मूल्यों को महसूस किया जाता है। मूल्यों को व्यवहार में अपनाया जाता है। मूल्यों को अपनाने की प्रक्रिया व्यक्ति के भीतर घटित होती है। कोई भी बाहरी शक्ति व्यक्ति को करना, बंधुता, अहिंसा, न्याय, व्यक्ति की स्वतंत्रता, विविधता में विश्वास करना नहीं सिखा सकती है। व्यक्ति अपनी चेतना और अपने विश्वास से ही मूल्यों का प्रयोग करना सीखता है।

समाज के मानक, रीति-रिवाज़ और परम्पराएं उसके मूल्यों का प्रतिबिम्ब होते हैं। जिस तरह के मूल्य अंगीकार किए जाएंगे, उसी तरह की सोच, नजरिया और व्यवहार किया जाएगा। रीति-रिवाज और परम्पराएं व्यावहारिक तत्व हैं। इन्हें सामने से देखा जा सकता है। इन पर तर्क किए जा सकते हैं। लेकिन मूल्य व्यक्ति और समाज के मानस के भीतर स्थापित होते हैं। इन्हें महसूस किया जा सकता है।

किसी व्यक्ति में करुणा है, इसके लिए उसे कोई अनुष्ठान करने की जरूरत नहीं पड़ती। उसके व्यवहार से, उसके बोलने के तरीकों, उसके शब्दों से किसी को भी यह भान हो जाएगा कि वह ‘करुणा’ को अंगीकार करता है।कोई व्यक्ति ‘न्याय’ को एक मूल्य के रूप में आत्मसात करता है, तो उसे यह साबित नहीं करना पड़ता कि उसनें ‘न्याय’ के मूल्य को अपनाया है। उसके व्यवहार, उसके नेतृत्व करने और निर्णय लेने के तरीकों से यह सन्देश मिलते ही हैं, वह न्याय के मूल्य को अपनाता है।

कोई व्यक्ति एक जीवन मूल्य के रूप में ‘लोकतंत्र’ में विश्वास करता है, तो उसे अपने लोकतांत्रिक विश्वास की घोषणा करने की आवश्यकता नहीं होती है। अपने परिवार में, अपने पेशेवर समूह में, अपने समुदाय में, अपने दफ्तर में वह कैसे निर्णय लेता है? कैसे दूसरों के मत को सुनता और स्वीकार करता है, इनसे ही व्यक्ति के विश्वास का सन्देश मिल जाता है।
इसी तरह ‘बंधुता’ में विश्वास रखने वाला व्यक्ति वही तो होता है, जो किसी भी आधार पर छुआछूत नहीं करता है, विविध सम्प्रदायों को हीन भावना से नहीं देखता है और बहुलता यानी अलग-अलग त्यौहार, अलग-अलग धर्म, सांस्कृतिक बहुलता को जानता और स्वीकार करता है।

गरिमा क्या है? किसी भी व्यक्ति के अस्तित्व को नहीं नकारना, उनके मन या विचारों पर आघात न करना और हर परिस्थिति में अपने और दूसरों के सम्मान के प्रति सजग रहना। इसका मतलब है कि ‘मूलभूत मूल्यों’ को अपनाने के लिए किन्हीं भी बाहरी अनुष्ठानों या वस्तु या तर्क की आवश्यकता नहीं होती है। यह अपने स्वयं की चेतना का विषय होता है। बस!  

संवैधानिक मूल्य और संवैधानिक अधिकार भारतीय संविधान में संवैधानिक मूल्य और संवैधानिक अधिकार दोनों को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। संविधान निर्मााताओं ने संविधान को एक कानूनी दस्तावेज न मानते हुए एक ऐसी इकाई माना है जो एक देश के रूप में भारत और उसके नागरिकों के जीवन को मार्ग दिखाती है।

संवैधानिक मूल्य: संवैधानिक मूल्यों का वर्णन प्रमुख रूप से भारतीय संविधान की उद्देशिका में किया गया है। ये मूल्य हैं: स्वतंत्रता, समता और समानता, बंधुता, संप्रभुता, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष एवं लोकतंत्र। ये मूल्य समूचे संविधान का मार्गदर्शन करने वाले मूल्य हैं। इन्हें भारतीय संविधान की आत्मा कहा जा सकता है।

संवैधानिक अधिकार: संवैधानिक अधिकार वे मौलिक अधिकार हैं जो संविधान के अनुच्छेद 12 से 35 तक वर्णित हैं। ये भारतीय नागरिकों को प्राप्त वे अधिकार हैं जिन्हें सामान्य परिस्थितियों में सीमित नहीं किया जा सकता। इनकी रक्षा का दायित्व देश के सर्वोच्च न्यायालय का है। प्रमुख संवैधानिक अधिकार हैं: समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के विरुद्ध अधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार, सांस्कृतिक और शैक्षणिक अधिकार तथा संवैधानिक उपचारों का अधिकार।

संवैधानिक अधिकारों और संवैधानिक मूल्यों में अंतर

संवैधानिक अधिकार वे अधिकार हैं, जो नागरिकों को बेहतर जीवन जीने के लिए समाज, राज्य व्यवस्था और अन्य व्यक्तियों द्वारा प्रदान किए जाते हैं जबकि संवैधानिक मूल्य व्यक्ति और समाज के वे अहसास और भावनाएं हैं, जिनसे अधिकारों को उनका स्वरूप मिलता है। अधिकारों के साथ तर्क, मानक और परिस्थितियां जुड़ी होती हैं, परंतु जब मूल्यों को अपनाया जाता है, तब उनका व्यवहार सार्वभौमिक होता है। कोई भी अधिकार तब तक पूर्ण नहीं होता है, जब तक कि उसमें मूल्यों का भाव शामिल न हो।

उदाहरण के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा हर बच्चे का अधिकार है लेकिन जब उनके साथ अच्छा व्यवहार होगा, उनके सम्मान को ध्यान में रखते हुए व्यवहार किया जाएगा, तब ‘शिक्षा के अधिकार’ में ‘गरिमा और समानता’ के मूल्य का समावेश होगा। अस्पतालों में मरीजों की मदद के लिए चिकित्सक और दवाएं होना भर पर्याप्त नहीं है, जब तक उनके साथ स्नेहपूर्ण और सहानुभूति भरा व्यवहार न हो, तब तक अधिकार अधूरा है।

जहां तक मूल्यों का प्रश्न है उनका हनन नहीं होता, उनका ह्रास होता है। हां, संवैधानिक अधिकारों का हनन या उल्लंघन हो सकता है, होता है। जबिक संवैधानिक मूल्यों को आत्मसात किया जाता है, उनको अंगीकार किया जाता है। संवैधानिक मूल्यों को अपनाना किसी व्यक्ति या संस्था की निजी पहल होती है, वहीं अधिकारों के साथ अन्य व्यक्ति, संस्था या सरकार की पहल जुड़ी होती है।

रीति-रिवाज और परम्पराएं समूह और समाज बनाते हैं, लेकिन व्यक्ति अपने मूल्यों के आधार पर यह तय कर सकता है कि उसे उन रीति-रिवाजों या परंपराओं में विश्वास करना है या नहीं? अपने मूल्यों के आधार पर वह ऐसे रीति-रिवाजों और परंपराओं में बदलाव की पहल भी करता है, जो मूल्यों के अनुरूप नहीं होते हैं। उदाहरण के लिए सती प्रथा, बहुत-पत्नी प्रथा, दहेज़ प्रथा को नकारना। स्त्रियों को कमतर आंकते हुए कन्या भ्रूण ह्त्या सरीखे रीतियों को समाप्त करना या जाति के आधार पर असभ्य व्यवहार करना।

मूल्य यानी क्या?

  • मूल्य वास्तव में जीवन शैली के मानकों के रूप में समझे जा सकते हैं। कोई भी व्यक्ति अपना जीवन किन सिद्धांतों के आधार पर जीता है, यह उसके ‘मूल्यों’ से ही तय होता है। चूंकि इंसान एक समूह, समुदाय और समाज का हिस्सा होता है, अतः इन सिद्धांतों का महत्व बहुत बढ़ जाता है। मूल्यों से ही तय होता है कि वह दूसरे व्यक्ति को किस दृष्टि से देखता है और किस तरह का व्यवहार करता है। दूसरे व्यक्ति या व्यक्तिओं के समूह के साथ उसका रिश्ता कैसा होगा, यह व्यक्ति के मूल्यों से निर्धारित होता है और कोई भी समूह या समुदाय किसी भी व्यक्ति के साथ किस तरह का व्यवहार करेगा, यह समूह या समुदाय के व्यवहार से तय होता है। मानवीय मूल्यों का स्पष्ट अर्थ यह है कि व्यक्ति की महत्ता को स्थापित करना और ऐसे समाज की स्थापना करना, जिसमें भेदभाव, शोषण, उपेक्षा, हिंसा और बहिष्कार न हो। मूल्य किसी भी व्यक्ति को अपना निर्णय लेने में मदद करते हैं।
  • पश्चिमी सन्दर्भ में वैल्यू (Value) शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के ‘Valere’ शब्द से मानी जाती है जो किसी वस्तु की कीमत या उपयोगिता को वक्त करता है। लेकिन मानवीय सभ्यता के सन्दर्भ में मूल्य का अर्थ बहुत गहरा और व्यापक होता है।
  • भारतीय धर्म ग्रंथों मे मूल्यों के लिए ‘शील’ शब्द अनेक स्थानों पर प्रयुक्त होता है। यह शब्द ‘मूल्य’ का पर्याय नही बल्कि ‘समीपी’ शब्द है। गौतम बुद्ध ने भी माना है कि विद्या महत्वपूर्ण है, लेकिन शील के बिना विद्या कल्याणकारी नहीं है।
  • वस्तुतः मूल्य एक प्रकार का मानवीय मानक है। जिनसे यह तय होता है, कि उसकी स्वयं की प्रतिबद्धतायें क्या हैं? मनुष्य किसी वस्तु, क्रिया, विचार को अपनाने से पहले यह निर्णय करता है कि वह उसे अपनाए या त्याग दे। जब ऐसा विचार व्यक्ति के मन में निर्णयात्मक ढंग से आता है तो वह मूल्य कहलाता है।”
  • जान जे. काने के अनुसार मूल्य वे आदर्श, विश्वास या मानक हैं, जिन्हें समाज या समाज के अधिकांश सदस्य ग्रहण किए हुए होते हैं।
  • राधाकृष्ण मुकर्जी के अनुसार मूल्य समाज द्वारा अनुमोदित उन इच्छाओं और लक्ष्यों के रूप में परिभाषित किए जा सकते हैं, जिन्हें अनुबंध, अधिगम या समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा आत्मसात किया जाता है और जो व्यक्तिगत मानकों तथा आकांक्षाओं के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं।
    सामाजिक मानक और रूढ़ियाँ
  • सामाजिक मानक वे नियम और व्यावहारिक दिशानिर्देश होते हैं, जिन्हें कोई भी समुदाय/पंथ समूह अपने लिए निर्धारित करता है। समाज और समुदाय के व्यवहारों को नियंत्रित करने के लिए सामाजिक मानक बनाए जाते हैं।
  • ये वे नियम होते हैं जिन्हें समाज में व्यापक मान्यता प्राप्त होती है और आमतौर पर लोग इनका पालन करने के लिए तैयार होते हैं।
  • सामाजिक मानको के मूल में धर्म और धर्म से उत्पन्न होने वाली रूढ़ियाँ और प्रथाएं भी होती हैं। यह भी कहा जा सकता है कि सभी सामाजिक मानक सकारात्मक या न्यायपरक नहीं होते हैं।
  • सती प्रथा, बाल विवाह, विधवा विवाह, जाति व्यवस्था, खान पान, पूजा पद्धतियाँ भी सामाजिक मानकों से जुडी होती हैं और दया, करुणा, सत्य बोलना सरीखे नैतिक मूल्य भी सामाजिक मानक ही माने जाते हैं; लेकिन सभी सामाजिक मानकों पर सामाजिक विसंगतियों का गहरा प्रभाव पड़ता है।
  • उदाहरण के लिए किसी व्यक्ति से छुआछूत करते समय लोग दया और करुणा के सामाजिक मानक को महत्व नहीं देते हैं। इसी तरह नैतिक मूल्य बताते हैं कि बड़ों का आदर करना चाहिए, लेकिन अगर कोई व्यक्ति निम्न जाति का है, तो उसका आदर नहीं किया जाता है।
  • सामाजिक मानकों का विकास अचानक नहीं होता है। समाज के भीतर घट रही घटनाओं, सत्ता व्यवस्था और आपसी संबंधों से सामाजिक मानकों का विकास होता है।

रूढ़ियाँ यानी क्या?

  • रूढ़ियों का मतलब वे संगठित व्यवहार होते हैं, जो लम्बे समय से समाज में प्रचलित होते हैं। वे व्यवहार किन परिस्थितियों में किस उद्देश्य से अपनाए गए, इन प्रश्नों पर अकसर विचार नहीं किया जाता है।
  • सामाजिक व्यवस्था को नियंत्रित करने, उसमें एकरूपता लाने और सत्ता संबंधों को परिभाषित करने में रूढ़ियों की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती है। ज्यादातर रूढ़ियों के पीछे कोई तर्क और मानवीय मूल्य नहीं होता है।
  • सती प्रथा, दहेज़ प्रथा, अंतरजातीय विवाह और विधवा विवाह पर प्रतिबन्ध, महिलायों की सामाजिक स्थिति, जाति के आधार पर छुआछूत ऐसी ही रूढ़ियाँ हैं, जिन्हें धार्मिक नियमों के नाम पर स्थापित किया गया है। हांलाकि इनके मूल में कोई तर्क या मानवीय मूल्य नज़र नहीं आते हैं।

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