किशोरावस्था में अपराध और दो दशक की जेल
पिछले दिनों आगरा जेल में में बंद 13 लोगों ने अपनी आजादी और सम्मान की रक्षा के लिए सर्वोच्च न्यायालय में गुहार लगाई। इन कैदियों के बारे में यह सिद्ध हो चुका था कि ये अपराध घटित होते समय नाबालिग थे, लेकिन इसके बावजूद इन्हें जेल से रिहा नहीं किया जा रहा था। इनमें से कुछ तो 22 वर्षों से जेल में बंद थे।
संविधान संवाद टीम
‘जीवन में संविधान’ पुस्तक से:
पिछले दिनों आगरा जेल में में बंद 13 लोगों ने अपनी आजादी और सम्मान की रक्षा के लिए सर्वोच्च न्यायालय में गुहार लगाई। इन कैदियों के बारे में यह सिद्ध हो चुका था कि ये अपराध घटित होते समय नाबालिग थे, लेकिन इसके बावजूद इन्हें जेल से रिहा नहीं किया जा रहा था। इनमें से कुछ तो 22 वर्षों से जेल में बंद थे।
आखिरकार सर्वोच्च न्यायालय ने इन्हें तत्काल जमानत पर रिहा करने का आदेश दिया, लेकिन जेल अधिकारियों ने उसके बावजूद इन्हें रिहा करने में चार दिन का वक्त ले लिया। दरअसल अधिवक्ता ऋषि मल्होत्रा ने एक रिट याचिका दायर करके उत्तर प्रदेश की न्याय व्यवस्था के दुखद हालात को लेकर सवाल ख़ड़े किए। उन्होंने कहा कि कई कैदियों को अपने नाबालिग होने का दावा प्रमाणित करने के बावजूद जेल में कैद रहना पड़ रहा है।
कानूनी प्रक्रिया के मुताबिक कोई आरोपित न्यायिक परीक्षण के किसी भी दौर में या दोषी ठहराए जाने अथवा सजा सुनाए जाने के पश्चात भी किसी भी समय यह दावा कर सकता है कि वह नाबालिग है। यदि उसका दावा सच पाया जाता है तो अदालत को उसका दोष बरकरार रखते हुए उसकी सजा को निरस्त करके मामला किशोर न्याय बोर्ड के पास भेज देना चाहिए। कानूनी प्रावधानों के अनुसार किसी नाबालिग अपराधी को अधिकतम तीन वर्ष की सजा सुनाई जा सकती है।
याचिका में कहा गया कि किशोर न्याय बोर्ड ने स्पष्ट रूप से यह निर्णय दिया था कि अपराध घटित होते समय इन 13 कैदियों के किशोर होने के स्पष्ट और ठोस प्रमाण थे, इसके बावजूद उनकी रिहाई के लिए कोई कदम नहीं उठाए गए। उनकी मुसीबत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि ये कैदी आगरा की केंद्रीय जेल में 14 से 22 वर्ष की सजा पहले ही भुगत चुके हैं।
मल्होत्रा ने कहा कि इन कैदियों को कठोर अपराधियों के बीच जेल की सजा काटनी पड़ी है। यह बात किशोर न्याय अधिनियम के उद्देश्य और लक्ष्यों को पूरी तरह नष्ट करती है। याचिका में कहा गया कि अपने किशोर होने का आधार देर से प्रस्तुत करने का यह अर्थ नहीं है कि उन्हें वर्षों तक जेल की सलाखों के पीछे रखा जाए। यह दावा तो सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अगले चरण की अपील के समय भी किया जा सकता है।
याचिका में सर्वोच्च न्यायालय के 2012 के एक निर्णय का हवाला देते हुए कहा गया कि किशोर होने का दावा देर से पेश करने के आधार पर ऐसे दावे खारिज नहीं किए जा सकते। यह दावा अगर परीक्षण अदालत में नहीं किया गया तो इसे बाद में अपीलीय अदालत में पेश किया जा सकता है। यहां तक कि अगर इसे इन दोनों अदालतों के समक्ष पेश नहीं किया गया तो इसे पहली बार, सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष भी पेश किया जा सकता है।
देर से ही सही, आखिरकार इन कैदियों को सबसे बड़ी अदालत के हस्तक्षेप के बाद राहत मिली। देश की जेलों में ऐसे कितने ही कैदी बंद होंगे जो शायद अपने इस अधिकार से अवगत भी नहीं होंगे। देश में विचाराधीन कैदियों की भी यही स्थिति है, जो सजा से अधिक अवधि से जेल में बंद हैं। ऐसा क्यों है? क्या अदालतों में न्यायाधीशों की कमी भी इसकी वजह है जिससे सुनवाई प्रभावित होती है? हमारा संविधान इस बारे में क्या कहता है? इस मामले में 13 कैदियों के अपराध के समय नाबालिग होने की बात साबित होने के बाद भी दो दशक से अधिक समय तक जेल में बिताने की घटना ने सर्वोच्च न्यायालय को यह टिप्पणी करने पर मजबूर किया कि जेल अधिकारी कैदियों को जमानत मिलने के बाद भी उन्हें छोड़ने में वक्त लगाते हैं।
इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कैदियों को जमानत दिए जाने के बाद भी आगरा जेल के अधिकारियों ने उन्हें छोड़ने में चार दिन का वक्त लगा दिया। यह कोई इकलौता मामला नहीं था।
इससे पहले इंदौर केंद्रीय जेल के अधिकारियों ने कॉमेडियन मुनव्वर फारुखी को सर्वोच्च न्यायालय से जमानत मिलने के बाद भी रिहा करने में अनावश्यक देरी की थी। इसी प्रकार पिंजरा तोड़ आंदोलन की कार्यकर्ता देवांगना कलिता और नताशा नरवाल तथा जामिया मिलिया इस्लामिया के छात्र आसिफ इकबाल तन्हा को दिल्ली उच्च न्यायालय से जमानत मिलने के बाद रिहा करने में दो दिन लगा दिए गए।
इन बातों को ध्यान में रखते हुए ही देश के सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश एन वी रमन्ना ने कहा कि अदालतों से जमानत पा चुके बल्कि सर्वोच्च न्यायालय से भी जमानत पा चुके लोगों की रिहाई में अत्यधिक देर हो रही है। जेल के अधिकारी उनकी रिहाई में कई दिन का समय ले लेते हैं।
एक विशेष पीठ की अध्यक्षता कर रहे देश के प्रधान न्यायाधीश ने जेल अधिकारियों के प्रति अदालत की नाराजगी जाहिर करते हुए कहा कि वे जमानत के आदेश की मूल प्रति हाथों-हाथ प्राप्त करने पर जोर देते हैं और इस बात की अनदेखी कर देते हैं कि इससे लोगों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता प्रभावित होती है। उन्होंने मौखिक टिप्पणी में कहा, सूचना और संचार प्रौद्योगिकी के इस युग में हम अभी भी आदेशों के संचार के लिए आसमान में कबूतरों की बाट जोहते हैं।" जाहिर है उनका इशारा संचार के पुराने पड़ गए तरीकों की ओर था।
ऐसे में न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव और ए एस बोपन्ना की मौजूदगी में उन्होंने ‘फास्टर’ नामक नई योजना शुरू करने की घोषणा की जिसका पूरा नाम है ‘फास्ट एंड सिक्योर ट्रांसमिशन ऑफ इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड्स’। इसके जरिये जमानत के आदेश तथा अन्य आदेशों को सुरक्षित इलेक्ट्रॉनिक तरीके से जेल अधिकारियों, जिला अदालतों तथा उच्च न्यायालयों तक पहुंचाया जा सकेगा।
जब सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि आदेश अदालत की वेबसाइट पर अपलोड किए जाते हैं तो न्यायमूर्ति राव ने कहा कि यह योजना इसलिए लाई गई है ताकि आदेशों को सुरक्षित अंदाज में एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचाया जा सके।
पीठ ने सभी राज्य सरकारों से भी कहा कि वे जेलों में इंटरनेट संचार के बारे में रिपोर्ट पेश करें ताकि तकनीकी दिक्कतों से बचा जा सके।