संविधान और जवाहरलाल नेहरू -1
संविधान निर्माण में नेहरू की भूमिका
भारतीय संविधान के निर्माण में उस दौर के तमाम अध्ययनशील और देशहित में सोचने वाले नेताओं एवं विद्वानों का योगदान था। देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की भी देश के एकीकरण और संविधान के अहम प्रावधानों के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका थी। बात चाहे रियासतों के एकीकरण की हो, सत्ता के लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण की या लक्ष्य संबंधी प्रस्तावों के जरिये संविधान को उसका आधारभूत ढांचा मुहैया कराने की, नेहरू की भूमिका हर जगह सामने आती है।
सचिन कुमार जैन
संविधान शोधार्थी एवं अशोका फेलोशिप प्राप्त सामाजिक कार्यकर्ता। ‘संविधान की विकास गाथा’, ‘संविधान और हम’ सहित 65 से अधिक पुस्तक-पुस्तिकाओं का लेखन।
भारतीय संविधान को अगर एक जीवित इकाई माना जाए तो यह कहना गलत नहीं होगा कि डॉ. बी.आर. अम्बेडकर ने जहां संविधान को जीवन प्रदान किया वहीं पंडित जवाहर लाल नेहरू ने उसे चरित्र प्रदान करने में अहम भूमिका निभाई। उन्होंने सिलसिलेवार ढंग से ऐसे काम किए जो बार-बार याद दिलाते हैं कि भारत के संविधान में जिन मूल्यों, जिन अधिकारों और जिस नागरिक बोध वाले राष्ट्र का सपना देखा गया था उनकी ओर पहलकदमी करने में नेहरू की अहम भूमिका थी।
जीवन में यदि स्वप्न और लक्ष्य न हों, प्रतीक न हों तो उन्हें हासिल करने की ललक भी नहीं होगी। यही कारण है कि नेहरू का पूर्ण स्वराज का उद्घोष ही भविष्य के भारत को संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न मुल्क बनने की राह दिखाने वाला साबित हुआ। वर्ष 1931 के कराची प्रस्ताव ने भारत में मूलभूत अधिकारों के साथ सामाजिक-आर्थिक कार्यक्रमों की रूपरेखा प्रस्तुत की। इस प्रस्ताव की नींव में भी पंडित नेहरू थे।
मोतीलाल नेहरू के नेतृत्व में भारत के संविधान का प्रारूप बनाने के लिए जिस नेहरू समिति का गठन किया गया उसमें जवाहर लाल नेहरू भी शामिल थे। उन्होंने अपने पिता मोतीलाल नेहरू के भारत के ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन उपनिवेश के रूप में रहने संबंधी प्रस्ताव से असहमति दर्ज की थी।
कराची प्रस्ताव पारित होते समय कांग्रेस की अध्यक्षता सरदार वल्लभ भाई पटेल के पास थी तो जिस समय राष्ट्रीय योजना समिति का गठन किया गया उस समय कांग्रेस की अध्यक्षता सुभाष चंद्र बोस के पास थी। उन्होंने जवाहर लाल नेहरू को इसका अध्यक्ष बनाया। इसी योजना समिति की रूपरेखा पर आगे चलकर योजना आयोग का गठन किया गया।
जब भारत का संविधान तैयार हुआ तब उसके उद्देश्यों का घोषणा पत्र भी नेहरू ने पेश किया जबकि मसौदा समिति का अध्यक्ष डॉ. अम्बेडकर को बनाया गया। वह पूरा दौर भारतीय राजनीति के स्वर्ण काल को दर्शाता है। उस दौर के नेता अभूतपूर्व ढंग से एक दूसरे के पूरक के रूप में काम करते थे और वैचारिक असहमतियों को रचनात्मक ढंग से दूर किया करते थे।
तत्कालीन शासन सुधार और नेहरू की भूमिका
पंडित जवाहर लाल नेहरू भारत के राजनीतिक दलों द्वारा संविधान का प्रारूप बनाने वाली समिति के सदस्य थे। नवंबर 1927 में ब्रिटिश संसद ने भारत शासन अधिनियम 1919 की समीक्षा और संवैधानिक सुधारों के लिए साइमन आयोग का गठन किया। इस आयोग में कोई भारतीय सदस्य नहीं था। इसे लेकर भारत में गहरी प्रतिक्रिया हुई। भारत के राष्ट्रीय आंदोलनों में सक्रिय संगठनों ने इसे एक चुनौती के रूप में स्वीकार किया। ब्रिटिश सरकार को यह अहसास था कि भारत में साइमन कमीशन के स्वरूप को सकारात्मक नज़रिये से नहीं देखा जा रहा है, किन्तु फिर भी उसने इस स्वरूप में बदलाव नहीं किया। इसके साथ ही उसने भारतीय समूहों को खुद का संविधान बनाने की चुनौती भी दी।
दिसंबर 1927 में मद्रास में हुए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अधिवेशन में दो अहम निर्णय लिए गये। पहला – साइमन कमीशन के साथ असहयोग किया जाएगा और दूसरा – भारत के संविधान का प्रारूप बनाने के लिए सभी दलों की संयुक्त सभा का गठन किया जाएगा। इस सभा में ऑल इंडिया लिबरल फेडरेशन, ऑल इंडिया मुस्लिम लीग, सिख सेन्ट्रल लीग और अन्य समूह शामिल हुए। इस सभा ने 10 मई 1928 को प्रारूप बनाने के लिए एक समिति का निर्माण किया। इस समिति में मोतीलाल नेहरू (अध्यक्ष), सर अली इमाम, तेज बहादुर सप्रू और सुभाष चंद्र बोस शामिल थे। पंडित जवाहर लाल नेहरू इस समिति के सचिव बने।
इस समिति को भारत में सांप्रदायिकता की समस्या और डोमिनियन स्थिति को ध्यान में रखते हुए संविधान का प्रारूप बनाना था। समिति ने अगस्त 1929 में ऑल पार्टीज़ कांफ्रेंस को अपनी रिपोर्ट सौंप दी।
नेहरू समिति की रिपोर्ट
इस रिपोर्ट में 22 अध्याय और 87 अनुच्छेद थे। इसके पहले ही अनुच्छेद में भारत के लिए डोमिनियन स्थिति (यानी ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर स्वतंत्र राष्ट्र) का उल्लेख किया गया। इसमें लिखा गया था कि “राष्ट्रों के समुदाय (जिसे ब्रिटिश साम्राज्य के रूप में जाना जाता है, जिसमें कनाडा, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, दक्षिण अफ्रीका और स्वतंत्र आयरिश राज्य शामिल हैं) में भारत की भी वही संवैधानिक स्थिति होगी, इसकी व्यवस्था संसदीय होगी, जिसे शांति, व्यवस्था और सुशासन के लिए क़ानून बनाने की शक्तियां होंगी। इसे भारतीय राष्ट्रमंडल के रूप में जाना जाएगा।”
नेहरू समिति ने संसदीय व्यवस्था में 200 सदस्यों वाली सीनेट (जिनका चुनाव प्रांतीय सभा द्वारा किया जाता) और 500 सदस्यीय हाउस ऑफ रिप्रजेन्टेटिव स्थापित करने की बात कही थी। 21 वर्ष की आयु हासिल कर चुके हर व्यक्ति को मतदान का अधिकार दिया गया। कहा गया कि प्रधानमंत्री की नियुक्ति गवर्नर जनरल द्वारा की जाएगी; जबकि मंत्रियों की नियुक्ति प्रधानमंत्री के परामर्श पर गवर्नर जनरल द्वारा की जाएगी। संविधान के इस प्रारूप में मूलभूत अधिकारों, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, क़ानून के समक्ष समानता, आजीविका, धर्म और विचार की स्वतंत्रता के प्रावधान किए गये। साथ ही इस प्रारूप में निःशुल्क और बुनियादी शिक्षा के अधिकार और संसदीय प्रणाली को स्थान दिया गया था। अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और अधिकारों के तहत मुस्लिमों के लिए विधायिका में आरक्षण की व्यवस्था की बात कही गयी थी।
पूर्ण स्वराज की मांग
नेहरू रिपोर्ट नकार दी गयी थी। वर्ष 1929 में लॉर्ड इरविन द्वारा भारत को डोमिनियन स्थिति प्रदान करने की घोषणा की गयी। इस घोषणा को भारत में सकारात्मक नज़रिये से देखा गया, लेकिन ब्रिटेन में इस पर गहरी नकारात्मक प्रतिक्रिया हुई, यानी ब्रिटिश साम्राज्य की सरकार भारत को डोमिनियन स्थिति देने के लिए तैयार नहीं थी। तब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज्य की मांग को लेकर अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी।
नेहरू कांग्रेस के उन नेताओं में शुमार थे, जिन्होंने सबसे पहले यह बात कही थी कि कांग्रेस को स्वतंत्रता के संबंध में स्पष्ट निर्णय लेना चाहिए और ब्रिटिश साम्राज्य की सरकार से हर तरह के रिश्ते तोड़ लेने चाहिए। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के वर्ष 1927 के मद्रास अधिवेशन में इस संबंध में प्रस्ताव भी पारित किया था।
29 दिसम्बर 1929 को कांग्रेस का अध्यक्ष बनने के बाद पंडित नेहरू ने कहा, “मुझे स्पष्ट स्वीकार कर लेना चाहिए कि मैं एक समाजवादी और रिपब्लिकन हूं। पंडित नेहरू ने लाहौर अधिवेशन में अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा था कि मैं खुलकर स्वीकार करता हूं कि मैं समाजवादी और गणतंत्रवादी (रिपब्लिकन) हूं। मैं राजाओं और राजकुमारों में विश्वास नहीं रखता हूं, न ही मैं ऐसी व्यवस्था में विश्वास रखता हूं जो उद्योगों के आधुनिक राजा-महराजा का उत्पादन करती है। जो पुराने राजों-महाराजों से अधिक जनता की जिंदगी और भाग्य को नियंत्रित करते हैं और जो पुराने राजाओं-महाराजाओं और सामंतों के लूटपाट और शोषण का तरीका अख्तियार करते हैं।”
पंडित नेहरू ने दिसंबर 1929 में लाहौर अधिवेशन में ‘पूर्ण स्वराज’ की मांग रखी। कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में निर्णय लिया गया:
‘‘हमें लगता हैं कि भारतीयों को भी दुनिया के अन्य लोगों की तरह स्वतंत्र जीवन जीने का हक है और अपने जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने का अधिकार है। हमें लगता है कि कोई भी सरकार, जो इन अधिकारों का हनन करती हैं उसे हटा देना चाहिए। भारत में ब्रिटिश सरकार ने न केवल भारतीयों की स्वतंत्रता छीनी है बल्कि बल्कि देश का आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और अध्यात्मिक शोषण भी किया है। इस कारण भारत को पूर्ण स्वराज और स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। भारत का काफी आर्थिक शोषण हो चुका है, यहां के लोगों की “आय” उन पर लगाये गये “कर” की तुलना में बहुत कम हैं। इस पर 20 प्रतिशत “कर” और बढ़ा दिया गया है और 3 प्रतिशत “कर” नमक कर के कारण बढ़ गया है जिसके कारण गरीबों पर आर्थिक बोझ बढ़ चुका है। ग्रामीण उद्योग पूरी तरह से बर्बाद हो चुके हैं। सीमा शुल्क और मुद्रा विनिमय के कारण कृषकों पर आर्थिक बोझ बढ़ गया है, ब्रिटेन में बने सामान भारी मात्रा में आयात किए जा रहे हैं। सीमा शुल्क की व्यवस्था ब्रिटिश उत्पादकों के पक्ष में बनाई गयी है, जबकि जनता पर इसका कर बढ़ाया जा रहा है। इस व्यवस्था से प्राप्त होने वाले राजस्व का उपयोग अपव्ययी प्रशासन को चलाने में किया जा रहा है।
भारत राजनीतिक रूप से इतना कमजोर कभी नहीं हुआ, जितना ब्रिटिश सरकार के दौरान हुआ है। जनता को किसी भी तरह का राजनीतिक अधिकार नहीं दिया गया है। हमारे सबसे उच्च अधिकारी भी विदेशियों के सामने झुकते है। विचारों की अभिव्यक्ति और स्वतंत्रता का अधिकार भी नहीं दिया जा रहा, वो भारतीय नागरिक जो बाहर रह रहे हैं उन्हें भी देश में लौटने की स्वतंत्रता नही मिल रही है। सभी तरह की प्रशासनिक योग्यताओं को दबाया जा रहा हैं एवं गांवों को ग्रामीण ऑफिस और बाबुओं के हवाले किया जा रहा है।
देश को सांस्कृतिक रूप से बर्बाद करने के लिए शिक्षा के क्षेत्र में कोई विस्तार नहीं दिया जा रहा, आध्यात्मिक रूप से कमजोर किया जा रहा है। देश की सुरक्षा के विषय में ब्रिटिश सरकार का इस तरह से हस्तक्षेप है जैसे हम विदेशी आक्रांताओं, चोर-डाकू से खुद अपने और अपने परिवार की रक्षा नहीं कर सकते है। हम मानते हैं कि इस तरह के शासन को बर्दाश्त करना भगवान और इंसान दोनों की नजर में अपराध हैं, और ये आगे चलकर देश को और ज्यादा तबाह कर सकता है। हम मानते हैं कि देश को अहिंसात्मक तरीके से ही स्वतंत्र करवाया जा सकता हैं। इसलिए हम खुद को ब्रिटिश सरकार के तंत्र से अलग करते हुए असहयोग आंदोलन की घोषणा करते हैं, जिसमें टैक्स भी नही भरे जायेंगे। हम मानते हैं कि यदि हमने टैक्स भरना बंद कर दिया तो इस तरह के अमानवीय शासन का जल्द ही अंत जल्द हो जायेगा, और इसी क्रम में हम पूर्ण स्वराज का आह्वान करते हैं।”
इकतीस दिसंबर 1929 को जवाहर लाल नेहरू ने लाहौर में रावी नदी के तट पर भारत का ध्वज लहरा कर भारत के लोगों से आह्वान किया गया कि वे 26 जनवरी 1930 को भारत का स्वतंत्रता दिवस मनाएं।
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