में भी संकोच नहीं करता। इससे सम्बन्धित व्यक्ति या समुदाय के बारे में गलत परसेप्शन बनता है।
संवैधानिक अधिकारों का हनन
मीडिया ट्रायल पर किसी व्यक्ति के अनुच्छेद 21 के तहत दिए गए जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार के अधिकार का उल्लंघन करता है। मीडिया ट्रायल के दौरान, न केवल संदिग्धों और आरोपियों को बल्कि पीड़ितों को भी अत्यधिक प्रचार और उनके गोपनीयता अधिकारों के हनन का सामना करना पड़ता है। जब मीडिया एकतरफा स्टिंग ऑपरेशन करता है, तो यह दूसरे व्यक्ति की निजता का उल्लंघन है और मीडिया पर कानूनी कार्रवाई का आधार बनता है। किसी भी व्यक्ति की निजता के अधिकार की रक्षा तब तक की जानी चाहिए जब तक कि कोई पहचानने योग्य बड़ा सार्वजनिक हित न हो। हालांकि कानून में गोपनीयता के अनुचित आक्रमण को पारिभाषित नहीं किया गया है। मीडिया ट्रायल व्यक्ति के प्रतिष्ठा का अधिकार का भी उल्लंघन करता है। प्रतिष्ठा के अधिकार से तात्पर्य किसी व्यक्ति के चरित्र पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाले किसी भी आरोप को प्रकाशित तब तक नहीं करना है, जब तक कि वह कुछ विशेष परिस्थितियों में न हो। यदि यह उन परिस्थितियों में नहीं है, तो मीडिया इकाई मानहानि की दोषी होगी। यह बात संविधान के अनुच्छेद 21 से भी निकलती है।
मीडिया ट्रायल: कुछ उदाहरण
हमारे देश में ऐसा कोई कानून नहीं है, जहां मीडिया को किसी मामले की सुनवाई करने की कानूनी शक्ति दी गई हो। न्याय देने का काम पूरी तरह न्याय पालिका का है, जहां अपराध के पंजीयन, विवेचना, सुनवाई और निर्णय की एक सर्वमान्य वैधानिक प्रक्रिया है। लेकिन मीडिया ट्रायल के जरिए अमूमन पत्रकार किसी आरोपी की पूर्व-निर्धारित छवि को चित्रित करता है, जिससे उसकी प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचता है जो अंततः मुकदमे और फैसले को प्रभावित कर सकता है। हाल के वर्षों में हुआ शीना बोरा हत्याकांड का मामला है, जिसमें मीडिया की तीखी नजरों ने मुख्य आरोपी इंद्राणी मुखर्जी की निजी जिंदगी को प्रभावित किया था, जिसके बाद आरोपियों के मीडिया ट्रायल को लेकर बहस छिड़ गई थी और पत्रकारिता की नैतिकता पर सवाल उठाए गए थे।
मीडिया ट्रायल के कारण न्यायपालिका के प्रभावित होने के विशिष्ट और कुख्यात उदाहरणो में जेसिका लाल मामला (2010) है, जहां मीडिया ने जेसिका लाल को न्याय दिलाने के उसके प्रयासों पर खुशी जताई और ट्रायल कोर्ट ने आरोपियों को सभी आरोपों से बरी कर दिया था। इसी तरह प्रियदर्शिनी मट्टू मामले (2006) में एक कानून की छात्रा की बलात्कार के बाद हत्या कर दी गई। इस मामले का फैसला भी मीडिया ट्रायल से प्रभावित होने का संदेह था। हालांकि इस तरह के ट्रायल को लेकर मीडिया हमेशा कटघरे में नहीं रहा है।
लेकिन कुछ मामले ऐसे भी हैं, जहां मीडिया ट्रायल के चलते दोषियों को सजा हुई। यह मीडिया ट्रायल का एक सकारात्मक पहलू है। उदाहरण के लिए बिजल जोशी बलात्कार मामला और नीतीश कटारा हत्या मामले में अगर मीडिया को श्रेय दिया जहां अगर मीडिया ने हस्तक्षेप नहीं किया होता तो आरोपी बच जाते। लेकिन दूसरी तरफ मीडिया ने भी सटीकता के महत्व को नजरअंदाज करते हुए मालेगांव विस्फोट और मारिया सुसाइराज मामले में निर्दोष लोगों पर निशाना साधा। सेलेब्रिटीज के मामलो में मीडिया ट्रायल का मामला और गंभीर हो जाता है। मीडिया का असंतुलित व्यवहार कई बार ऐसी हस्तियों के बारे में उनके प्रशंसकों की राय को बदल सकता है। ऐसा ही एक मामला रिया चक्रवर्ती बनाम बिहार राज्य 2020 (सुशांत सिंह राजपूत डेथ केस) रहा है, जहां मीडिया ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और आरोपी ने मीडिया ट्रायल का मुद्दा उठाया था।
पूर्वाग्रह को जन्म
आम जनता को प्रभावित करने वाली मीडिया की पूरी प्रक्रिया पूर्वाग्रह पैदा करती है। यह पूर्वाग्रह सिर्फ दर्शकों या पाठकों के मन में ही नहीं बल्कि कभी कभी जजों के व्यवहार में भी दिखाई देता है। ऐसे में न्यायाधीशों और अदालतों की जिम्मेदारी बनती है कि किसी भी हाई प्रोफाइल मामले में प्रकाशित एकांगी अथवा आधे अधूरे तथ्यों पर आधारित बातों से मुकदमे के अंतिम फैसले को प्रभावित न होने दें। भारत के न्यायिक इतिहास में कतिपय ऐसे मामले सामने भी आए हैं, जहाँ वास्तविक साक्ष्यों की तुलना में झुकाव उस चीज़ की ओर थोड़ा दिखाई दिया, जिस पर विश्वास किया जा रहा था। बहुचर्चित आरुषि-हेमराज दोहरे हत्याकांड में, जहां एक किशोरी एक सुबह अपने बिस्तर पर खून से लथपथ और मृत पाई गई थी। जिस नौकरानी पर उसकी हत्या करने का संदेह किया जा रहा था, वह भी उसी दिन छत पर मृत पाई गई थी। देखा गया कि इस मामले में मीडिया ने पूरी कोशिश की कि इतने गंभीर मामले को महिमामंडित कर जनता के सामने पेश किया जाए। जबकि मामले के तथ्यों के अनुसार यह सिद्ध हो चुका है कि घटना का कोई गवाह नहीं है, बावजूद इसके कि उस रात जो कुछ हुआ था, उसके बारे में जनता भली-भांति परिचित थी। इसरो जासूसी मामला: इसरो जासूसी मामला भारत की अंतरिक्ष एजेंसी के इतिहास में सबसे विवादास्पद मामलों में से एक है। यह मामला 1994 में शुरू हुआ जब मरियम रशीदा नाम की मालदीव की एक महिला को वीजा अवधि से अधिक समय तक रुकने के आरोप में तिरुवनंतपुरम में गिरफ्तार किया गया था। पूछताछ के दौरान, रशीदा ने कथित तौर पर खुलासा किया कि वह दो वैज्ञानिकों, डी शशिकुमारन और नांबी नारायणन के संपर्क में थी और उनसे भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम से संबंधित संवेदनशील दस्तावेज प्राप्त किए थे। केरल पुलिस ने इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) के साथ मिलकर मामले की जांच शुरू की।
इसके बाद शशिकुमारन और नारायणन को गिरफ्तार कर लिया गया और उन पर पाकिस्तान की इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (आईएसआई) को संवेदनशील जानकारी लीक करने का आरोप लगाया गया। हालाँकि, बाद में यह सामने आया कि मामला झूठी कहानी पर आधारित था। इसके अलावा, वैज्ञानिकों पर जिन दस्तावेज़ों को लीक करने का आरोप लगाया गया था, वे वर्गीकृत नहीं थे और सार्वजनिक डोमेन में आसानी से उपलब्ध थे।
1996 में सीबीआई ने मामला अपने हाथ में लिया और उसे वैज्ञानिकों के खिलाफ जासूसी का कोई सबूत नहीं मिला। सीबीआई का निष्कर्ष था कि मामला झूठे आरोपों पर बनाया गया था और दोनों वैज्ञानिक निर्दोष थे। 1998 में उनके खिलाफ आरोप हटा दिए गए। उन्हें और विशेष रूप से नांबी नारायणन को अग्निपरीक्षा के दौरान बहुत कष्ट सहना पड़ा। लेकिन इस मामले में केरल के मीडिया ने नंबी नारायणन को गद्दार घोषित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। परिणामस्वरूप उन्हें समाज द्वारा बहिष्कृत कर लगातार उपहास और उत्पीड़न का पात्र बनाया गया। बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हे बाइज्जत बरी किया। इसरो जासूसी मामला इस बात का एक प्रमुख उदाहरण है कि मीडिया कैसे झूठी कहानी को बढ़ावा दे सकता है और निर्दोष लोगों के जीवन को नुकसान पहुंचा सकता है। इसी तरह हाथरस गैंग रेप कांड में उत्तर प्रदेश के हाथरस जिले में एक 19 वर्षीय दलित युवती के साथ चार उच्च जाति के पुरुषों ने क्रूरतापूर्वक बलात्कार किया था। अदालत ने पीड़िता की मौत के बाद ही मामले का संज्ञान लिया, क्योंकि तब मीडिया सुशांत सिंह की मौत के मामले में साजिशों और कहानियों को उछालने में व्यस्त था। दरअसल किसी गंभीर अपराध को मीडिया द्वारा सामान्य रूप में लेना भी अपने आप अनैतिक, गैर पेशेवराना और संवेदनहीनता का परिचायक है।
अभिव्यक्ति की आज़ादी बनाम मीडिया ट्रायल
भारतीय संविधान में अनुच्छेद 19 (ए) के तहत सभी को (जिसमें मीडिया भी शामिल है) बोलने की आज़ादी दी गई है। यही आजादी देश में सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक मामलों पर जनमत निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। दूसरे शब्दों में कहें तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अन्य सभी स्वतंत्रताओं का मूल स्रोत है। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस वेंकटरमैया के वक्तव्य के अनुपालन में इंडियन एक्सप्रेस न्यूजपेपर्स (बॉम्बे) प्रा. लि. बनाम भारत संघ (1984) मामले में इसकी व्याख्या इस प्रकार की गई है-: “प्रेस ( यहां तात्पर्य मीडिया से है) की स्वतंत्रता सामाजिक और राजनीतिक संबंधों का केंद्र है। प्रेस ने अब औपचारिक और अनौपचारिक शिक्षा को विशेष रूप से विकासशील दुनिया में बड़े पैमाने पर संभव बनाने वाले सार्वजनिक शिक्षक की भूमिका निभाई है, जहां टेलीविजन या आधुनिक संचार उपकरण नहीं हैं।”
मीडिया ट्रायल और निष्पक्ष ट्रायल
भारत और न्याय व्यवस्था में “निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार” यानी, बाहरी दबावों से प्रभावित न होने वाली सुनवाई को न्याय के बुनियादी सिद्धांत के रूप में स्वीकार किया गया है। लेकिन व्यवहार में कई बार मीडिया का आचरण इसके विरूद्ध दिखाई देता है। निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार को सुरक्षित करने के उद्देश्य से कानूनी प्रावधान न्यायालय की अवमानना अधिनियम 1971 और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 129 और 215 में दिए गए हैं। यहां मीडिया की दृष्टि से विचार करें तो उसकी प्रमुख चिंता उन प्रतिबंधों को लेकर है, जो न्यायालय के समक्ष लंबित किसी मामले के गुण-दोष से संबंधित मामलों की चर्चा या घोषणा पर लगाए जाते हैं। ऐसे में एक पत्रकार को न्यायालय की अवमानना के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, यदि वह कुछ भी प्रकाशित करता है जो ‘निष्पक्ष सुनवाई’ पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है जो न्यायालय की निष्पक्षता को उसके गुण-दोष के आधार पर निर्णय लेने में प्रभावित करता है, चाहे कार्यवाही की प्रकृति कुछ भी हो। दीवानी हो या फौजदारी।
मीडिया ट्रायल हस्तक्षेप
एक बार जब किसी मामले का सार तैयार करने वाले साक्ष्य, चाहे वह दीवानी हो या फौजदारी, इस प्रक्रिया में जब मीडिया ट्रायल हस्तक्षेप शुरू हो जाता है तो कई बार साक्ष्य की मान्यता और प्रामाणिकता संदिग्ध होने लगती है। उदाहरण के लिए, भीमा-कोरेगांव मामले में , जहां कुछ कार्यकर्ताओं को महाराष्ट्र पुलिस द्वारा माओवादियों के साथ संबंध साझा करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। मीडिया ट्रायल के कारण इस मामले के लिए मिले सुराग लीक हो गए थे। लीक होने वाले वो 13 पत्र जो, जांच के अधीन थे और जिनके जरिए प्रतिबंधित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के संचालन के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी मिल सकती थी, मीडिया में लीक हो गए और पूरी कार्यवाही में अराजकता की स्थिति पैदा हो गई। बाॅम्बे हाई कोर्ट को इस मामले में कड़ा रूख अपनाना पड़ा। उसने आम जनता को पत्र लीक करने के मीडिया के कृत्य की आलोचना की। साथ ही अदालत को प्राथमिक साक्ष्य के रूप में विचार किए जाने वाले पत्रों को हटाना पड़ा। कोर्ट ने टिप्पणी की कि राज्य की जांच शाखा द्वारा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का उपयोग, जिसने जांच के लंबित रहने के दौरान जनता की राय को प्रभावित करने का काम किया, जांच की निष्पक्षता को पूरी तरह से नष्ट कर देता है।
मीडिया ट्रायल: एक पहलू यह भी
ऐसा नहीं है कि मीडिया ट्रायल हर परिस्थिति में अमान्य और नकारात्मकता से भरा है। कई मामलों में मीडिया ट्रायल ने नए तथ्य पेशकर जांच एजेंसियों और न्याय प्रक्रिया आगे बढ़ाने में मदद भी की है। मीडिया की यह भूमिका उस स्थिति में और ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है, जब ऐसा लगता है कि जब राज्य की अभियोजन एवं जांच एजेंसियां अपना काम ठीक से नहीं कर रही हैं। ऐसे में मीडिया को कार्यपालिक, विधायी और न्यायिक अधिकारियों के कार्यों पर सवाल उठाने का अधिकार है। इससे लोगों को न्याय पाने में मदद ही िमली है। उदाहरण के लिए 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला, कॉमनवेल्थ गेम्स (सीडब्ल्यूजी) घोटाला आदि।
सवाल उठाना मीडिया ट्रायल नहीं
यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है कि लोकतंत्र के किसी भी आधार स्तम्भ, राजनीतिक सामाजिक और प्रशासनिक अव्यवस्था, कुरीतियों, भ्रष्टाचार, शोषण आदि के खिलाफ आवाज उठाना और उनकी खामियों को उजागर करना मीडिया ट्रायल नहीं है। अगर कोई इसे भी ‘मीडिया ट्रायल’ का नाम देना चाहे तो यह बुनियादी रूप से गलत है। यह तो मीडिया का कर्तव्य ही है। गलत है झूठ फैलाना। दोषी को निर्दोष और निर्दोष को दोषी साबित करने का प्रयास करना। किसी के भी प्रति अपनी सुविधा और स्वार्थों के हिसाब से सार्वजनिक राय बनाना अथवा ऐसा करने में मदद करना। यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि मीडिया कोई समानांतर न्यायालय नहीं है। मीडिया की अपनी मर्यादाएं हैं।
निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार
न्याय व्यवस्था का मूल मंत्र है कि “हर आरोपी को निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार है” और “न्याय न केवल किया जा सकता है बल्कि उसे होते हुए दिखना भी चाहिए।” ये दो मजबूत विश्वास प्रणालियाँ हैं जो हमारे आपराधिक न्यायशास्त्र का हिस्सा हैं, लेकिन मीडिया द्वारा चलाया गया मुकदमा पूरी तरह से इनके खिलाफ जाता है। मीडिया ट्रायल मुकदमे पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। आमतौर पर हाई-प्रोफाइल मामलों या ऐसे मामलों में देखा जाता है जिनमें मशहूर हस्तियां शामिल होती हैं। दरअसल मीडिया पुलिस, जांचकर्ताओं, वकीलों और न्यायाधीशों की भूमिका निभाता है और ऐसा निर्णय सुनाता है जो पूरी तरह से गलत हो सकता है। उनकी अत्यधिक संलिप्तता आरोपियों को निष्पक्ष और निष्पक्ष सुनवाई से वंचित कर देती है। [3] वाईवी हनुमंत राव बनाम केआर पट्टाभिराम और अन्य के मामले में आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति गोपाल राव एकबोटे द्वारा न्याय के उचित पाठ्यक्रम के बारे में बताया गया है। इसके मुताबिक “जब मुकदमा किसी न्यायालय के समक्ष लंबित है, तो कोई भी उस पर इस तरह से टिप्पणी नहीं करेगा कि कार्रवाई के परीक्षण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने का वास्तविक और पर्याप्त खतरा हो। उदाहरण के लिए न्यायाधीश, गवाहों पर प्रभाव या मानव जाति पर प्रतिकूल प्रभाव डालना आम तौर पर मामले के एक पक्ष के खिलाफ। भले ही टिप्पणी करने वाला व्यक्ति ईमानदारी से इसे सच मानता हो, फिर भी यदि वह कार्यवाही में सुनिश्चित होने से पहले सच्चाई पर पूर्वाग्रह डालता है तो यह अदालत की अवमानना है।
निष्पक्ष सुनवाई के इस सामान्य नियम में एक और नियम जोड़ा जा सकता है और वह यह है कि कोई भी, गलत बयानी या अन्यथा, किसी एक पक्ष पर किसी कारण से अनुचित दबाव नहीं डालेगा ताकि उसे अपनी शिकायत या बचाव छोड़ने के लिए मजबूर किया जा सके। कानून बताते समय हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि ‘पूर्वाग्रह का एक वास्तविक और पर्याप्त खतरा’ अवश्य प्रतीत होना चाहिए।
मीडिया अधिकारों को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के दृष्टिकोण से मौलिक अधिकारों के रूप में मान्यता दी गई है। साथ ही संविधान के अनुच्छेद 21 के मद्देनजर प्रतिवादी को स्वतंत्र और निष्पक्ष बने रहने के मौलिक अधिकार के खिलाफ प्रतिदावा करने का अधिकार है। संविधान के अनुच्छेद 129 और अनुच्छेद 125 और सक्षम न्यायालय अधिनियम, 1971 का उद्देश्य निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार की रक्षा करना है। कानूनी विशेषज्ञों के अनुसार संविधान के अनुच्छेद 19 और अनुच्छेद 21 के बीच संतुलन बनाए रखने की आवश्यकता है। गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने जाहिरा हबीबुल्लाह शेख बनाम गुजरात राज्य मामले में बताया था कि निष्पक्ष सुनवाई से तात्पर्य एक निष्पक्ष न्यायाधीश के समक्ष सुनवाई है। निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 14, 20, 21 के माध्यम से दिया गया है। यह एक पूर्ण अधिकार है जिसकी गारंटी अनुच्छेद 14 के साथ पठित अनुच्छेद 21 द्वारा दी गई है। हालाँकि भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार अनुच्छेद 19(1)(ए) की गारंटी देता है लेकिन अनुच्छेद 19 के अनुसार (2) इस अधिकार को केवल भारत की संप्रभुता और अखंडता के हित में कानून द्वारा रोका जा सकता है।
मीडिया ट्रायल नियंत्रक कानून
पीसीआई अधिनियम
भारतीय प्रेस परिषद की धारा 13 भारतीय समीक्षा के मानक को बनाए रखने और सुधारने के लिए विनियमन देती है, इस धारा के अनुसार भारतीय समीक्षा रिपोर्टिंग को किसी भी समीक्षा द्वारा रिपोर्ट की गई किसी भी सामग्री की समीक्षा करनी चाहिए।
सीटीवीएन एक्ट 1995 व नियम 1994
यह अधिनियम नियंत्रित करता है कि किस प्रकार के कार्यक्रम प्रसारित किए जाने चाहिए और इस अधिनियम की धारा 19 और 20 के तहत कुछ ऐसे कार्यक्रमों पर प्रतिबंध लगाता है जो सार्वजनिक हित और टीवी नेटवर्क को सार्वजनिक शालीनता और नैतिकता बनाए रखने में पूरी तरह से बाधा डालते हैं।
आईपीसी की धारा 124ए, 499 व 505
मीडिया ट्रायल को उन मामलों में विनियमित किया जा सकता है जहां प्रकाशन आईपीसी की धारा 124ए के तहत आते हैं, साथ ही किसी भी प्रकाशन के माध्यम से घोर निंदा का अपराध करना आईपीसी की धारा 499 के तहत दंडनीय है और धारा 505 के अनुसार जहां किसी भी प्रकाशन का उद्देश्य किसी व्यक्ति को मजबूत बनाना है। अपने कर्तव्यों का उल्लंघन करने या राज्य या सार्वजनिक शांति के खिलाफ कार्य करने के लिए जनता में भय पैदा करने के लिए मजबूर करना, यह अपराध इस धारा के दायरे में आता है।
संविधान के अनुच्छेद 14 व 21
अनुच्छेद 14 कानून के समक्ष समतुल्यता और कानून के समान संरक्षण का अधिकार देता है और संरचना 21 जीवन का अधिकार प्रदान करता है।
उल्लेखनीय है कि यहां सारा विवेचन मुख्य धारा के मीडिया को लेकर है। हालांकि सोशल मीडिया तो मीडिया ट्रायल की चलती फिरती अदालत है। इसने मीडिया ट्रायल के पुराने नियमों व मर्यादाओं को ताक पर रख दिया है। सोशल मीडिया पर ट्रोलिंग और झूठी तारीफ के सारे मानदंडों को ताक पर रख दिया है। लेकिन उसकी संवैधानिक जवाबदेही भी अभी तक तय नहीं हुई है।