पंडित नेहरु ने आज़ादी के पहले कर दी थी आज़ादी की घोषणा!

भारत की आज़ादी के घटनाक्रम कई बार चौंका देते हैं। यूँ तो भारत 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्र हुआ था, लेकिन 13 दिसंबर 1946 को ही पंडित जवाहरलाल नेहरु ने “भारतीय स्वतंत्रता का घोषणा पत्र” संविधान सभा में पेश कर दिया था। 8 बिन्दुओं के इस घोषणा पत्र की पहली घोषणा थी – “यह विधान-परिषद् (संविधान सभा) भारतवर्ष को एक पूर्ण स्वतंत्र जनतंत्र घोषित करने का दृढ़ और गंभीर संकल्प प्रकट करती है और निश्चय करती है कि उसके भावी शासन के लिए एक विधान बनाया जाए”।

अपने वक्तव्य में उन्होंने कहा कि “हम कहते हैं कि हमारा यह दृढ़ और पवित्र निश्चय है कि हम सर्वाधिकार्पूर्ण स्वतंत्र राष्ट्र कायम करेंगे। यह ध्रुव निश्चय है कि भारत सर्वाधिकारपूर्ण स्वतंत्र प्रजातंत्र होकर रहेगा। जब भारत को हम सर्वाधिकारपूर्ण स्वतंत्र राष्ट्र बनाने जा रहे हैं तो किसी बाहरी शक्ति को हम राजा न मानेंगे और न किसी स्थानीय राजतंत्र की ही तलाश करेंगे। इस घोषणा पत्र को संविधान सभा के सभी सदस्यों ने खड़े होकर सहमति दी और स्वीकार किया।

आज़ादी से पहले ही स्वीकार कर लिए गए मूलभूत अधिकार

सरदार वल्लभ भाई पटेल के मूलभूत अधिकारों से गहरे सम्बन्ध रहे हैं। 26 से 31 मार्च 1931 को सरदार पटेल की अध्यक्षता में कराची में कांग्रेस का ऐतिहासिक राष्ट्रीय अधिवेशन हुआ। इसी अधिवेशन में कांग्रेस ने मूलभूत अधिकारों और राष्ट्रीय आर्थिक कार्यक्रम का प्रस्ताव पारित किया था। यह प्रस्ताव पंडित जवाहर लाल नेहरू ने तैयार किया थे। मूलभूत अधिकारों में अभिव्यक्ति और प्रेस की स्वतंत्रता, संगठन बनाने की स्वतंत्रता, सार्वभौम वयस्क मताधिकार, समानता का अधिकार, सभी धर्मों के प्रति राज्य का तटस्थ भाव, निःशुल्क और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा का अधिकार, अल्पसंख्यकों और विभिन्न भाषाई क्षेत्रों की संस्कृति और भाषा की सुरक्षा की बात कही गई।

इसी तरह राष्ट्रीय आर्थिक कार्यक्रमों में लगान और मालगुजारी में कटौती, अलाभकर जोतों को लगान से मुक्ति, किसानों को क़र्ज़ और सूदखोरों से सुरक्षा, गर्भावस्था में महिलाओं के लिए अवकाश और प्रमुख उद्योगों, परिवहन और खदान को सरकार के अधीन रखने सरीखे विषय शामिल थे।

इसके लगभग 26 साल बाद बाद संविधान सभा ने 24 जनवरी 1947 को अल्पसंख्यक समुदाय और मौलिक अधिकार सम्बन्धी समिति का गठन किया। तब तक भारत आज़ाद भी नहीं हुआ था। उस समिति के अध्यक्ष भी सरदार पटेल ही बनाए गए। और उन्होंने 23 अप्रैल 1947 को मौलिक अधिकारों का प्रारूप संविधान सभा के अध्यक्ष को सौंप दिया। इस पर 29 अप्रैल 1947 को चर्चा भी शुरू हो गई और प्राथमिक स्वरुप पर 2 मई 1947 तक चर्चा भी हो गई। यह एक महत्वपूर्ण बात है कि भारत के संविधान निर्माताओं ने भारत के आज़ाद होने से लगभग साढ़े चार महीने पहले ही मूलभूत अधिकारों की रूपरेखा को स्वीकार कर लिया और वह भी सरदार वल्लभ भाई पटेल की अहम् भूमिका के साथ।

अपना संविधान बनाने की शुरुआत हुई वर्ष 1895 से

हमें यह लगता है कि भारत का संविधान बनने की प्रक्रिया 9 दिसंबर 1946 से ही शुरू हुई; लेकिन तथ्य कुछ और भी हैं। वास्तव में द कांस्टीयूशन ऑफ इंडिया बिल, 1895 (स्वराज बिल) के नाम से पहला प्रारूप बनाया गया था। यह प्रारूप किसने लिखा, यह तो स्पष्ट नहीं हो पाया, लेकिन यह माना जाता है कि यह बाल गंगाधर तिलक के विचारों से प्रभावित था। इस बिल के प्रस्तोता का मानना था कि हालांकि अभी भारतीय उन अधिकारों का उपयोग करने में सक्षम नहीं हैं, जिनकी परिकल्पना इस विधेयक में की गयी थी, लेकिन उनकी अपेक्षा थी कि भविष्य में भारत के लोग अपने देश की क्षमताओं का अधिकतम लाभ उठाने में सक्षम होंगे। इस विधेयक में न्याय, सम्पदा, आश्रय, शिक्षा, मतदान, अभिव्यक्ति जैसे अधिकारों का जिक्र किया गया था। इसके बाद श्रीमती एनीबेसेंट की पहल पर द कॉमनवेल्थ ऑफ इंडिया बिल, 1925 तैयार किया। और इसे ब्रिटिश हाउस ऑफ कॉमंस में पेश करने के लिए भेजा भी गया लेकिन सत्तारूढ़ लेबर पार्टी के चुनाव हार जाने के कारण यह विधेयक रखा रह गया। इसके बाद वर्ष 1928 में सभी महत्वपूर्ण राजनीतिक दलों की तरफ से पंडित मोतीलाल नेहरु की अध्यक्षता में अपना संविधान तैयार करने की पहल हुई। इस समिति की रिपोर्ट को नेहरु रिपोर्ट कहा गया। इसके बाद तेज बहादुर सप्रू, एम. एन. राय, डा. बी. आर. आंबेडकर आदि ने भी संविधान के प्रारूप बनाए। यानी 50 से ज्यादा सालों तक यह पहल चली।

भारत का संविधान सर्वसम्मति से पारित हुआ

संविधान का सर्वसम्मति से पारित होना एक साधारण घटना नहीं है क्योंकि कई बार यह मांग की जाती है कि संविधान पर मतदान या जनमत संग्रह हो, लेकिन भारत के संविधान को बिना जनमत संग्रह या बिना मतदान के सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया क्योंकि संविधान सभा में भारत के सभी समूहों, प्रान्तों और रियासतों के प्रतिनिधि शामिल थे और इसकी प्रक्रिया बहुत सहभागी थी। सबसे पहले संविधान सभा ने 46 दिन तो इसी बात पर चर्चा-बहस की कि हम किस तरह का संविधान बनाना चाहते हैं? संविधान सभा ने कुल 165 दिन और संविधान की मसौदा समिति ने 141 दिन बैठकें कीं। इस तरह कुछ 266 दिन चर्चा- संवाद-वाद विवाद हुआ। इस दौरान संविधान के तीन पारूप बने और इसके मसौदे पर एक-एक अनुच्छेद पर 101 दिन चर्चा-बहस हुआ। सभा के सदस्यों ने संविधान के मसौदे पर कुल 7635 संशोधन समिति को भेजे गये। इनमें से 2473 संशोधन संविधान सभा में प्रस्तुत किए गये और उन वाद-विवाद हुआ। संविधान सभा के चर्चाओं-बहसों में भारत के प्रान्तों से चुने गये 210 सदस्यों और रियासतों के प्रतिनिधि समूह में से 64 सदस्यों ने संविधान सभा की बहस में अपनी बात रखी। संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था के इतिहास में इस प्रक्रिया को हमेशा बहुत सम्मान के साथ देखा जाएगा।

14 अगस्त 1947 की प्रतिज्ञा

14 अगस्त 1947 की रात 11 बजे से संविधान सभा का सत्र आरम्भ हुआ। इसके ठीक एक घंटे बाद भारत आज़ाद होने जा रहा था। सबसे पहले आज़ादी के आन्दोलन में त्याग और बलिदान करने वालों की स्मृति में मौन धारण किया गया। इसके बाद पंडित जवाहर लाल नेहरु ने संविधान सभा में यह कहकर प्रतिज्ञा सम्बन्धी प्रस्ताव प्रस्तुत किया, ‘एक बड़ी मंजिल पूरी हुई है, ऐसे वक्त में पहला काम हमारा यह हो कि हम एक प्राण और एक नयी प्रतिज्ञा फिर से करें। इकरार करें, आइन्दा हिन्दुस्तान और हिन्दुस्तान के लोगों की खिदमत करने का।’ उन्होंने एक प्रतिज्ञा पढ़ी, जिसे संविधान सभा ने स्वीकार किया। इसके बाद सभा के अध्यक्ष ने यह प्रतिज्ञा अंतिम रूप में पढ़ी और स्वीकर किया।

राष्ट्रीय ध्वज के रंग साम्प्रदायिक प्रतीक नहीं हैं! (22 जुलाई 1947) अकसर यह प्रचारित किया जाता है कि भारत के राष्ट्रीय ध्वज में हरा रंग मुस्लिम और केसरिया रंग हिन्दू समाज का प्रतिनिधित्व करता है। लेकिन जब संविधान सभा में तिरंगे से सम्बंधित प्रस्ताव रखा गया तब पंडित जवाहर लाल नेहरु ने कहा कि “कुछ लोग ध्वज के महत्व को न समझ कर साम्प्रदायिक रूप से सोचने लगे हैं और विश्वास करने लगे हैं कि अमुक भाग अमुक सम्प्रदाय का घोतक है इत्यादि। लेकिन मैं यह कह सकता हूं कि जब झंडे के बारे में विचार गया था, उस समय इसके साथ कोई साम्प्रदायिक चीज़ न थी”।

“हमने झंडे के एक ऐसे नमूने पर विचार किया था, जो सुन्दर हो, क्योंकि राष्ट्र का प्रतीक देखने में सुन्दर होना चाहिए। हमने उस झंडे का विचार किया जो अपने पूरे रूप में तथा पृथक-पृथक भागों में राष्ट्र की प्रवृत्ति का, राष्ट्र की परम्परा का और परम्परा के मिश्रित रूप का जो हज़ारों वर्ष से भारत में प्रचलित है, प्रतीक हो। मुझे विश्वास है कि यह झंडा साम्राज्य का, साम्राज्यवाद का, किसी व्यक्ति पर आधिपत्य जमाने का प्रतीक नहीं है, वह स्वतंत्रता का झंडा है और वह भी केवल हमारी स्वतंत्रता का नहीं, वरन उन समस्त मनुष्यों की, जो भी इसे देखे, यह स्वतंत्रता का चिह्न है”।

राष्ट्र को पहला तिरंगा भेंट किया महिला समाज ने

14 अगस्त 1947 को संविधान सभा की सदस्य श्रीमती हंसा मेहता ने राष्ट्र को भारतीय महिलाओं की तरफ से तिरंगा भेंट किया था। तय कार्यक्रम ने अनुसार श्रीमती सरोजिनी नायडू को यह भूमिका निभाना था। श्रीमती हंसा मेहता ने 74 महिलाओं के नाम पढ़े थे, जिनमें अमृत कौर, हन्नाह सेन। लक्ष्मी बाई राजवाड़ी, गोशी बेन कैप्टन, अवंतिका बाई गोखले, मुथु लक्ष्मी रेड्डी, जानकी बाई बजाज, रायवन तैय्यबजी, अबला बोस, असवाह हुसैन, कुदसिया ऐजाज रसूल, मारग्रेट कजिन्स, मेमोबाई, मृदुला साराभाई शामिल थीं।

श्रीमती हंसा मेहता के पास अलग-अलग समुदायों की सौ महिलाओं की सूची थी, जो इस अवसर पर मौजूद रहना चाहती थी। यह एक भावनात्मक पल था। श्रीमती हंसा मेहता ने कहा था कि इस परिस्थिति में यह उपयुक्त ही है कि “पहली राष्ट्रीय पताका जो इस महिमा मंडित भवन पर सुशोभित हो, उसे भारतीय महिला समाज एक उपहार की तरह उपस्थित करे। यह पताका हमारे महान भारत का प्रतीक हो। यह सदा फहराती रहे और विश्व भर पर आज जो संकट की कालिमा छाई है, उसमें उसे यह प्रकाश दे। इसकी छत्र-छाया में रहने वाले प्राणियों को यह सुख और शान्ति दे”।

राष्ट्रीय ध्वज और खादी चक्र युक्त तिरंगे को राष्ट्रीय ध्वज के रूप में संविधान सभा ने स्वीकार कर लिया। इसके पश्चात 15 अगस्त 1947 यानी आज़ादी के दिन की तैयारी के लिए संविधान सभा कार्यालय ने किसी कपड़ा मिल को 3,000 झंडे बनाने का आदेश दे दिया। जब इस बात का पता डा. राजेन्द्र प्रसाद को चला तो उन्होंने तत्काल उस आदेश को रद्द करवाया और 27 जुलाई 1947 को पंडित जवाहर लाल नेहरु को पत्र लिखा कि हमें केवल हथकरघे से बने हुए झंडों का ही उपयोग करना चाहिए. चूंकि हमारे संविधान सभा के प्रस्ताव में यह उल्लेख नहीं था कि राष्ट्रीय ध्वज हथकरघे और खादी के होने चाहिए, इसलिए आवश्यक है कि इससे सम्बंधित निर्देश सभी शासकीय कार्यालयों को भेजे जाएं। अगर कोई अन्य कपड़ा इस्तेमाल किया गया तो इससे बापू की भावनाओं को ठेस पहुंचेगी। 27 जुलाई 1947 को ही नेहरु जी ने इसका सहमति के साथ जवाब दिया और सभी कार्यालयों को खादी के कपड़े के ध्वज फहराने के निर्देश दिए गये। भारत के संविधान से मिला हर वयस्क को मतदान का अधिकार भारत के संविधान ने हर वयस्क, जिनमें महिलायें भी शामिल थीं, को मतदान करने का अधिकार दिया। लेकिन ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन रहते हुए भारत के आम लोगों को मतदान का अधिकार नहीं था। वर्ष 1919 में भारत सरकार अधिनियम के अंतर्गत देश के केवल 2.8 प्रतिशत लोगों को ही मतदान का अधिकार मिला था। केवल वे ही मतदान कर सकते थे, जो भू-राजस्व चुकाते थे, विश्वविध्यालय की सीनेट के सदस्य थे, वाणिज्य और उद्योग क्षेत्र के प्रतिनिधि थे, जिन्हें कोई विशेष पदवी दी गई थी, जिनके पास निर्धारित मात्रा में संपत्ति और स्थानीय निकाय में रोज़गार था। इसके बाद भारत सरकार अधिनियम, 1935 के अंतर्गत लगभग 13 से 14 प्रतिशत लोगों (3।1 करोड़) को मतदान का अधिकार दिया गया।

क्या संविधान भारतीय संविधान है?

कहा जाता है कि भारत का संविधान वास्तव में ब्रिटिश सम्राट के सरकार का संविधान है, लेकिन यह सच नहीं है। इसके तथ्य इस प्रकार हैं – कैबिनेट मिशन योजना प्रस्तुत करने के बाद कैबिनेट मिशन के वरिष्ठ सदस्य भारत के लिए ब्रिटेन के सचिव पैथिक लारेंस से 17 मई 1946 को पत्रकार वार्ता में पूछा गया कि क्या भारत की संविधान सभा को संप्रभु या स्वतंत्र माना जा सकता है क्योंकि भारत में ब्रिटेन के सैनिक अब भी मौजूद हैं? इसके जवाब में पेथिक लारेंस ने कहा था कि बिलकुल, भारत की संविधान सभा में केवल भारतीय ही हैं।

भारत ब्रिटिश राष्ट्रमंडल से बाहर है। जैसे ही ऐसी कोई व्यवस्था बनती है, जो पूरी तरह से भारतीयों के हाथ में हो, वैसे ही ब्रिटेन का सबसे पहला कदम यही होगा कि ब्रिटेन के सैनिक वापस बुला लिए जाएं। संविधान बनने तक ब्रिटेन के सैनिक भारत में इसलिए नहीं हैं, ताकि वे संविधान बनाने की प्रक्रिया को प्रभावित कर सकें। संविधान सभा पूरी तरह से स्वतंत्र है।

 * के. एम. मुंशी स्वतंत्रता आन्दोलन के सिपाही और फिर भारत की संविधान सभा के सदस्य थे। उन्होंने अपनी पुस्तक “इंडियन कांस्टीट्यूशनल डाक्यूमेंट्स – पिलग्रिमेज टू फ्रीडम, भाग-1, पृष्ठ 112” पर लिखा है – 9 दिसंबर 1946 को ब्रिटिश भारत के वायसराय लार्ड वावेल दिल्ली से बाहर चले गये थे। तथ्य यह है कि लार्ड वावेल संविधान सभा की शुरुआत खुद करना चाहते थे, लेकिन कांग्रेस के नेता ऐसा नहीं होने देना चाहते थे। जब लार्ड वावेल संविधान सभा की शुरुआत नहीं कर पाए तो वे उस दिन दिल्ली से बाहर चले गए।

राजद्रोह को हटाया संविधान सभा ने (2 दिसंबर 1948)

जब संविधान बन रहा था तब उसमें एक प्रस्तावित प्रावधान था कि लोगों को अभिव्यक्ति की और संगठन बनाने, भारत में कहीं भी निवास करने की स्वतंत्रता होगी, लेकिन लेकिन यह स्वतंत्रता सरकार को मानहानि, शिष्टता का खंडन करने के अपराध तथा राजद्रोह जैसे विषय पर क़ानून बनाने से नहीं रोकेंगे; यानी संविधान के मसौदे में “राजद्रोह” का उल्लेख था। इस पर 1 दिसंबर 1948 को सभा के सदस्य के. एम. मुंशी ने संशोधन का प्रस्ताव दिया कि इस प्रावधान में से “राजद्रोह” शब्द निकाल देना चाहिए। चूंकि अब हमारा शासन जनतंत्रात्मक है, हमें शासन की आलोचना का स्वागत करना चाहिए। हमें सरकार की आलोचना और राज्य की सुरक्षा और सुव्यवस्था को संकट में डालने वाले काम में भेद करना चाहिए। वास्तव में जनतंत्र का प्राण ही सरकार की आलोचना है”। आखिर में संविधान में से “राजद्रोह” शब्द निकाल दिया गया।

अपना अच्छा संविधान असफल होगा यदि…….! 25 नवम्बर 1949 को संविधान सभा में अपना आखिरी वक्तव्य देते हुए डा. बी. आर. आंबेडकर ने कहा था मैं इस संविधान के गुणों के बारे में कुछ नहीं कहूंगा। संविधान बस विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका जैसे अंगों के लिए व्यवस्था कर सकता है। संविधान का क्रियान्वयन पूरी तरह से संविधान पर निर्भर नहीं करता है। संविधान चाहे जितना भी अच्छा हो, यदि उसे लागू करने वाले लोग बुरे हैं तो वह निःसंदेह बुरा हो जाता है। संविधान का क्रियान्वयन जनता और उसके द्वारा स्थापित किये गए राजनैतिक पक्ष (दल) हैं, जो उसकी इच्छा और नीति पालन करने का साधना होते हैं। यह कौन कह सकता है कि भारत की जनता और उसके द्वारा चुने गए राजनैतिक पक्ष किस प्रकार का व्यवहार करेंगे? डा. आंबेडकर इस वक्तव्य के ठीक बाद डा. राजेन्द्र प्रसाद ने भी ऐसी ही बात कही – “यह संविधान किसी बात के लिए उपबंध करे या न करे, देश का कल्याण उस रीति पर निर्भर करेगा, जिसके अनुसार देश का प्रशासन किया जाएगा। देश का कल्याण उन व्यक्तियों पर निर्भर करेगा, जो देश पर प्रशासन करेंगे। यह एक पुरानी कहावत है कि देश जैसी सरकार के योग्य होता है, वैसी ही सरकार उसे प्राप्त होती है। हमारे संविधान में ऐसे उपबंध हैं, जो किसी न किसी रूप में कुछ लोगों को आपत्तिजनक प्रतीक होते हैं। हमें यह मान लेना चाहिए कि दोष तो अधिकतर अवाम, देश की परिस्थिति और जनता में है। जिन व्यक्तियों का निर्वाचन किया जाता है, यदि वह योग्य, चरित्रवान और ईमानदार हैं तो वे एक दोषपूर्ण संविधान को भी सर्वोत्तम संविधान बना सकेंगे। यदि उनमें इन गुणों का अभाव होगा तो यह संविधान देश की सहायता नहीं कर सकेगा”। उद्देशिका में ईश्वर, देवी और महात्मा गांधी का नाम क्यों नहीं आया? 17 अक्टूबर 1947 को संविधान सभा में उद्देशिका पर बहस-चर्चा हो रही थी। तब सभा के सदस्य एच। वी। कामत ने संशोधन रखा कि उद्देश्यिका में “हम, भारत के लोग” के पहले लिखा जाए – ‘ईश्वर के नाम पर”…….. यानी ईश्वर के नाम पर, हम, भारत के लोग……लिखा जाए। रोहिणी कुमार चौधरी का प्रस्ताव था कि “ईश्वर का नाम लेकर” के स्थान पर “देवी का नाम लेकर” रखना स्वीकार करें। हम लोग, जो शक्ति सम्प्रदाय के हैं, देवी की पूर्णतया उपेक्षा कर केवल “ईश्वर” का आह्वान करने का विरोध करते हैं। यदि हम इश्वर का नाम लाते हैं, तो हमें देवी का नाम भी लाना चाहिए”। प्रो। शिब्बंलाल सक्सेना उद्देशिका में महात्मा गांधी का नाम जुड़वाना चाहते थे जबकि पंडित गोविन्द मालवीय का प्रस्ताव था कि प्रस्तावना ऐसी हो – “परमेश्वर की कृपा से, जो पुरुषोत्तम तथा ब्रह्माण्ड का स्वामी है…….. एच. वी. कामत ने अपना संशोधन वापस नहीं लिया। वे ईश्वर का नाम जुड़वाना चाहते थे। तब मत विभाजन हुआ और ईश्वर का नाम जोड़ने के पक्ष में 41 और विपक्ष में 68 मत पड़े। यानी उद्देश्यिका में ईश्वर का नाम नहीं जोड़ना तय किया गया। ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि भारत में कई धर्मों, सम्प्रदायों और विश्वासों के लोग रहते हैं। कुछ लोग ईश्वर की सत्ता में विश्वास नहीं रखते हैं और कुछ समुदाय प्रकृति को अपना आराध्य मानते हैं। ऐसे में ईश्वर में विश्वास या विश्वास न करना बेहद निजी व्यवहार माना गया। आम भारतीयों ने भी दिए थे संविधान के मसौदे पर सुझाव 21 फरवरी 1948 को संविधान मसौदा समिति की तरफ से डा. भीम राव आंबेडकर ने संविधान का मसौदा संविधान सभा के सभापति/अध्यक्ष डा. राजेंद्र प्रसाद को सौंप दिया था। इस पर सरकार के विभागों और राजनीतिक दलों में तो संवाद हुआ ही, लेकिन संविधान के मसौदे को छाप पूरे देश में प्रसारित भी करवाया गया। इतिहासकार और एशियाई अध्ययन विभाग, हैफा, इजराइल की ओर्नित शानी ने अपने एक शोध पत्र में लिखा कि इसके बाद कई व्यक्तियों और समूहों ने संविधान सभा को अपने सुझाव और विचार भेजे। कई लोग संविधान निर्माण की प्रक्रिया का हिस्सा बनना चाहते थे। वेद प्रचार मंडल ने तो अंतरजातीय भोज और विवाह, राज्य के द्वारा किसी धर्म की स्वीकार्यता पर प्रतिबन्ध सरीखे प्रस्तावों के साथ संविधान का एक प्रारूप ही जमा किया था। एक सज्जन के. वी. सुंदरेसा अय्यर चाहते थे कि पारम्परिक व्यवहार में राज्य का दखल न हो, यहां तक कि छुआछूत के व्यवहार में भी। इतना ही नहीं संविधान सभा की बहस और कार्यवाही पर छोटी-छोटी पुस्तिकाएं भी बनाई गयीं।

संविधान सभा में जम्मू और कश्मीर का संविधान

संविधान सभा के सदस्य चार सदस्य ऐसे थे, जिन्हें दो संविधान सभाओं में होने और दो संविधान बनाने की भूमिका निभाने का अवसर मिला। ये थे – शेख अब्दुल्ला, मोतीराम बैगरा, मिर्ज़ा अफज़ल बेग और मौलाना मोहम्मद मसूदी (कांस्टीट्यूशन आफ इंडिया डाट नेट)। भारत की संविधान सभा के ये चारों सदस्य भारत के संविधान पर हस्ताक्षर करने के लिए 22 जनवरी 1950 को सभा के अन्य सदस्यों के साथ थे। भारत के संविधान के अनुच्छेद 370 के मुताबिक़ जम्मू और कश्मीर को अपना संविधान भी बनाने का अधिकार दिया गया था। इस काम में शेख अब्दुल्ला ने जवाहर लाल नेहरु और अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर से ही सहायता मांगी थी लेकिन इस प्रश्न का उत्तर खोजा जाना था कि भारत से जम्मू और कश्मीर का रिश्ता क्या होगा, रियासत की भूमिका की होगी आदि? 27 अक्टूबर 1950 को शेख अब्दुल्ला के दल जम्मू और कश्मीर नेशनल कांफ्रेंस ने भारत सरकार से वयस्क मताधिकार के आधार पर संविधान सभा गठित करने के लिए संयोजन करने का प्रस्ताव पारित किया। अगस्त-सितम्बर 1951 में वहां चुनाव हुए और सभी 75 स्थान नेशनल कांफ्रेंस ने जीते। 31 अक्टूबर 1951 को संविधान सभा की श्रीनगर में बैठक हुई जिसमें शेख अब्दुल्ला ने घोषणा की कि निश्चित शर्तों के अधीन जम्मू और कश्मीर भारत का हिस्सा होगा। संविधान सभा की तरफ से यह घोषणा होना बहुत महत्वपूर्ण था। जम्मू और कश्मीर संविधान सभा ने संविधान बनाने की ठीक वही पद्धति अपनाई, जो भारत ने अपनाई थे। उसी तरह की समितियां बनाई गईं। समितियों की रिपोर्ट चर्चा और निर्णय के लिए संविधान सभा में रखी गईं। जम्मू और कश्मीर की संविधान सभा की बैठकें 5 सालों में 56 दिन चलीं। और 19 नवम्बर 1956 को जम्मू और कश्मीर ने अपना संविधान स्वीकार किया। इस संविधान घोषणा करता है कि “जम्मू और कश्मीर भारतीय संघ का अभिन्न हिस्सा है और रहेगा”। सिखों संविधान निर्माण की प्रक्रिया से खुद को अलग कर लिया था केबिनेट मिशन योजना ने भारत की संविधान सभा के लिए सिख समुदाय के लिए जितने स्थानों का निर्धारण किया था, उससे सिख नेता नाराज़ थे। 25 मई 1946 तथा 10 जून 1946 को सिख पंथिक कांफ्रेंस ने कैबिनेट मिशन योजना से असहमति जताते हुए संविधान निर्माण की प्रक्रिया से खुद को अलग कर लिया। लेकिन 10 अगस्त 1946 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने उनके हितों की रक्षा का आश्वासन देते हुए सिखों से संविधान सभा में शामिल होने का अनुरोध किया। फिर संवाद के बाद 14 अगस्त 1946 को सिख पंथिक प्रतिनिधि बोर्ड ने कांग्रेस के आश्वासन पर संविधान सभा में शामिल होने का निर्णय लिया। हाथ से लिखा गया संविधान भारतीय संविधान के पूरी तरह तैयार होने के बाद इसकी मूल प्रति हिंदी और अंग्रेजी में हाथ से लिखवाई गयी थी। संविधान की इस हस्तलिखित प्रति पंडित जवाहर लाल नेहरु के आग्रह पर प्रेम बिहारी नारायण रायजादा ने तैयार किया था। हाथ से लिखे गये इस दस्तावेज में कहीं भी कोई गलती नहीं है, यहां तक कि स्याही का कोई अतिरिक्त बिंदु भी नहीं गिरा दिखाई देगा। पंडित जवाहरलाल नेहरु ने जब मानदेय की आवश्यकता के बारे में पूछा, तो उन्होंने कहा था कि “मुझे एक पैसा भी नहीं चाहिए। ईश्वर की अनुकंपा से मेरे पास सबकुछ है और मैं अपने जीवन से खुश हूं। बस एक अपेक्षा है। संविधान के हर पृष्ठ पर मैं अपना नाम लिखूंगा और आखिरी पेज पर अपने नाम के साथ अपने दादा का नाम लिखूंगा”। संविधान की मूल प्रतियों पर सबसे आखिरी पृष्ठ पर लिखा है – प्रेम बिहारी नारायण रायजादा (सक्सेना) पुत्र श्री बृजबिहारी नारायण रायजादा सक्सेना। भारत के संविधान में 5,000 सालों के इतिहास का चित्रण भारत का संविधान भारत के इतिहास और संस्कृति को अपने आप में समेटे हुए है। एक तरफ तो सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक बदलाव के मंशा इसकी उद्देशिका में दर्ज है, तो वहीँ दूसरी ओर संविधान के हर भाग पर भारत के इतिहास के संकेत के रूप में एक चित्र उकेरा गया है। ये 22 चित्र बनाये थे शान्ति निकेतन के नंदलाल बोस तथा वहां के कलाकारों ने। ये 22 चित्र 12 विषयों के परिचायक हैं – मोहनजो- दारो काल, वैदिक युग, महाकाव्य काल यानी रामायण और महाभारत, महान जनपद और नंदा काल, मौर्य काल, गुप्त काल, मध्य काल, मुस्लिम/मुग़ल काल, ब्रिटिश काल, भारत का स्वतंत्रता आन्दोलन काल, भारत की स्वतंत्रता का क्रांतिकारी संघर्ष और भारत का प्राकृतिक स्वरुप। इसमें स्थापत्य कला, प्राकृतिक विविधता के चित्र हैं। इसमें राम, लक्ष्मण और सीता, बुद्ध, अर्जुन और कृष्ण, शिवाजी, महावीर, नटराज, अकबर, गुरु गोबिंद सिंह, रानी लक्ष्मी बाई, सुभाष चन्द्र बोस, गांधी जी और टीपू सुलतान के चित्र हैं। संविधान के पृष्ठों की साजसज्जा में ब्योहार राममनोहर सिन्हा ने भी अहम भूमिका निभाई। संविधान सभा की कार्यवाही पर कुल व्यय और उसके दर्शक 26 नवम्बर 1949 को, जिस दिन संविधान सभा में संविधान को अंगीकार किया गया, उस दिन डा. राजेन्द्र प्रसाद ने संविधान सभा को बताया कि लगभग तीन साल तक चली संविधान सभा की प्रक्रिया पर कुल 63,96,721 रुपये का व्यय आया। जब संविधान बन रहा था, तब लगभग 53 हज़ार लोगों ने दर्शक दीर्घा से उस प्रक्रिया को देखा।

संविधान सभा में बोले गए 36 लाख शब्द

पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के अनुसार संविधान सभा में हुई बहसों-चर्चाओं में लगभग 36 लाख शब्द बोले गए थे। संविधान सभा में मसौदा समिति के अध्यक्ष डा. बी. आर. आंबेडकर द्वारा 2,67,544 शब्द बोले गये, क्योंकि उन्हें संविधान सभा में उठाये गये हर प्रश्न और प्रस्तुत किए गये संशोधन प्रस्तावों पर जवाब देना था। जबकि मसौदा समिति के अन्य सदस्य टी. टी. कृष्णामाचारी द्वारा 97,638 शब्द, अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर द्वारा 61,162, के. एम. मुंशी द्वारा 60,056, एन. गोपालस्वामी आयंगर द्वारा 56,025, मोहम्मद सादुल्ला द्वारा 19,868, देबी प्रसाद खेतान द्वारा 4,927, एन. माधव राव द्वारा 3,046 और बी. एल. मित्तर द्वारा 2,811 शब्द बोले गये। संविधान सभा के सदस्यों में एच. वी. कामत ने 1,88,749, नाज़िरुद्दीन अहमद ने 1,46,645, के. टी. शाह ने 1,21,825, शिब्बंनलाल सक्सेना ने 1,14,268, ठाकुरदास भार्गव ने 1,03,775, आर. के. सिधावा ने 88,595 शब्द, जवाहरलाल नेहरु ने 73,804, पी. एस. देशमुख ने 69,557, ह्रदय नाथ काटजू ने 69,158 और एम. अनंतशयनम आयंगर ने 55,357 शब्द कहे। संविधान सभा की महिला सदस्यों में जी. दुर्गाबाई ने 22,905 शब्द, बेगम एजाज़ रसूल ने 10,480 शब्द, रेणुका राय ने 10,312 शब्द, पूर्णिमा बनर्जी ने 9,013 शब्द, दाक्षायणी वेलायुदन ने 4,415 शब्द एनी मेस्करीन ने 2,970 शब्द, सरोजिनी नायडू ने 2,342 शब्द, हंसा मेहता ने 1,837 शब्द, विजयालक्ष्मी पंडित ने 1,164 शब्द और अम्मू स्वामीनाथन 1,066 शब्द बोले थे।

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