क्यों जरूरी है संविधान निर्माण की समझ?‌

क्यों जरूरी है संविधान निर्माण की समझ?‌

आज पूरा देश संविधान दिवस मना रहा है। संविधान दिवस यानी 26 नवंबर का दिन। सन 1949 में आज ही के दिन हमने अपने संविधान को अपनाया था। वही संविधान जो वर्षों तक चली बैठकों, सघन बहसों और वाद-विवाद के बाद हमारे सामने आया था।

स्वतंत्र भारत का गांधीवादी संविधान

स्वतंत्र भारत का गांधीवादी संविधान

श्रीमन नारायण अग्रवाल ने गांधी के रामराज्य को परिभाषित करते हुए लिखा है, ‘‘धार्मिक आधार पर इसे धरती पर ईश्वर के शासन के रूप में समझा जा सकता है। राजनीतिक तौर पर इसका अर्थ है एक संपूर्ण लोकतंत्र जहां रंग, नस्ल, संपत्ति, लिंग के आधार पर कोई भेदभाव न हो। जहां जनता का शासन हो। तत्काल और कम खर्च में न्याय मिले। उपासना की, बोलने की और प्रेस को आजादी मिले और यह सब आत्मनियमन से हो। ऐसा राज्य सत्य और अहिंसा पर निर्मित हो और वहां ग्राम और समुदाय प्रसन्न और समृद्ध हों।’’

गांधी ने जिस संविधान का सपना देखा

गांधी ने जिस संविधान का सपना देखा

गांधी देश के एक बड़े तबके लिए राष्ट्रपिता थे तो कइयों के लिए वह महात्मा या बापू थे। इतने वर्षों बाद भी गांधी की वैश्विक ख्याति और सत्य-अहिंसा के उनके विचारों की प्रासंगिकता बताती है कि एक विचार के रूप में गांधी की हत्या कर पाना संभव नहीं था। आइए समझने का प्रयास करते हैं कि गांधी के सपनों का भारत कैसा था और वह भारत के लिए कैसा संविधान चाहते थे?

हिंदी दिवस: राज भाषा निर्माण का संघर्ष

हिंदी दिवस: राज भाषा निर्माण का संघर्ष

जिस समय भारत ब्रिटिश उपनिवेशवाद से आज़ाद हो रहा था और एक नए राष्ट्र के रूप में उसका एकीकरण हो रहा था, ठीक उसी समय पहली बार भारत की राज भाषा और राष्ट्र भाषा का प्रश्न खड़ा हुआ। संविधान सभा में हिंदी और अहिंदीभाषी सदस्यों के बीच लंबी बहस के बाद हिंदी को राज भाषा बनाने पर सहमति बन सकी।

सबसे कटु दौर में लोकतांत्रिक और मूल्‍ययुक्‍त बना संविधान

सबसे कटु दौर में लोकतांत्रिक और मूल्‍ययुक्‍त बना संविधान

आर्थिक बदहाली, हिंसा, प्राकृतिक आपदाओं, सांप्रदायिक वैमनस्यता के तूफ़ान के बीच संविधान सभा के 250 से अधिक प्रतिनिधि, भारत के लिए ऐसा संविधान…

संवैधानिक मूल्यों के मायने: मूल्‍यों के भाव के बिना अर्थहीन हैं अधिकार

संवैधानिक मूल्यों के मायने: मूल्‍यों के भाव के बिना अर्थहीन हैं अधिकार

मूल्य वास्तव में जीवन शैली के मानकों के रूप में समझे जा सकते हैं। कोई भी व्यक्ति अपना जीवन किन सिद्धांतों के आधार पर जीता है, यह उसके ‘मूल्यों’ से ही तय होता है…

समलैंगिक विवाह : सर्वोच्च न्यायालय का आदेश और संवैधानिक नैतिकता

समलैंगिक विवाह : सर्वोच्च न्यायालय का आदेश और संवैधानिक नैतिकता

समलैंगिक विवाहों से संबंधित हालिया महत्वपूर्ण निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने सामाजिक नैतिकता और संवैधानिक नैतिकता के बीच के अंतर को स्पष्ट रूप से रेखांकित किया है…