शादी की न्यूनतम आयु में धर्म, जाति के आधार पर भेदभाव संभव है?
कोई भी कानून जो कि किसी विशेष तबके हेतु और विशेष उद्देश्य हेतु बनाया गया हो, वह किसी भी साधारण कानून के प्रावधानों को अधिक्रमित अवश्य करेगा। पर्सनल लॉ भारत की विविधता हेतु आवश्यक हैं, परंतु विशेष कानूनों के ऊपर पर्सनल लॉ को दर्जा दिया जाना, न्यायोचित नहीं है और ऐसा करना संवैधानिक मूल्यों को ताक पर रखना ही होगा।
प्रत्यूष मिश्र
हाईकोर्ट इंदौर में एडवोकेट एवं संविधान संवाद फेलो
वर्तमान में हम सभी के समक्ष एक ज्वलंत विषय है कि क्या मुस्लिम बालिकाओं का विवाह 15 वर्ष की आयु में कानूनी है या नहीं? इसी से संबंधित एक और बड़ा प्रश्न है कि क्या किसी पर्सनल लॉ (स्वीय विधि) अथवा कस्टमरी लॉ/विधियों (प्रथागत कानून) एवं बच्चों से संबंधित कानूनों में कोई विरोधाभास हो तो कौन से कानून माने जाएंगे?
पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय के समक्ष एक बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका (हेबियस कॉर्पस पेटीशन) याचिकाकर्ता जावेद द्वारा ने अपनी पत्नी (जिसकी उम्र विवाह के समय 16 वर्ष थी) को न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करने एवं उस नाबालिग की कस्टडी प्राप्त करने हेतु प्रस्तुत की। याचिकाकर्ता के अनुसार उसका एवं नाबालिग का विवाह मुस्लिम पर्सनल लॉ अनुसार पूर्ण रूप से सही है क्योंकि मुस्लिम पर्सनल लॉ अनुसार तरुणाई (puberty) की उम्र 15 वर्ष है और निकाह के समय नाबालिग बालिका की उम्र 16 वर्ष थी। याचिकाकर्ता की ओर से पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय द्वारा पूर्व में युनुस खान के प्रकरण में पारित आदेश का हवाला देते हुए स्वयं के प्रकरण को स्वीकार करने का अनुरोध किया गया।
युनुस खान के प्रकरण में पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय द्वारा मुस्लिम पर्सनल लॉ के सिद्धांतों को दृष्टिगत रखते हुए यह प्रतिपादित किया था कि मुस्लिम बालिका का निकाह 15 वर्ष की आयु में स्वीकार्य है। न्यायालय ने अपने निर्णय में पुस्तिका “मुल्लाज प्रिंसिपल्स ऑफ मोहम्मदन लॉ” में वर्णित अनुच्छेद 251 का हवाला दिया जिसमें वर्णित है कि –
- कोई भी मुस्लिम, जो स्वस्थ चित्त का हो तथा जिसने तरुणाई की आयु पार कर ली हो, का निकाह उसकी सहमति से हो सकता है।
- मानसिक रूप से अक्षम अथवा ऐसा मुस्लिम जिन्होंने तरुणाई की आयु पार नहीं की हो का निकाह उनके पालकों द्वारा अनुबंध कर किया जा सकता है।
- किसी मुस्लिम का निकाह जो कि स्वस्थ चित्त का हो और तरुणाई की उम्र पार कर चुका हो, उसकी सहमति के बिना हुआ हो तो शून्य माना जाएगा।
- साथ ही किसी विशिष्ट साक्ष्य के अभाव में तरुणाई की उम्र 15 वर्ष मानी गई है।
फैज बरुद्दीन द्वारा लिखी ‘मुस्लिम लॉ’ की पुस्तक के अनुच्छेद 27 के अनुसार किसी विपरीत साक्ष्य के अभाव में तरुणाई की उम्र लड़कों के लिए 15 वर्ष एवं लड़कियों के लिए 9 वर्ष है।
इन्हीं तर्कों के प्रकाश में युनुस खान के प्रकरण में नाबालिग बालिका के निकाह, जिसकी उम्र 15 वर्ष से अधिक हो, को सही माना एवं अंत में न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया कि नाबालिग जिसकी उम्र 15 वर्ष से अधिक है और मुस्लिम समुदाय से है का निकाह बाल विवाह निषेध अधिनियम के अंतर्गत अपराध की श्रेणी में नहीं आता है।
इस निर्णय और पूर्व में पारित अन्य निर्णयों में प्रतिपादित सिद्धांतों अनुसार जावेद को उसकी 16 वर्ष आयु पत्नी की निगरानी (custody) 30 सितंबर 2022 को जारी आदेश के द्वारा सौप दी गई।
एक अन्य प्रकरण में कर्नाटक उच्च न्यायालय के समक्ष आवेदक अलीम पाशा द्वारा जमानत याचिका दायर की गई। आवेदक पर पोक्सो कानून की धारा 4 तथा 6, एवं बाल विवाह निषेध अधिनियम की धारा 9 तथा 10 के अंतर्गत अपराध दर्ज था। मामला कुछ यूं था, आवेदक अलीम पाशा की पत्नी (नाबालिग) सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में जांच करवाने गई और यह पता लगा कि उसकी उम्र 17 वर्ष है और वह गर्भवती है। इस कारण आवेदक पर अपराध पंजीबद्ध किया गया।
आवेदक की ओर से यह तर्क प्रस्तुत किया गया कि नाबालिग उसकी विवाहित पत्नी है और मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुसार उनका निकाह 15 वर्ष की आयु के उपरांत हुआ है, निकाह के समय नाबालिग की उम्र 15 वर्ष से अधिक थी। इस कारण निकाह पूर्णतः कानूनी है। न्यायालय ने यह तर्क सही नहीं माना और प्रतिपादित किया कि पोक्सो कानून अनुसार शारीरिक संबंध बनाने की न्यूनतम आयु 18 वर्ष है और पोक्सो कानून सभी पर्सनल लॉ का अधिक्रमण (supersede) करता है।
परंतु न्यायालय द्वारा आवेदक को जमानत दे दी गई क्योंकि यह माना गया कि नाबालिग की आयु 17 वर्ष है और वह अपना भला-बुरा भली भांति समझ सकती है। नाबालिग द्वारा वर्णित किया कि निकाह सहमति के बिना हुआ है पर इस हेतु प्रथम दृष्टया कोई साक्ष्य/सबूत प्रस्तुत नहीं किया है और यह बात नाबालिग द्वारा माता-पिता के दबाव में भी कही जा सकती है। साथ ही यह भी उल्लेखित किया कि निकाह कानूनी है और आवेदक द्वारा निकाह से संबंधित समस्त साक्ष्य पहले ही प्रस्तुत कर दिए हैं।० इसलिए जमानत देने पर भी प्रकरण पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ेगा, इस कारण जमानत का लाभ दिया गया।
इस बारें में संवैधानिक तौर पर बहुत महत्वपूर्ण कुछ शोचनीय विषय इस प्रकार हैं:
- क्या पर्सनल लॉ अथवा कस्टमरी लॉ के आधार पर संविधान के सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए विवाह की न्यूनतम आयु में अंतर हो सकता है?
- क्या किसी पर्सनल लॉ अथवा कस्टमरी कानूनी/विधियों एवं बच्चों से संबंधित कानूनों में कोई विरोधाभास हो तो कौन से कानून माने जाएंगे?
- संविधान अनुसार व्यक्ति का जीवन, स्वास्थ्य, गरिमा और स्वनिर्णय महत्वपूर्ण हैं अथवा पर्सनल लॉ एवं कस्टमरी कानूनी/विधियों में वर्णित सिद्धांत?
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष एक प्रकरण लंबित है जिसमें न्यायालय को यह जांच करना है कि क्या मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुसार मुस्लिम लड़कियों का निकाह 15 वर्ष की आयु में सही है या नहीं?
साथ ही उत्तराखंड उच्च न्यायालय के समक्ष एक बहुत महत्वपूर्ण जनहित याचिका लंबित है जिसमें यह प्रार्थाना की गई है कि, शासन को यह निर्देशित किया जाए कि शासन ऐसा तंत्र स्थापित करे/आदेश जारी करें कि 18 वर्ष से कम उम्र के लड़कियों का विवाह चाहे किसी भी धर्म-समाज आदि की हों संभव नहीं है और न ही 18 वर्ष से कम उम्र में किसी भी लड़की का विवाह नहीं होना चाहिए। (इस प्रकरण में केंद्र व राज्य सरकारों को जवाब देने हेतु 19 नवंबर तक का समय न्यायालय द्वारा दिया गया है)।
उपरोक्त वर्णित दोनों ही प्रकरणों में एक हद तक 18 वर्ष से कम आयु के मुस्लिम बच्चों के विवाह हो कानूनी माना गया, केवल कर्नाटक उच्च न्यायालय द्वारा शारीरिक संबंध को पोक्सो अधिनियम का उल्लंघन माना है। इस उल्लंघन पर कोई विशेष टिपण्णी नहीं की गई। कानूनी तौर पर 18 वर्ष से कम आयु की बालिकाओं से शारीरिक संबंध स्थापित करना अपराध है और बालिका की सहमति को कोई अर्थ नहीं है। संविधान में बच्चों से जुड़े कई प्रावधान हैं और संवैधानिक मूल्यों को स्थापित करने हेतु ही पोक्सो, जेजे कानून जैसे कई केंद्रीय कानून बनाए गए हैं।
मेरे अनुसार कोई भी कानून जो कि किसी विशेष तबके हेतु और विशेष उद्देश्य हेतु बनाया गया हो, वह किसी भी साधारण कानून के प्रावधानों को अधिक्रमित अवश्य करेगा। पर्सनल लॉ भारत की विविधता हेतु आवश्यक हैं, परंतु विशेष कानूनों के ऊपर पर्सनल लॉ को दर्जा दिया जाना, न्यायोचित नहीं है और ऐसा करना संवैधानिक मूल्यों को ताक पर रखना ही होगा। भारतीय संविधान और बच्चों से जुड़े कानूनों में ‘बच्चों’ में किसी भी आधार पर भेदभाव नहीं किया है, अतः मेरी राय है कि उपरोक्त वर्णित दोनों ही निर्णय संवैधानिक मूल्यों को ध्यान में रखकर नहीं दिए गए हैं, और कहीं न कहीं एक विपरीत दिशा की ओर ले जा रहे हैं।