सचिन कुमार जैन

संविधान शोधार्थी एवं अशोका फेलोशिप प्राप्त सामाजिक कार्यकर्ता। ‘संविधान की विकास गाथा’, ‘संविधान और हम’ सहित 65 से अधिक पुस्तक-पुस्तिकाओं का लेखन।

संविधान सभा के ज्यादातर सदस्य चाहते थे कि छुआछूत और अस्पृश्यता का अंत समाज के स्तर पर ही हो। उनका मानना था कि भले ही संविधान में समानता का प्रावधान हो लेकिन अनुसूचित जाति-जनजाति, महिलाओं और पिछड़ों को समानता का दर्जा देने का निर्णय देश की जातियां ही लें। यही कारण है कि आरक्षण के प्रावधान को लेकर हर स्तर पर खूब बहस हुई। यह जानना जरूरी है कि जिस समय इस प्रावधान पर बहस हो रही थी, तब तक खास समुदायों या पिछड़े वर्ग की परिभाषा और मानक तय नहीं थे। संविधान के मसौदे के अनुच्छेद 301 में यह व्यवस्था बनायी जा रही थी कि पिछड़े वर्गों की शिक्षा संबंधी और सामाजिक स्थिति के अध्ययन के लिए एक आयोग बनाया जाएगा।

उस आयोग की रिपोर्ट से आरक्षण की व्यवस्था में स्पष्टता आनी तय थी। इस पर अरिबहादुर गुरुंग का कहना था,“मैं समझता हूं कि पिछड़े हुए वर्गों में तीन श्रेणियां शामिल हैं– अनुसूचित जातियां, कबायली और तीसरे वे, जिन्हें पिछड़े वर्गों में शामिल नहीं किया गया है, किन्तु वे शिक्षा और आर्थिक दृष्टि से पिछड़े हैं। मेरे अनुमान से भारत के 90 प्रतिशत लोग शिक्षा और आर्थिक दृष्टि से पिछड़े हैं।” 

टी.टी. कृष्णामाचारी ने कहा, “पिछड़े वर्ग का निर्णय यदि सर्वोच्च न्यायालय करेगा तो उसे पता लगाना होगा कि पिछड़े हुए वर्ग में किसे शामिल किया जाए? इसके बारे में विधान निर्माताओं का क्या अभिप्राय था? यहां जाति शब्द नहीं रखा गया है, बल्कि रखा गया है वर्ग (क्लास)। वर्ग पिछड़ा हुआ है या नहीं इसका निर्णय किस आधार पर करेंगे? आर्थिक स्थिति के आधार पर या शिक्षा के आधार पर, या जन्म के आधार पर?”

पंडित हृदयनाथ कुंजरू का कहना था, “प्रावधान ऐसा होना चाहिए- संविधान लागू होने के 10 वर्ष के भीतर आरक्षण लागू करने का प्रावधान करने में कोई बाधा नहीं होगी। ये प्रावधान अनिश्चितकाल के लिए लागू नहीं रहना चाहिए। इसकी समय-समय पर जांच होनी चाहिए कि वास्तव में पिछड़े तबकों की स्थिति में बदलाव आ भी रहा है या नहीं और राज्य ने उन्हें वर्तमान दशा से ऊपर उठाने के लिए और योग्य बनाने के लिए, अन्य वर्गों की बराबरी पर लाने के लिए यथोचित कार्यवाही की है कि नहीं? उनका कहना था कि कौन पिछड़ा होगा और कौन नहीं, यह तय करने का भार न्यायालय पर नहीं छोड़ा जाना चाहिए। वास्तव में हमें विधायी मंडल में उनके प्रतिनिधित्व को सशक्त बनाने के लिए ज्यादा ठोस प्रावधान करने चाहिए, किन्तु वहां अनुच्छेद 305 में इसकी समय अवधि 10 साल तक ही रखी गयी है। 

अजीज़ अहमद खां का कहना था कि प्रावधान इसलिए आवश्यक है क्योंकि हुकूमत के मुलाज़िमों में एक खास तबके का एकाधिकार हो जाने से दूसरों के दिल में यह ख्याल आ सकता है कि उनकी अहमियत को नज़रंदाज़ किया गया है। तो यह ख्याल खुद मुल्क के अन्दर नागवार हालत पैदा करने का कारण बन जाएगा।

बहस के वक्त सभा का संचालन संविधान सभा के उपाध्यक्ष डॉ. एच.सी. मुखर्जी कर रहे थे। उन्होंने बहस आगे बढ़ाने से पहले दिशा तय करने के लिए महत्वपूर्ण बात कही “यह वाद-विवाद हमारी आबादी के वर्ग विशेष पर ख़ास तौर पर असर डालता है, अर्थात उस वर्ग पर जिसके साथ अतीत में बड़ी निर्दयता के साथ व्यवहार किया गया है। आज हम अपने पूर्वजों के कुकृत्यों के लिए यद्यपि प्रायश्चित करने के लिए तैयार हैं, फिर भी यत्र-तत्र अभी भी वही पुरानी कहानी चल रही है और विदेशों में इसका खूब बढ़ा-चढ़ा कर उल्लेख किया जाता है। जब भी हम किसी समस्या पर मानव-दृष्टि से और अंतर्राष्ट्रीय आधार पर ऊंचे स्तर पर उठ कर विचार करना चाहते हैं, तो हमें यह ताना देकर चुप किया जाता है कि आप इतने ऊंचे स्तर पर क्या विचार करेंगे? आप तो खुद अपने देशवासियों के एक वर्ग के प्रति भयानक अन्याय का बर्ताव करते हैं।”      

बहस से कुछ दृष्टिकोण स्पष्ट सामने आ रहे थे। मसलन आरक्षण से भारत में मज़बूत व्यवस्था नहीं बन सकेगी या इससे भारत में जातीय और वर्ग आधारित पहचान स्थायी रूप से बनी रहेगी क्योंकि आरक्षण का लाभ पाने के लिए किसी ख़ास जाति और वर्ग का होने का दावा करते रहना होगा वगैरह… वगैरह।

एच.जे. खांडेकर ने आरक्षण की जरूरत पर कहा कि जब अनुसूचित जाति का उम्मीदवार भारत सरकार या प्रांतीय सरकार में किसी पद के लिए आवेदन करता है तो साधारणतया उसके आवेदन की उपेक्षा ही की जाती है। शिक्षा में हम पिछड़े हुए हैं और अन्य सम्प्रदायों के मुकाबले में हम आ नहीं सकते। अगर भर्ती करने में हरिजन उम्मीदवारों को योग्यता के संबंध में कुछ छूट नहीं दी जाती, तो वह ब्राह्मण समाज या सवर्ण हिन्दू समाज के उम्मीदवारों से प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते हैं। इसके साथ ही संघ लोक सेवा आयोग और प्रांतीय लोक सेवा आयोग में हमारे प्रतिनिधि होने चाहिए। अब भी हरिजनों के लिए ऊंची नौकरियों में 12 प्रतिशत और नीचे की नौकरियों में 16 प्रतिशत आरक्षण है, किन्तु वास्तव में एक प्रतिशत उम्मीदवार भी नहीं रखे जाते हैं।

उस वक्त संविधान सभा सरकारी नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था पर ही विचार कर पा रही थी। के. एम. मुंशी का वक्तव्य था कि हम दो बातें चाहते हैं कि राज्याधीन नौकरियों में हमें चरम सीमा की कार्य कुशलता उपलब्ध हो सके। इसके साथ ही हम चाहते हैं कि पिछड़े हुए वर्ग को सरकारी नौकरियों में जगह मिले क्योंकि यह देखा गया है कि सरकारी नौकरी पाने से व्यक्ति का दर्ज़ा ऊंचा हो जाता है और उसे देश सेवा का अवसर मिलता है। हम चाहते हैं कि यह अवसर हर सम्प्रदाय को दिया जाए और पिछड़े वर्गों को भी।”

डॉ. अम्बेडकर ने कहा कि इस बहस में सदस्यों के तीन दृष्टिकोण हैं। अगर अमल लाने लायक कोई योजना बनानी है तो तीनों को संतुष्ट करना होगा। पहला दृष्टिकोण यह है कि सभी नागरिकों को समान अवसर मिलने चाहिए। अनेक सदस्यों की इच्छा है कि प्रत्येक व्यक्ति को, जो किसी विशेष पद के लिए योग्य हो, उसे इस बात की आज़ादी होनी चाहिए कि वह उसके लिए आवेदन कर सके, परीक्षा में बैठ सके, उसकी योग्यता की जांच हो सके और इस संबंध में अवसरों की समानता के सिद्धांत पर कोई प्रतिबंध नहीं होना चाहिए। दूसरे वर्ग का मानना है कि किसी वर्ग या सम्प्रदाय के पक्ष में आरक्षण व्यवस्था नहीं होनी चाहिए और सभी योग्य नागरिकों को समान अवसर मिलना चाहिए। तीसरा दृष्टिकोण है कि सैद्धांतिक दृष्टि से अवसर-समता का सिद्धांत बहुत अच्छा है, फिर भी नियुक्तियों में उन कतिपय सम्प्रदायों को स्थान देने के लिए हमें एक न एक व्याख्या करनी ही चाहिए, जिन्हें अब तक शासन-कार्य से सदा अलग रखा गया है। मसौदा समिति ने इन तीनों दृष्टिकोणों को महत्व दिया। अनुच्छेद 10 के खंड 1 में अवसर समता का प्रावधान है। साथ ही खंड 3 में हमें सम्प्रदायों की इस मांग को भी शामिल करना था कि शासन का नियंत्रण अब तक ऐतिहासिक कारणों से एक सम्प्रदाय या चंद सम्प्रदाय ही के लोग करते आ रहे थे और अब इसका अंत होना चाहिए।” इन प्रावधानों की व्यावहारिकता पर डॉ. अम्बेडकर ने कहा कि मान लीजिये हम उन लोगों की मांग को पूर्णतः मान लेते, जिन्हें अब तक सरकारी नौकरियों में पूरी जगह नहीं दी जाती थी; तो इसका अर्थ यह होगा कि हम अवसर-समता के सिद्धांत का पूर्णतः हनन कर देंगे। या फिर एक या कई सम्प्रदायों के लिए 70 प्रतिशत स्थान आरक्षित कर दें और शेष लोगों के लिए प्रतियोगिता में 30 प्रतिशत जगह बचे; तो क्या यह अवसर-समता के सिद्धांत की दृष्टि से ठीक है? इसका मतलब यह है कि आरक्षण भी अवसर-समता के सिद्धांत के अनुरूप रखना होगा; इसीलिए मेरी राय में आरक्षण सीमित जगहों के लिए ही होना चाहिए। यदि कोई स्थानीय सरकार आरक्षित श्रेणी में बहुसंख्यक जगहों को शामिल करेगी, तो मैं समझता हूं कि कोई भी संघ न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय में जाकर यह कह सकता है कि इतनी अधिक आरक्षित जगहें रख दी गयी हैं, कि अवसर समता के नियम का हनन हो रहा है। तब न्यायालय यह निर्णय करेगा कि राज्य शासन ने समुचित विवेक से कार्य किया है या नहीं? 

डॉ. अम्बेडकर के दृष्टिकोण को बाद में अलग-अलग मामलों में सर्वोच्च न्यायालय ने पुख्ता किया है। बालाजी बनाम मैसूर राज्य (एआईआर, 1963) में “इसमें संदेह नहीं कि संविधान के निर्माताओं ने यह उपधारणा की कि अनुच्छेद 16(4) के अधीन पर्याप्त आरक्षण करते समय इस बात पर ध्यान दिया जाएगा कि युक्तियुक्त, अतिशय या अंधाधुंध आरक्षण नहीं किया जाएगा। अतैव अनुज्ञेय और विधि सम्मत मर्यादा के बाहर किया गया आचरण संविधान के साथ कपट होगा।” 

इसके बाद इंदिरा साहनी एवं अन्य बनाम भारतीय संघ एवं अन्य (नवम्बर 1992) में मंडल कमीशन के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि “पिछड़े वर्ग के नागरिकों की कोई परिभाषा संविधान में नहीं दी गयी है। जाति, उपजीविका, निर्धनता और सामजिक पिछड़ेपन का निकट का संबंध है। भारत के संदर्भ में निचली जातियों को पिछड़ा माना जाता है। जाति अपने आप में पिछड़ा वर्ग हो सकती है। जो समाज जाति को मान्यता नहीं देते हैं, उनके लिए अन्य कसौटियां लागू होंगी। अनुच्छेद 16(4) में उल्लेखित आरक्षण 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए।”     

वास्तव में भारत में अनुसूचित जाति और जनजातियों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति की बहस तो स्वतंत्र भारत की सियासत ने आरक्षण के इर्द-गिर्द ही समेट दिया, जबकि संविधान सभा में, यहां तक कि डॉ. अम्बेडकर स्वयं एक ठोस किन्तु संतुलित व्यवस्था चाहते थे।

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