चिकित्सा का पेशा और जाति का जहर
संविधान भले ही समता और समानता की बात कहता है लेकिन आज भी समाज में ऐसे लोग मौजूद हैं जो जाति के आधार पर दूसरों से भेदभाव करते हैं। यहां तक कि चिकित्सा जैसा पवित्र माना जाने वाला पेशा भी ऐसी विषाक्त मानसिकता वाले लोगों से मुक्त नहीं है। हैरत तो तब होती है जब समाज के तथाकथित उच्च शिक्षित वर्ग में भी ऐसा देखने को मिलता है। जाति की समस्या की जड़ें बहुत गहरी हैं।
संविधान संवाद टीम
‘जीवन में संविधान’ पुस्तक से:
सामाजिक स्तर पर तमाम नकारात्मक खबरों के बीच कभी-कभी कुछ ऐसी खबरें भी मिलती हैं जिन्हें पढ़कर सुकून मिलता है और लगता है कि कम ही सही, लेकिन उस वर्ग को संविधान की सहायता मिल रही है जिसे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने ‘अंतिम आदमी’ कहकर संबोधित किया था और हमें मंत्र दिया था कि कोई भी कदम उठाने के पहले हमें यह सोचना चाहिए कि उस ‘अंतिम आदमी’ को हमारे कदम से क्या लाभ होगा।
वंचित वर्ग के तमाम छात्र-छात्राएं आईएएस, आईपीएस, डॉक्टर या इंजीनियर बनकर समाज में अपना योगदान दे रहे हैं। उनकी सफलता में उनकी प्रतिभा, मेहनत और लगन का योगदान तो है ही, साथ ही संविधान प्रदत्त अधिकारों ने भी उन्हें यह मुकाम हासिल करने में सहायता की है।
दलित वर्ग से आने वाली मीनाक्षी पेशे से चिकित्सक हैं और देश की राजधानी दिल्ली के एक बड़े अस्पताल में मरीजों की सेवा करती हैं। मीनाक्षी बताती हैं कि जब वह कक्षा 10 में पढ़ती थीं तब तथाकथित उच्च वर्ग से आने वाले शिक्षक छात्रवृत्ति लेने के लिए अनुसूचित जाति और जनजाति के बच्चों के नाम बड़ी हिकारत से पुकारा करते थे। वह उन्हें खैरात खाने वाले कहा करते थे। मीनाक्षी कहती हैं कि उनके पुकारने पर छात्रवृत्ति के लिए उठने में उन्हें अत्यधिक ग्लानि का अनुभव होता था।
कक्षा में ऐसे अनेक शिक्षक थे जो अनुसूचित जाति-जनजाति के बच्चों का अपमान करने के नए-नए तरीके निकाला करते थे। गणित के अध्यापक रजक समुदाय के बच्चों को 2बी (दो बी यानी धोबी) कहकर ठहाका लगाया करते थे। ऐसे शिक्षकों ने कभी अपनी जिम्मेदारी को ठीक से समझा ही नहीं – वे शिक्षक के बजाय हमेशा एक जाति के प्रतिनिधि ही बने रहे।
बहरहाल, मीनाक्षी को स्कूल के बाद ऐसे व्यवहार का सामना नहीं करना पड़ा और आज वह एक कुशल चिकित्सक हैं। वह कहती है कि उन शिक्षकों की मानसिकता का इलाज तो वह नहीं कर सकतीं, लेकिन अगर उनमें से कोई बीमार होकर उसके पास आता है तो वह उनका इलाज अवश्य करेंगी। लेकिन अगले ही पल वह व्यंग्यात्मक लहजे में बोल पड़ती हैं, “क्या वो एक दलित डॉक्टर से अपना इलाज कराना चाहेंगे?”
मीनाक्षी कहती हैं कि उन्हें अपने परिवार, देश और संविधान पर बहुत गर्व है क्योंकि संविधान में मिले अधिकारों ने उन्हें अपने सपने पूरे करने का हौसला दिया।
लेकिन मुंबई में चिकित्सा स्नातकोत्तर की विद्यार्थी डॉ. पायल तड़वी मीनाक्षी की तरह खुशकिस्मत नहीं थीं। जातिवादी टिप्पणियों ने मेडिकल जैसे नेक पेशे में भी उनका पीछा नहीं छोड़ा। कथित उच्च जाति के सीनियर्स की प्रताड़ना से तंग आकर डॉ. पायल तड़वी ने 22 मई 2019 को टीएन टोपीवाला नेशनल मेडिकल कॉलेज के अपने हॉस्टल के कमरे में फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली थी।
तड़वी ने अपने सुसाइड नोट में लिखा, “मैंने अपना पेशेवर जीवन, निजी जीवन, सब कुछ खो दिया है क्योंकि उन्होंने ऐलान कर दिया है कि जब तक वे नायर कॉलेज में हैं, वे मुझे कुछ भी सीखने नहीं देंगे। मुझे पिछले 3 सप्ताह से लेबर रूम संभालने की मनाही है क्योंकि वे मुझे इसके लिए योग्य और सक्षम नहीं मानते। मुझे ओपीडी के दौरान लेबर रूम से बाहर रहने के लिए कहा गया है। इसके अलावा, उन्होंने मुझे कंप्यूटर पर स्वास्थ्य प्रबंधन सूचना प्रणाली की प्रविष्टि करने के लिए कहा है, वे मुझे मरीजों की जांच करने की अनुमति नहीं देते। मैं जो कर रही हूं वह क्लर्क वाला काम है।”
मामले की जांच के दौरान अस्पताल के एक कर्मचारी ने पुलिस को बताया कि दिसंबर 2018 में डॉक्टर हेमा आहूजा, अंकिता खंडेलवाल और भक्ति मेहारे ने तड़वी से कहा था, “ये काम कौन करेगा, ये तेरा काम नहीं है तो किसका काम है? तू छोटी जात की होकर हमारी बराबरी करेगी क्या?”
एक अन्य बयान में एक चश्मदीद ने कहा कि डॉक्टरों ने पायल से कहा था, “ऐ आदिवासी, तू इधर क्यूं आई है? तू डिलीवरी करने के लायक नहीं है, तू हमारी बराबरी करती है! ”
तथ्य बताते हैं कि डॉ. पायल तड़वी ने अपनी मुश्किलों से लड़ने की बहुत कोशिश की, लेकिन लगातार अपमान और कमतर बताये जाने से वह आखिरकार अवसाद में आकर टूट गईं। उन्हें हर कदम पर यह अहसास कराया जाता था कि वह कथित नीची जाति से आती हैं और डॉक्टरी जैसा पेशा उनके लिए नहीं है।
भारतीय संविधान तो सभी को अवसर की समानता देने की बात करता है, किसी पेशे पर जाति विशेष का अधिकार कैसे हो सकता है? इतने उच्च शिक्षित पेशे में आने वाले लोगों में झूठा जाति गौरव क्यों है? जाति प्रथा की जड़ें इतनी गहरी क्यों हैं? क्या हम एक जाति-मुक्त समाज की कल्पना कर सकते हैं?