संवैधानिक मूल्यों की रक्षा में सही भूमिका निभा रहा है मीडिया?
कायदे से प्रेस स्वतंत्रता के मामले में भारत का नाम दुनिया के पहले पांच देशों में होना चाहिए था, लेकिन हो उलटा रहा है। हम 11 स्थान और नीचे चले गए हैं। प्रेस और प्रकारांतर से मीडिया की जुबान का इस तरह कैद होना अंतत: संवैधानिक मूल्यों का ही हनन है और संवैधानिक मूल्य ही भारत राष्ट्र के कायम रहने की गारंटी है। मीडिया के पैरों का हिलना संविधान के पायों का डगमगाना है।
अजय बोकिल
लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं संविधान संवाद फेलो हैं।
देश में आजादी के अमृत काल में यह सवाल शिद्दत से उठ रहा है कि जिसे लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहा जाता है, उस मीडिया की संवैधानिक मूल्यों की रक्षा में क्या भूमिका है? क्योंकि इन्ही मूल्यों की बदौलत भारत में लोकतंत्र कायम है और इन्हीं मूल्यों की वजह से मीडिया को अभिव्यक्ति की आजादी और काम करने की स्वतंत्रता हासिल है। सत्तातंत्र का सच जनता तक न पहुंचे इसके लिए उस पर अंकुश लगाने के प्रयास तो पहले भी होते रहे हैं, लेकिन बीते एक दशक में पिछले दरवाजे अथवा सीधे तौर पर अभिव्यक्ति की आजादी को नियंत्रित करने अथवा उसका इस्तेमाल अपने हितों में करने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी है। इसका नतीजा यह है कि बहुतांश में मीडिया की भूमिका महज सत्ता के अनुकूल व्यवहार करने तथा अपने व्यावसायिक हितों की संरक्षा करने तक केन्द्रित होती जा रही है।
कई बार सरकारों पर यह आरोप लगा है कि वह मीडिया और खासकर इलेक्ट्राॅनिक और प्रिंट मीडिया पर परोक्ष नियंत्रण की कोशिश कर रही है। इसका मकसद यही है कि लोगों के सामने वो तस्वीर का वो पक्ष सामने न आए, जिससे सत्तातंत्र को परेशानी हो। जबकि ऐसा करना अथवा करने की कोशिश करना अभिव्यक्ति की आजादी और व्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे अधिकारों को नकारना है। ऐसी कोशिशें केन्द्र और राज्य के स्तर पर अलग अलग तरीके से होती दिखती हैं और ऐसा करने के पीछे भी लचर तर्क दिए जाते हैं। इन दबावों के चलते मीडिया का व्यवहार दो तरह से दिखाई पड़ता है। एक, जो सत्ता तंत्र के आगे शरणागत है और जिसका काम केवल सत्ता के अनुकूल आचरण करना है तथा दूसरा वो है, जो पत्रकारिता के बुनियादी मूल्यों को कायम रखते हुए अपना काम करने की कोशिश कर रहा है। दुविधा की ऐसी स्थिति उस आपात काल में भी नहीं बनी थी, जब मीडिया पर सीधे सेंसरशिप लागू कर दी गई थी। यह भी पहली बार देखने में आ रहा है कि संवैधानिक मूल्यों की खातिर सत्ता तंत्र से पंगा लेने वाले मीडिया को देशद्रोही तक कहा जा रहा है, जबकि मीडिया खुद लोकतंत्र और संविधान का जनरक्षक है। क्योंकि मीडिया की स्वतंत्रता और निष्पक्षता का सीधा सम्बन्ध भारत के नागरिक की स्वतंत्रता से है।
सरकार का पक्ष
इनमें से कई बातें ऐसी हैं, जिनके ठोस प्रमाण देना शायद मुश्किल हो, लेकिन उसे महसूसा जा सकता है। समाचार चैनलो कर इस तरह के परोक्ष दबाव का मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा था। तब भारत सरकार की ओर से साॅलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सुप्रीम कोर्ट में बयान दिया था कि भारत टीवी चैनलों के कंटेंट पर कोई नियंत्रण रखना नहीं चाहती, क्योंकि वह मीडिया के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का सम्मान करती है। तुषार मेहता ने कोर्ट में यह बयान 2020 में तब्लिगी जमात विवाद के संदर्भ में दिया था। इसी प्रकार अर्णब गोस्वामी बनाम महाराष्ट्र सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन न्यायाधीश डी.वाय. चंद्रचूड ने कहा था कि यदि मीडिया को बांध दिया जाएगा तो नागरिक स्वतंत्रता भी अस्तित्व में नहीं रहेगी।
मीडिया की ताकत
इसमें शक नहीं कि मीडिया आज देश में बहुत ताकतवर संस्था है। आजादी की लड़ाई में लोगों को प्रेरित करने में मीडिया ने अहम भूमिका निभाई। आजादी के बाद भी मीडिया का संवैधानिक मूल्यों के अघोषित रक्षक और विकास की दृष्टि से महत्वपूर्ण किरदार रहा है। लेकिन एक डेढ़ दशक पहले सोशल मीडिया के उद्भव के साथ अनियंत्रित मीडिया की मानो ऐसी बाढ़ आ गई है, जहां सच और झूठ का अंतर ही समाप्त हो गया है। पहले सामूहिकता और समाज पर होने वाले उसके असर को ध्यान में रखते हुए मीडिया काम करता था। लेकिन अब ऐसा नहीं है। वह भी समाज को बांटकर और व्यावसायिक हितों को ध्यान में रखकर काम कर रहा है।
सोशल मीडिया ने व्यक्तिवादी और व्यक्ति केन्द्रित मीडिया का विश्व इतना विस्तृत कर दिया है कि उस पर अंकुश लगाना लगभग असंभव है। अगर आप एक खिड़की बंद कर देंगे तो वह दूसरी खिड़की से झांकने लगेगा। सोशल मीडिया के साथ एजेंडा पत्रकारिता की विधा भी तेजी से पनपी है। यह ऐसी विधा है, जहां संवैधानिक तो ठीक किसी भी मूल्य का कोई मायने नहीं है।
मीडिया की भूमिका
सोशल मीडिया की इस अराजकता के दौर में यह सवाल गंभीरता से उठ रहा है कि आखिर संवैधानिक मूल्यों को सहेजने और उसकी पवित्रता कायम रखने में आज मीडिया की भूमिका क्या है? कैसी है और कितनी है? है भी या नहीं?
मानवीय मूल्यों की कसौटियां
इसके लिए मीडिया के व्यवहार को हमे संविधान की उद्देशिका में दिए गए शाश्वत मानवीय मूल्यों की कसौटी पर कसना होगा। ये हैं-
1. सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय
2. विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास , धर्म और उपासना की स्वतंत्रता
3. प्रतिष्ठा और अवसर की समता
4. राष्ट्र की एकता अखंडता
5. व्यक्ति की गरिमा सुनिश्चित करने वाली बंधुता को बढ़ाना।
हमे देखना होगा कि क्या मीडिया आज इन मूल्यों को सहेजने के मकसद से काम कर रहा है या नहीं? मीडिया समाचार, विचार, विमर्श तथा बहसों की प्रस्तुति इन मूल्यों के अनुरूप है या नहीं? मीडिया में आज जो कुछ और जिस नीयत से परोसा जा रहा है, वह संविधान की आत्मा के अनुरूप है या नहीं? है तो इसके पीछे कौन से कारण हैं और नहीं है तो कि कारणों से ऐसी स्थिति बन रही है। यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है कि यदि मीडिया ने संवैधानिक मूल्यो को सहेजने का काम नहीं किया तो देश में विभाजन और विखंडन की स्थिति बनेगी और सामाजिक बंटवारा समूचे समाज को ही खंड-खंड कर देगा साथ ही मानवीय गरिमा की जो गारंटी संविधान ने दी है, वह भी तार-तार हो जाएगी। इस अर्थ में मीडिया पर यह बहुत बड़ा दायित्व है कि वह हर हाल में संवैधानिक मूल्यों की रक्षा और संरक्षण का काम करे ताकि आने वाली पीढि़यां यह न कहे कि 21 वीं सदी के पूर्वार्द्ध में मीडिया की भूमिका पक्षपातपूर्ण अथवा अदूरदर्शी तथा देशहित के विरूद्ध थी।
‘लोकतंत्र के प्रतिज्ञा पत्र की ज्योति’
मीडिया की इस भूमिका का महत्व इसलिए भी है, क्योंकि हमारे संविधान की उद्देशिका में ही विचार स्वातंत्र्य की गारंटी दी गई है। इसी का और विस्तार अनुच्छेद 19(1) में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और बोलने की आजादी के अधिकार के रूप में किया गया है। यानी भारत के नागरिकों को अपनी बात कहने, उसका प्रसार करने तथा िकसी भी माध्यम से संचार करने का अधिकार िदया गया है। यह अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण इसलिए है, क्योंकि संविधान निर्माताअोंको इस बात का बखूबी अहसास था कि अभिव्यक्ति की आजादी के बगैर न तो लोकतंत्र जीवित रह सकता है और न ही राजनीतिक स्वतंत्रता का कोई अर्थ है। यह विचार भी आजादी के आंदोलन में हिंदी और भारतीय भाषाअों के प्रेस व पत्रकारों की सक्रिय भूमिका के कारण ही अस्तित्व में आया। क्योंकि कलम भी स्वतंत्रता आंदोलन का प्रमुख हथियार थी, जिसने विदेशी सत्ता को देश छोड़ने पर मजबूर किया। प्रेस, जिसे अब मीडिया कहा जाने लगा है, का महत्व आज भी अक्षुण्ण है। इसलिए उसके कंधों पर दायित्व भी ज्यादा है। एक प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने भारत में मीडिया की भूमिका को ‘लोकतंत्र के प्रतिज्ञापत्र की ज्योति’ निरूपित किया था। इसीलिए मीडिया को लोकतंत्र का चौथा खम्भा भी कहा जाता है।
मीडिया के इस तेवर को इमर्जेंसी में लागू सेंसरशिप भी नहीं झुका सकी। क्योंकि उस कठिन समय में भी संविधान के बुनियादी मूल्यों का रक्षा कवच बनकर खड़ा रहा। लेकिन आज मीडिया पर सीधा अंकुश नहीं है, बावजूद इसके मीडिया रेंगने और आरती उतारने की मुद्रा में ज्यादा दिखता है। इसका अर्थ यह नहीं कि सत्ता की आलोचना, स्थायी विपक्ष की भूमिका अथवा नकारात्मक सूचनाएं और खबरे देने वाला ही मीडिया है। उसकी भूमिका संतुलित और ज्यादा जिम्मेदारी भी होनी चाहिए, जो एकता अखंडता और समता समानता की संवैधानिक गारंटी के अनुरूप हो। देश में सभी स्तरों पर असहिष्णुता बढ़ रही है। आज जमीनी सचाई यह है कि सर्वसमावेशिता के तमाम दावों के बावजूद असहिष्णुता बढ़ रही है और किसी भी प्रकार का विरोधी स्वर व्यवस्था को मंजूर नही है। ऐसी हिमाकत करने वालों को अपने तरीके से निपटा दिया जाता है साथ में यह तर्क भी दिया जाता है कि भारत में प्रेस अथवा मीडिया पर िकसी का कोई अंकुश नहीं है। लेकिन वास्तव में मीडिया की नकेल कसने में कोई भी राजनीतिक दल पीछे नहीं है।
रंगराजन एवं अन्य विरूद्ध जगजीवन राम व अन्य प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने खुली आलोचना करते हुए कहा था कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित करने के लिए सरकारी नीति वैध आधार नहीं है। असहिष्णुता लोकतंत्र के लिए उतनी ही हानिकारक है जितनी कि किसी व्यक्ति के लिए।
एजेंडा पत्रकारिता का दौर
मीडिया की स्वतंत्रता और निष्पक्षता को लेकर बीते कुछ सालों में कई सवाल उठे हैं, खासकर आर्थिक घोटालों, धार्मिक तनावों और एक खास नरेटिव तैयार करने, जिससे कि सत्ता पक्ष को फायदा हो,को लेकर। लेकिन अब तो ऐसा महसूस होने लगा है कि मीडिया खुद अपना एजेंडा चला रहा है, जिसके पीछे बाजार का दबाव तो है ही, साथ ही सत्ता पक्ष के प्रचार और हित रक्षण की अघोषित जिम्मेदारी भी उसने ओढ़ ली है अथवा उसे ऐसा करने पर विवश किया जा रहा है। इससे आम जनता की उस अपेक्षा की उपेक्षा हो रही है, जिसके तहत सही और प्रामाणिक सूचना उस तक पहुंचनी चाहिए। इसका मुख्य उद्देश्य तो सत्ताधीशो को खुश करना अथवा सत्ताधीशों के अनुकूल पब्लिक नरेटिव सेट करना है।
मीडिया के इस ‘असंवैधानिक’ व्यवहार के पीछे कई कारण हैं। जिन्हें विस्तार से समझने की जरूरत है। ये हैं-
1.पेड न्यूज: पेड न्यूज भी एक तरह से असत्य और अपुष्ट समाचार का ही एक प्रकार है, जो किसी दल, संस्था या व्यक्ति से निश्चित धनराशि के बदले प्रकाशित की जाती है। यह शुद्ध रूप से एक व्यवसाय है, जिसमें पत्रकारिता के एथिक्स को ताक पर रख दिया जाता है। ऐसी पेड न्यूज अक्सर पाठक को भ्रमित करने वाली होती हैं। ‘प्रेस कौंसिल आॅफ इंडिया’ ने इसे रोकने के लिए गाइड लाइन भी जारी की है, लेकिन बहुत ही कम संस्थान इसका पालन करते दिखाई देते हैं।
2. मीडिया का कारपोरेटीकरण: संसदीय स्थायी समिति ने 2013 में मीडिया के कारपोरेटीकरण को लेकर एक रिपोर्ट भी पेश की थी, जिसमें अनुबंध आधारित पत्रकारिता और केन्द्रीय सूचना प्रसारण मंत्रालय की जवाबदेही पर भी सवाल उठाए गए थे। लेकिन यह भी तब की बात है, जब सोशल मीडिया अपने शुरूआती दौर में था। मीडिया के कारपोरेटीकरण से मीडिया संस्थानों में काम करने वालों की स्थितियां और हैसियत भी बदल गई है। इसने ट्रेड यूनियन आंदोलन को भी हाशिए पर पहुंचा दिया है। पैसा ज्यादा मिलने लगा है, लेकिन अधिकारो को तिलांजलि दे दी गई है।
3. मीडिया का मनमाना उपयोग: अब तो सोशल मीडिया का विस्तार असीमित और अमर्यादित हो चुका है। वह जनमत को प्रभावित करने की स्थिति में है। चूंकि इस पर किसी का कोई नियंत्रण नहीं है, कोई संपादन नहीं है, इसलिए निहित स्वार्थ सिद्धी के लिए इसका भरपूर दुरूपयोग हो रहा है। सही और प्रामाणिक के बजाए लोगों तक गलत सूचनाएं पहुंचा कर अलग नरेटिव गढ़ने की होड़-सी मची है।
4. राजनीतिक लाभ: राजनीतिक दल और दूसरे तमाम संगठन सोशल मीडिया की निरंकुशता का भरपूर फायदा उठा रहे हैं। 2019 में लोकसभा चुनाव में सोशल मीडिया का इतना ज्यादा उपयोग हुआ कि कुछ लोगों ने इसे ‘ भारत के पहले व्हाट्सएप चुनाव’ की संज्ञा दे दी। आज सोशल मीडिया चुनावी नरेटिव सेट करने की ताकत रखता है। जाहिर है कि सोशल मीडिया का चुनाव में और भी निर्णायक उपयोग होने वाला है तथा यह सरकारों की निर्णय प्रक्रिया को भी प्रभावित करने लगा है। हालांकि सोशल मीडिया की यह भूमिका एकतरफा है, ऐसा नहीं जा सकता। उदाहरण के लिए तीन विवादित कृषि कानून को लागू करना, उनका व्यापक विरोध और उनकी वापसी तथा सीएए कानून के मामले में भी हमने देखा। हालांकि कई बार इससे छुपाए जा रहे सत्य को उघाड़ने में भी मदद मिलती है। मणिपुर हिंसा के मामले में यह बात काफी हद सच साबित हुई है। लेकिन तुलनात्मक रूप से मीडिया अपने मौलिक दायित्व को पूरा करने की जगह किसी गाइडेड टूल के रूप में काम करता ज्यादा दिखता है। यही चिंतनीय है। यह लोगों के सही सूचना पाने के मौलिक अधिकार को नकारना है। जबकि लोकतंत्र में सही सूचना पाना लोकतंत्र की बुनियाद को मजबूत करने वाला सीमेंट है।
मीडिया की अलग-अलग भूमिका
वर्तमान में हमे मीडिया के तीन प्रकार देखने को मिल रहे हैं। तीनों अलग अलग भूमिका में दिखाई पड़ते हैं।
1. सरकारी मीडिया: जो समाचार को या तो एकपक्षीय अथवा निरपेक्ष भाव से दिखाता, सुनाता है। हालांकि उसकी प्रस्तुति ज्यादा प्रोफेशनल होती है। लेकिन इस मीडिया को अब सरकारी पक्ष रखने वाले मीडिया के रूप में ही ज्यादा देखा जाता है। इसका महत्व किसी भी मामले में सरकारी पक्ष को जानने की दृष्टि से अहम है।
2. प्राइवेट मीडिया: जिसका पब्लिक परसेप्शन बनाने में बहुत बड़ी भूमिका है। इसमें भी अखबारों की भूमिका अपेक्षाकृत बेहतर और संतुलित है, क्योंकि उनकी कोई वैधानिक जवाबदेही है। प्रेस कानून मुख्य रूप से इसी वर्ग के लिए हैं और संपादक नामक संस्था इस मीडिया में अभी भी काम कर रही है, भले ही उसकी भूमिका पहले जैसी दमदार नहीं रह गई हो। इलेक्ट्राॅनिक और सोशल मीडिया की बाढ़ में भी प्रिंट मीडिया अभी जीवन नौका की भूमिका निभा रहा है। लेकिन राजनीतिक तथा आर्थिक दबावों ने प्रिंट मीडिया के दीर्घजीवी होने तथा इतिहास से लेकर अब तक उसकी महत्वपूर्ण भूमिका के कायम रहने पर प्रश्नचिन्ह खड़े कर िदए हैं।
3. सोशल मीडिया: सोशल मीडिया जिसे लोगों का मीडिया भी कहा जाता है, नया वैश्विक नरेटिव सेट करने, उसे बदलने अथवा भ्रमित करने में अहम भूमिका है, बहुत बड़ी और वैश्विक ताकत बन चुका है। इसने एक आम आदमी को भी अपनी बात सार्वजनिक रूप से कहने का आसान प्लेटफार्म दे दिया है, जो पहले बहत मुश्किल था। या यूं कहे कि अभिव्यक्ति की दुनिया में जिसका कोई नहीं, उसका सोशल मीडिया है यारो। लेकिन कुछ भी कहने, दिखाने और जताने की इसी के साथ फर्जी नरेटिव गढ़ने की प्रवृत्ति को भी हवा मिली है, जिस पर नियंत्रण बहुत ही कठिन है।
आर्टिफिशियल इंटेलिंजेस (एआई) के खतरे
मीडिया में एआई की एंट्री मीडिया के परंपरागत एथिक्स, व्यवस्था और प्रतिमानों को ध्वस्त करने वाली है। अभी यह शुरूआती दौर में है, लेकिन इसका संवैधानिक मूल्यों को सहेजने या फिर उन्हें ध्वस्त करने में कितना उपयोग और कैसा दुरूपयोग होगा, यह अभी कहना मुश्किल है। खासकर भारत जैसे लोकतांत्रिक देशों, जहां जनमत से सरकारें चुनी जाती हैं, बदलती हैं, वहां लोकतांत्रिक तानाशाही अथवा अधिनायकवादी लोकतंत्र को स्थापित करने तथा उसे वैधता प्रदान करने की कुटिल चालों को बढ़ावा मिल सकता है। क्योंकि लोकतंत्र को अपने निहित स्वार्थों के हिसाब से प्रभावित करने तथा इसके लिए फेक न्यूज अथवा फर्जी सूचनाअों को सुनियोजित तरीके से प्रसारित किया जा सकता है ताकि समाज में अधिकाधिक भ्रम फैले। एआई से जो सूचनाएं और खबरे जेनरेट की जाएंगी, उन्हें प्रसारित करना बाकी मीडिया की मजबूरी होगी। सत्ताधीशों और व्यवस्था का भीतरी कटु सत्य सामने आना मुश्किल होगा। समाचार सत्ता के स्तुतिगान और विरोधियों के मृत्युगीत में बदलने का पूरा अंदेशा है। बेशक एआई के कुछ लाभ भी हैं, लेकिन मनुष्य की वृत्ति हर अच्छे काम के सदुपयोग के बजाए उसके दुरूपयोग की ज्यादा होती है। परमाणु शक्ति, मोबाइल फोन और एके 47 जैसे हथियारों के मामले में हम देख चुके हैं। इनका समाज में जितना दुरूपयोग हो सकता है अथवा हो रहा है, उसे देखकर इन के आविष्कर्ताअों को दुख के साथ यह कहना पड़ा कि उन्होंने ये आविष्कार मानवता के कल्याण के लिए किए थे न कि उसके विनाश के लिए। मीडिया की भूमिका मानवता के कल्याण की होनी चाहिए न कि उसके विनाश अथवा अवनति के लिए।
विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत का क्रंमाक हर साल नीचे ही जा रहा है। 2023 के वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत का स्थान 180 देशों की सूची में 161 वां था, जो वर्ष 2022 में 150 वां था। इसका अर्थ यही है कि प्रेस अथवा मीडिया की स्वतंत्रता के मामले में भारत की स्थिति हर साल बदतर होती जा रही है। वह भी तब कि जब देश में कोई घोषित आपातकाल नहीं लगाया गया है।
यह स्थिति तब है कि जब हम विश्व में सबसे ज्यादा आबादी वाले और सबसे बड़े लोकतंत्र का दावा कर रहे हैं। कायदे से प्रेस स्वतंत्रता के मामले में भारत का नाम दुनिया के पहले पांच देशों में होना चाहिए था, लेकिन हो उलटा रहा है। हम 11 स्थान और नीचे चले गए हैं। प्रेस और प्रकारांतर से मीडिया की जुबान का इस तरह कैद होना अंतत: संवैधानिक मूल्यों का ही हनन है और संवैधानिक मूल्य ही भारत राष्ट्र के कायम रहने की गारंटी है। मीडिया के पैरों का हिलना संविधान के पायों का डगमगाना है। हमे यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारा संविधान मानवीय मूल्यों का रक्षक और गारंटीदाता है। मीडिया का निष्पक्ष और निर्भीक आचरण ही उसकी रक्षा और दीर्घजीविता का परिचायक होगा।