सचिन कुमार जैन

संविधान शोधार्थी एवं अशोका फेलोशिप प्राप्त सामाजिक कार्यकर्ता। ‘संविधान की विकास गाथा’, ‘संविधान और हम’ सहित 65 से अधिक पुस्तक-पुस्तिकाओं का लेखन।

आज़ादी के बाद नये भारत का निर्माण करने वालों के सामने केवल नई राजनीतिक व्यवस्था बनाने की चुनौती नहीं थी बल्कि उन्हें नई सामाजिक व्यवस्था भी बनानी थी। ऐसी व्यवस्था जो हज़ारों वर्षों से चली आ रही जाति-वर्ण-लैंगिक भेदभाव, असमानता और शोषण के चरित्र से मुक्त हो। ऐसी व्यवस्था जिसमें लोग केवल मतदाता न हों बल्कि उन्हें राज्य और समाज की प्रक्रिया में समान भूमिका हासिल हो और निर्णय लेने में सहभागिता का अधिकार भी मिल सके।

उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी में सामाजिक परिवर्तन के लिए मज़बूत संघर्षों के उदाहरण सामने आए; किंतु उपनिवेशवाद से मुक्ति के संघर्ष के साथ भारत के भीतरी सामाजिक उपनिवेशवाद का अंत करने में महात्मा गांधी और डॉ. भीम राव अम्बेडकर की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण रही है। उन्होंने कहा कि ब्रिटिश उपनिवेशवाद से आज़ाद होने का मतलब यह नहीं है कि भारत के भीतर जाति-सम्प्रदाय और लैंगिक उपनिवेशवाद को और पुख्ता, और ज्यादा गहरा होने दिया जाये। भीतरी उपनिवेशवाद को समाप्त करने की प्रतिबद्धता का प्रमाण भारत का संविधान है। डॉ. अम्बेडकर ने वर्ष 1932 में दलितों के पृथक निर्वाचन की मांग की थी। जिसे ब्रिटिश सरकार ने मान लिया था, किंतु महात्मा गांधी ने विधान मंडलों में दलितों के लिए स्थान आरक्षित करने के विकल्प को सामने रख कर डॉ. अम्बेडकर को पूना समझौते के लिए मजबूर किया था। 

संवैधानिक प्रक्रिया का अध्ययन बताता है कि वास्तव में भारत में सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक उत्थान के लिए तीन तरह के संवैधानिक संरक्षण महत्वपूर्ण माने गये हैं- एक: आरक्षण के जरिये पंचायतों से संसद तक जनता और समुदाय को प्रतिनिधित्व का अधिकार मिलना ताकि उनका सशक्तीकरण हो सके; दो: सामाजिक-आर्थिक व्यवहार में छुआछूत और भेदभाव को कानून के जरिये खत्म करना; तीन: वंचित समुदायों को सक्षम बनाने के लिए आरक्षण के माध्यम से शिक्षा के समान नहीं, बल्कि बेहतर और अतिरिक्त अवसर मिलना।  

संविधान सभा की बहस से यही पता चलता है कि सदियों से जाति-वर्ण व्यवस्था में शोषण के शिकार वर्गों को बिना सक्षम और सशक्त बनाए छुआछूत और भेदभाव मिटाना संभव न था। जब तक भेदभाव और अक्षमता रहेगी, तब तक असमानता का मिटना भी असंभव होगा।   

डॉ. अम्बेडकर की भूमिका

भारत के संविधान को एक चरित्र और जीवंतता देने में डॉ. अम्बेडकर की भूमिका सबसे अहम थी। मंडल आयोग की रिपोर्ट से भारत में आरक्षण के मसले पर समाज के भीतर बहुत बहस और टकराव की स्थिति बनती रही है। आज के हालात तो सामने हैं, किंतु आरक्षण के विषय पर संविधान में हुई बहस का संदर्भ जानना बहुत जरूरी है। यह महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि आरक्षण के प्रावधान को संविधान में ही दर्ज मूलभूत अधिकारों के खिलाफ माना गया था। सभा द्वारा पारित संविधान में अनुच्छेद 14 से 18 तक ऐसे प्रावधान शामिल किए गये जो असमानता, भेदभाव, शोषण और छुआछूत को समाप्त कर रहे थे और साथ ही वंचित तबकों को निम्न स्थिति से उठाकर समानता की सतह पर लाने वाले थे।  
डॉ. अम्बेडकर की अध्यक्षता में संविधान मसौदा समिति ने भेदभाव और अवसरों की असमानता को ख़त्म करने के लिए सभा के सामने अनुच्छेद 9 प्रस्तुत किया जो इस प्रकार था– 

अनुच्छेद 9 में कहा गया था कि “राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध ‘केवल’ धर्म, प्रजाति, लिंग अथवा इनमें से किसी भी आधार पर कोई भेद नहीं करेगा। इन आधारों पर कोई भी नागरिक दुकानों, विश्रांति गृहों तथा सार्वजनिक आमोद स्थलों, जल स्रोतों, सार्वजनिक समागम आदि के स्थानों में संबंध में अयोग्य, शर्त या निर्बन्धन के अधीन नहीं होगा।” पारित किए गये संविधान में जाति, मूलवंश, जन्मस्थान को भी विभेद के आधार में जोड़ा गया। 

इस अनुच्छेद में ‘केवल’ शब्द बहुत महत्वपूर्ण है। यह स्पष्ट कर दिया गया कि नागरिकों के साथ किन आधारों पर विभेद नहीं होगा। इसके अलावा क्षमता या विशेष कौशल के आधार पर किया गया विभेद असंवैधानिक नहीं माना जाता है।  

इस विषय में बहस थी कि छुआछूत तो श्मशान में भी होती है, स्कूलों में भी और कालेजों में भी। प्रो. शिब्बन लाल सक्सेना मानते थे कि जलाशयों और कुओं आदि पर होने वाली छुआछूत अस्थायी है। उनका कहना था, ‘‘हम जानते हैं कि हिंदुओं की सैकड़ों ऐसी दुकानें हैं, जहां केवल हिंदुओं को भोजन मिल सकता है, क्योंकि उनकी विशेष प्रकार की आदतें हैं और उन भोजन स्थानों पर किसी को आने की इजाजत नहीं होती। इसका मतलब यह कि हिंदुओं को अपनी आदतें छोड़नी होंगी। मेरे विचार से हमें लोगों में व्यापक परिवर्तन लाने के लिए लोगों को तैयार करना चाहिए, अन्यथा आये दिन कलह होगी। मेरी इच्छा है कि खंड (क) को मूलाधिकार में नहीं, बल्कि नीति निदेशक सिद्धांतों में शामिल किया जाये।’’ 

डॉ. अम्बेडकर का मानना था कि छुआछूत और अस्पृश्यता का निषेध मूल अधिकारों में करना और इस व्यवहार को रोकने के लिए क़ानून बनाना अनिवार्यता है। यही कारण है कि संविधान में ही संसद को क़ानून बनाने के अधिकार भी दिए गये। जब भेदभाव और छुआछूत को ख़त्म करने की घोषणा करने वाला प्रावधान संविधान में दर्ज किया गया तब उसमें सदियों से उपेक्षा और शोषण के शिकार रहे, सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों के लिए विशेष प्रावधान किए जाने का अधिकार राज्य को नहीं दिया गया था। मिसाल के तौर पर शिक्षा में आरक्षण और निजी शिक्षण संस्थानों में आरक्षण।

संविधान लागू होने के 15 महीनों के भीतर ही पहले संविधान संशोधन के जरिये राज्य को यह अधिकार देना पड़ा कि वह सामाजिक और शैक्षणिक मानकों पर पिछड़े नागरिकों और अनुसूचित जाति-जनजातियों के लिए विशेष प्रावधान करे। डॉ. अम्बेडकर ने संविधान निर्माण के समय अपने मसौदे में भेदभाव की समाप्ति के लिए दर्ज किए गये अनुच्छेद में यह उल्लेख नहीं किया था कि इस अनुच्छेद के होते हुए भी राज्य भेदभाव और छुआछूत की प्रवृत्ति मिटाने के लिए सामाजिक-शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े नागरिकों या अनुसूचित जाति-जनजाति के लिए विशेष प्रावधान कर सकेगा। उन्होंने महिलाओं और बच्चों के लिए विशेष उपबंध किए जाने का उल्लेख जरूर किया था। हांलाकि प्रो. के.टी. शाह ने यह सुझाव दिया था कि इस प्रावधान में महिलाओं और बच्चों के साथ “अनुसूचित जातियों और अनुसूचित वन जातियों” को भी जोड़ दिया जाये। किंतु डॉ. अम्बेडकर ने कहा कि हम सभी चाहते हैं कि अनुसूचित जातियों और वन जातियों को जन साधारण से पृथक न रखा जाये।” 

इसके बाद अनुच्छेद 10 पर चर्चा हुई। जिसमें कहा गया था कि – 

“कोई नागरिक केवल धर्म, प्रजाति, जाति, लिंग, वंश, जन्मस्थान अथवा इनमें से किसी के आधार पर, राज्याधीन किसी पद के लिए अपात्र न होगा।” इस प्रावधान पर 30 नवम्बर 1948 को सभा में बहस हुई। 

इसी अनुच्छेद के अंतर्गत 10 (3) की व्यवस्था भी की गयी थी। जिसमें कहा गया था– 

“इस अनुच्छेद की किसी बात से राज्य को पिछड़े हुए किसी जनपद वर्ग के पक्ष में नियुक्तियों के आरक्षण के लिए प्रावधान करने में कोई बाधा नहीं होगी।” 

इन दोनों प्रावधानों का मतलब यह था कि भारत की राज्य व्यवस्था यानी विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका में होने वाली नियुक्तियों में उपरोक्त आधारों पर कोई भेदभाव नहीं किया जायेगा और सभी को समान अवसर उपलब्ध होंगे; लेकिन इसके साथ ही भारत में बहुसंख्यक वर्गों के साथ सदियों से होते आये भेदभाव के कारण उत्पन्न हुई स्थिति में परिवर्तन लाने के लिए पिछड़े-शोषित और अवसरों से वंचित रखे गए समूहों की उन्नति के लिए विशेष व्यवस्थायें बनाने की जरूरत है ताकि वे पहले समान स्थिति में आ सकें और उपेक्षा के आघात से मुक्त हो सकें। इसी संदर्भ में आरक्षण का प्रावधान किया गया। 

संविधान सभा के कई विद्वान सदस्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की व्यवस्था से सहमत नहीं थे। दामोदर स्वरूप सेठ ने प्रस्ताव रखा, “अनुच्छेद 10 का खंड 2 हटा दिया जाये। वह खंड देखने में तो बहुत ठीक और तर्कसंगत है, पर सैद्धांतिक दृष्टि से यह गलत है। नौकरियों में नियुक्ति या पद के संबंध में पिछड़े हुए वर्ग के पक्ष में आरक्षण की व्यवस्था रखने का मतलब ही यह है कि न अच्छी हुकूमत रह जायेगी, और न शासन संबंधी कार्य ही दक्षतापूर्वक चल सकेंगे। और फिर ‘पिछड़े वर्ग’ की व्याख्या करना भी आसान नहीं है। मेरा यह मतलब नहीं है कि पिछड़े वर्ग को शिक्षा संबंधी योग्यताएं बढ़ाने के लिए तथा जीवन-स्तर ऊंचा करने के लिए जरूरी सुविधाएं और रियायतें न दी जाएं। मेरा मतलब यही है कि पदों पर उम्मीदवारों को नियुक्त करने का काम लोक सेवा आयोग के ही विवेक पर छोड़ देना चाहिए। और किसी व्यक्ति को इस आधार पर हमें कोई रियायत नहीं देना चाहिए क्योंकि वह दलित वर्ग का व्यक्ति है।”

कई समुदाय ऐसे थे जिन्हें जाति और सामाजिक पहचान या काम के वर्गीकरण के आधार पर बराबरी के स्तर पर लाने के लिए आरक्षण की जरूरत थी, किंतु संविधान सभा के ज्यादातर सदस्य आरक्षण के पक्ष में नहीं थे। वे आरक्षण का इसलिए विरोध नहीं कर रहे थे कि इसके कारण सवर्णों या ऊंची जातियों को नौकरियों या शिक्षण संस्थानों में अपने स्थान छोड़ने पड़ेंगे; बल्कि संविधान सभा के सदस्य चाहते थे कि भारत का समाज, भारत की जातियां खुद जाति व्यवस्था और असमानता की व्यवस्था को तोड़ने की, उसे समाप्त करने की घोषणा करें। जब समाज स्वयं समानता लाने की पहल करेगा, तभी समानता स्वीकार्य भी होगी; लेकिन भारत का समाज असमानता, छुआछूत और सामाजिक बहिष्कार त्यागने के लिए तैयार न हुआ।

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