दोपहिया पर प्रसव
संविधान में लिखी इबारत और सामाजिक हकीकत के बीच बहुत बड़ी खाई है। संविधान की नजर में भले ही सभी नागरिक समान हों लेकिन समाज उनके शैक्षणिक और सामाजिक स्तर के आधार पर आज भी उनमें भेद करता है। प्रसव की पूरी प्रक्रिया जोखिम से भरी होती है। इस दौरान एक नहीं बल्कि कई जोखिम रहते हैं, लेकिन महिलाएं यह जोखिम उठाती हैं ताकि मानव जीवन का चक्र चलता रहे। इसके बावजूद उन्हें भेदभाव का सामना करना पड़ता है।
संविधान संवाद टीम
‘जीवन में संविधान’ पुस्तक से:
यह घटना दमोह जिले के हटा सिविल अस्पताल की है जहां एक गर्भवती महिला को अस्पताल के चक्कर काटने के बाद मार्ग में ही प्रसव हो गया। बटियागढ़ ब्लॉक के रोसरा गांव की रहने वाली सपना बाई को शाम सात बजे प्रसव का दर्द शुरू हुआ। वे अपने परिजनों के साथ पांच किलोमीटर का सफर तय करके सिविल अस्पताल पहुंचीं।
अस्पताल में ड्यूटी पर तैनात डॉक्टर विदेश शर्मा ने उन्हें महिला वार्ड में भेज दिया। वहां जाने पर तैनात नर्स एस बानो और प्रियंका ने सपना बाई से कहा कि उनका प्रसव बटियागढ़ स्वास्थ्य केंद्र में होगा इसलिए वे वहां जाएं।
थोड़ी देर तक परेशान होने के बाद जब प्रसूता अपने पिता के साथ बाइक पर सवार होकर घर जा रही थीं तभी रास्ते में ही उन्होंने शिशु को जन्म दे दिया। सपना के पिता मुलु सिंह ने बताया कि डिलिवरी के दौरान बच्चा सड़क पर गिर गया था। मार्ग में प्रसव होने तथा किसी योग्य पेशेवर के साथ न होने के कारण जच्चा-बच्चा दोनों की हालत खराब हो गई।
दोनों को गंभीर हालत में पुन: सिविल अस्पताल लाया गया, जहां से बाद में उन्हें जिला अस्पताल भेज दिया गया। इस बारे में अस्पताल की नर्सों ने कहा कि महिला अपने पेट में छह माह का गर्भ होने की बात कह रही थी। उसे कुछ देर रुकने को कहा गया, लेकिन वह बिना किसी को कुछ बताए अस्पताल से घर चली गई।
उक्त घटना हमें यह सोचने पर विवश करती है कि क्या चिकित्सा और स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र के पेशेवर अपने काम के प्रति पूरी तरह गंभीर हैं या वे केवल खानापूर्ति कर रहे हैं?
क्या मरीजों के साथ उनका शैक्षणिक और सामाजिक स्तर देखकर व्यवहार किया जाएगा? क्या ऐसा करना उचित है? सोचिए यदि सपना बाई की जगह किसी उच्च मध्यवर्ग के परिवार की कोई उच्च शिक्षित महिला होती तो भी उसके साथ ऐसा ही व्यवहार किया जाता?