होम / भारत की भीतरी दासता से मुक्ति पर बहस

जब भारत आज़ाद भी नहीं हुआ था, तब स्पष्ट नीति बनने लगी थी कि बलात श्रम, बेगार और मानव व्यापार को खत्‍म करके ही हम भीतरी दासता से मुक्त हो सकेंगे. हम देखते हैं कि सात दशक गुज़र जाने के बाद भी भारत में बच्चों, किशोरवय व्यक्तियों, औरतों और महिलाओं का व्यापार होता है.

Similar Posts

  • संवैधानिक मूल्यों के मायने: मूल्‍यों के भाव के बिना अर्थहीन हैं अधिकार

    मूल्य वास्तव में जीवन शैली के मानकों के रूप में समझे जा सकते हैं। कोई भी व्यक्ति अपना जीवन किन सिद्धांतों के आधार पर जीता है, यह उसके ‘मूल्यों’ से ही तय होता है…

  • हिंदी दिवस: राज भाषा निर्माण का संघर्ष

    जिस समय भारत ब्रिटिश उपनिवेशवाद से आज़ाद हो रहा था और एक नए राष्ट्र के रूप में उसका एकीकरण हो रहा था, ठीक उसी समय पहली बार भारत की राज भाषा और राष्ट्र भाषा का प्रश्न खड़ा हुआ। संविधान सभा में हिंदी और अहिंदीभाषी सदस्यों के बीच लंबी बहस के बाद हिंदी को राज भाषा बनाने पर सहमति बन सकी।

  • समलैंगिक विवाह : सर्वोच्च न्यायालय का आदेश और संवैधानिक नैतिकता

    समलैंगिक विवाहों से संबंधित हालिया महत्वपूर्ण निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने सामाजिक नैतिकता और संवैधानिक नैतिकता के बीच के अंतर को स्पष्ट रूप से रेखांकित किया है…

  • गांधी ने जिस संविधान का सपना देखा

    गांधी देश के एक बड़े तबके लिए राष्ट्रपिता थे तो कइयों के लिए वह महात्मा या बापू थे। इतने वर्षों बाद भी गांधी की वैश्विक ख्याति और सत्य-अहिंसा के उनके विचारों की प्रासंगिकता बताती है कि एक विचार के रूप में गांधी की हत्या कर पाना संभव नहीं था। आइए समझने का प्रयास करते हैं कि गांधी के सपनों का भारत कैसा था और वह भारत के लिए कैसा संविधान चाहते थे?

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *