गांधी ने जिस संविधान का सपना देखा
30 जनवरी 1948 वह दिन है जब एक कट्टरपंथी ने स्वतंत्रता संघर्ष से जुड़े नेताओं में अग्रणी और देशवासियों के दिलों में पिता का दर्जा रखने वाले मोहनदास करमचंद गांधी की गोली मारकर हत्या कर दी थी। गांधी देश के एक बड़े तबके लिए राष्ट्रपिता थे तो कइयों के लिए वह महात्मा या बापू थे। इतने वर्षों बाद भी गांधी की वैश्विक ख्याति और सत्य-अहिंसा के उनके विचारों की प्रासंगिकता बताती है कि एक विचार के रूप में गांधी की हत्या कर पाना संभव नहीं था। आइए समझने का प्रयास करते हैं कि गांधी के सपनों का भारत कैसा था और वह भारत के लिए कैसा संविधान चाहते थे?
सचिन कुमार जैन
संविधान शोधार्थी एवं अशोका फेलोशिप प्राप्त सामाजिक कार्यकर्ता। ‘संविधान की विकास गाथा’, ‘संविधान और हम’ सहित 65 से अधिक पुस्तक-पुस्तिकाओं का लेखन।
यह सही है कि महात्मा गांधी भारत के संविधान निर्माण की प्रक्रिया से प्रत्यक्ष रूप से नहीं जुड़े थे लेकिन ‘हिंद स्वराज’ और ‘मेरे सपनों का भारत’ समेत उन्होंने जो भी लेखन किया उसमें यह झलक देखी जा सकती है कि गांधी दरअसल किस प्रकार का भारत चाहते थे। भारतीय संविधान की बात करते हुए हमें उस संविधान को भी ध्यान में रखना चाहिए जो महात्मा गांधी के दिलोदिमाग में था। प्रसिद्ध गांधीवादी अर्थशास्त्री श्रीमन नारायण अग्रवाल ने महात्मा गांधी की बातों और उनके लेखन का विश्लेषण करके ‘स्वतंत्र भारत का गांधीवादी संविधान-द गांधियन कांस्टीट्यूशन ऑफ फ्री इंडिया’ नामक एक दस्तावेज तैयार किया था। 60 पन्नों और 22 अध्यायों में विस्तारित इस दस्तावेज में बुनियादी सिद्धांत, मूलभूत अधिकार और कर्तव्य, आंचलिक सरकार, केंद्र सरकार और न्यायपालिका जैसे विषय शामिल थे। इस दस्तावेज की भूमिका में महात्मा गांधी ने लिखा, “श्रीमन नारायण अग्रवाल ने जो लिखा है, वह मेरे विचारों से असंगत नहीं है।”
हिंद स्वराज
गांधी द्वारा लिखी इस पुस्तक में पहली बार हमारा सामना सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संरचनाओं पर गांधी के विचारों से होता है। गांधी जिस उभरते भारत की कल्पना कर रहे थे, इस पुस्तक में उसे नैतिक और भौतिक दोनों स्तरों पर देखा जा सकता है।
औंध का संविधान और गांधी
दक्षिण महाराष्ट्र के सतारा जिले में औंध नामक एक छोटी सी रियासत थी। उस रियासत के शासक ने महात्मा गांधी से प्रभावित होकर अपनी रियासत की सत्ता नागरिकों को सौंपने का निर्णय लिया। गांधी इस बात से प्रसन्न हुए और उन्होंने खुद औंध के लिए एक संविधान तैयार करवाया।
गांधी की सलाह पर तैयार किए गये औंध के संविधान में हर नागरिक को जीवन का अधिकार, अभिव्यक्ति की आजादी, शांतिपूर्ण ढंग से एकत्रित होने का अधिकार, उपासना का अधिकार, कानून के समक्ष समानता का अधिकार, निशुल्क बुनियादी शिक्षा का अधिकार, रोजगार का अधिकार और न्यूनतम वेतन का अधिकार आदि देने पर सहमति बनी। वहां पंचायती राज व्यवस्था कायम की गयी और राजा की शक्तियां निर्धारित करने का काम विधायिका पर छोड़ा गया। शिक्षा, समाज कल्याण, पानी की उपलब्धता, सफाई आदि के काम पंचायत को सौंपे गये।
औंध में विधायिका की व्यवस्था की गयी। वहां कैबिनेट की व्यवस्था भी की गयी जिसके खिलाफ विधायिका अविश्वास प्रस्ताव ला सकती थी। छोटे मोटे मामले पंचायत में निपटाये जाने थे और बड़े मामलों के लिए मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति की गयी थी।
गांधी का रामराज्य
श्रीमन नारायण अग्रवाल ने गांधी के हवाले से रामराज्य को परिभाषित करते हुए लिखा है, ‘‘धार्मिक आधार पर इसे धरती पर ईश्वर के शासन के रूप में समझा जा सकता है। राजनीतिक तौर पर इसका अर्थ है एक संपूर्ण लोकतंत्र जहां रंग, नस्ल, संपत्ति, लिंग के आधार पर कोई भेदभाव न हो। जहां जनता का शासन हो। तत्काल और कम खर्च में न्याय मिले। उपासना, वाक और प्रेस को आजादी मिले और यह सब आत्मनियमन से हो। ऐसा राज्य सत्य और अहिंसा पर निर्मित हो और वहां ग्राम और समुदाय प्रसन्न और समृद्ध हों।’’
गांधी का रामराज्य हमारे संविधान के प्रावधानों और उसमें प्रदत्त अधिकारों से बहुत अधिक मेल खाता है। उसमें जिस आत्मनियमन की बात की गयी है वह कुछ और नहीं बल्कि नागरिक बोध है। गांधी का रामराज्य एक आदर्श संवैधानिक लोकतंत्र की रूपरेखा सामने रखता है। जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता के साथ ग्राम और समुदाय के साथ समृद्धि की बात करता है।
गांधी दुनिया के दूसरे देशों या पश्चिम के देशों की व्यवस्था को सिर-माथे पर बिठाकर भारत का संविधान बनाने के विचार के पक्ष में नहीं थे। महात्मा गांधी ने भारत के संविधान के निर्माण की प्रक्रिया में कभी अपने विचारों को थोपा नहीं, वे अपनी बातों और विचारों को समय-समय पर अभिव्यक्त करते उनका आग्रह यही था कि हमें ऐसा संविधान चाहिए, जिसके केंद्र में समाज और गांव हों, न कि राज्य व्यवस्था।
एक संवैधानिक व्यवस्था के कुछ अहम विषयों पर गांधी की राय जानना उचित होगा:
लोकतंत्र
गांधीवादी संविधान में सन 1945 में लिख दिया गया था कि वर्तमान लोकतंत्र की व्यवस्थाओं में धन की ताकत के घातक उपयोग के साथ ही चुनावों की व्यवस्था भी बेहद दोषपूर्ण और अनुपयुक्त है। बड़े निर्वाचन क्षेत्र मतदाताओं और उम्मीदवारों के बीच न तो कोई संवाद होने देते हैं, न ही कोई रिश्ता कायम होने देते हैं। जिसे हम जानते नहीं हैं, उसे हम अपना प्रतिनिधि चुनते हैं। षडयंत्रों और मिथ्या प्रचार के बीच लोग नैतिक-अनैतिक का फैसला कर पाने में अक्षम हो जाते हैं। गांधी कहते हैं, “हम लोकतंत्र की नहीं, भीड़ तंत्र की स्थापना करते हैं। सुसभ्य, सक्षम और शालीन व्यक्ति चुनाव हार जाता है और बेईमान मोटी चमड़ी वाले लोग हथियारों और भ्रष्टाचार के बल पर जीत जाते हैं।”
गांधी जी का स्पष्ट विचार था कि भारत में लोकतंत्र होगा पर यह एक केंद्रीकृत लोकतंत्र नहीं होगा, बल्कि भारत के सात लाख गांवों में से प्रत्येक में एक मज़बूत लोकतांत्रिक व्यवस्था होगी। हर गांव की आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और न्यायिक व्यवस्था होगी। उनकी यह सोच कतई नहीं रही कि जाति व्यवस्था-वर्ण व्यवस्था—छुआछूत-स्त्रियों को दोयम दर्जे की नागरिकता जैसी अमानवीय व्यवस्थाएं और व्यवहार के साथ लोकतंत्र का निर्माण हो सकता है। वे भारतीय समाज के इस चरित्र को बदलकर लोकतंत्र की स्थापना करने का ख्वाब देख रहे थे।
संसदीय व्यवस्था
‘हिंद स्वराज’ में उन्होंने लिखा,“संसद के सदस्यों का समाज से इतना गहरा जुड़ाव और संवाद होना चाहिए कि किसी को अपना दुःख कहने की जरूरत ही न पड़े और संसद पहल कर दे। ऐसी स्थिति आनी ही नहीं चाहिए कि लोगों को झुण्ड में तब्दील होना पड़े और संसद को अपनी बात सुनाने के लिए चीखना और चिल्लाना पड़े। लेकिन इसके उलट इतना तो सब कबूल करते हैं कि पार्लियामेंट के सदस्य दिखावटी और स्वार्थी पाए जाते हैं। सब अपना मतलब साधने की सोचते हैं। सिर्फ डर के कारण कि संसद कुछ काम करती है। बड़े सवालों पर चर्चा के समय उसके सदस्य पैर फैलाकर लेटते हैं या बैठे-बैठे झपकियां लेते हैं। उसके सदस्य इतनी जोर से चिल्लाते हैं कि सुनने वाले हैरान-परेशान हो जाते हैं।”
मौलिक अधिकार
महात्मा गांधी मानते थे कि मौलिक अधिकार जीवन के मूल आधार होते हैं। जब व्यक्ति को मूलभूत अधिकार मिलेंगे, तभी वह समाज और राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर सकता है। भारत दमन, शोषण, सांप्रदायिक हिंसा, जातिवादी भेदभाव, गरीबी और उपेक्षा की परिस्थितियों में आजाद हुआ। उस दौर में नागरिकों की उम्मीद जगाने के लिए उनके मूल अधिकारों की सुरक्षा जरूरी थी।
गांधीवादी संविधान में मूलभूत अधिकार वाले अध्याय में दर्ज है, “क़ानून के समक्ष सभी नागरिक समान होंगे और जाति, वर्ण, पंथ, लिंग, धर्म या संपत्ति के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होगा। इन आधारों पर वे रोज़गार, लोक सम्मान, व्यापार और वाणिज्य में किसी भी किस्म की अक्षमता का सामना नहीं करेंगे। अहिंसा और सार्वजनिक/लोक नैतिकता के अधीन हर नागरिक को अपनी बात कहने, संगठन बनाने और संवाद करने की स्वतंत्रता होगी। इसके साथ ही लोक व्यवस्था और नैतिकता के सिद्धांतों के अधीन हर नागरिक को अपनी निजी और सामाजिक परम्पराओं का पालन करने की स्वतंत्रता होगी। सभी नागरिकों को अपनी लिपि, भाषा और संस्कृति को सहेजने और विकसित करने की आज़ादी होगी। सभी नागरिकों को कुंओं, तालाबों, मार्गों, विद्यालयों, स्थानीय निकायों या राज्य या निजी व्यक्तियों द्वारा स्थापित सार्वजनिक स्थानों का उपयोग करने की स्वतंत्रता होगी। हर नागरिक को निःशुल्क बुनियादी शिक्षा (नई तालीम) हासिल करने का अधिकार होगा। हर नागरिक को हिंसा या विपरीत परिस्थितियों में पुलिस का संरक्षण पाने, अपने ईमानदार काम के एवज़ में जीवनयापन के लिए न्यूनतम वेतन पाने, स्वास्थ्य सेवाएं पाने, मतदान करने का अधिकार होगा।”
कर्तव्य
महात्मा गांधी कहते थे कि जब कर्तव्य निभाये जाएंगे, तो अधिकार भी मिलेंगे। अगर कर्तव्य नहीं निभाये जाएंगे, तो अधिकार मिलना संभव नहीं है। वह मानते थे कि “हर नागरिक राज्य के प्रति निष्ठा रखेगा; खासतौर पर राष्ट्रीय आपदाओं और विदेशी आक्रमण के समय। हर नागरिक लोक कल्याण के विस्तार के लिए राज्य निधि में नकद, सामग्री या श्रम के रूप में योगदान करेगा। हर नागरिक यह निरीक्षण करेगा कि किसी भी व्यक्ति का व्यक्ति के द्वारा शोषण न किया जाए और यदि वह शोषण देखता है तो उसका विरोध करेगा।”
अधिकार और समानता
गांधी कहते हैं, “अधिकारों की उत्पत्ति का सच्चा स्रोत कर्तव्यों का पालन है। यदि हम सब अपने कर्तव्यों का पालन करें, तो अधिकारों को ज्यादा ढूंढ़ने की जरूरत नहीं रहेगी। हर आदमी को जीवन की आवश्यकताएं पूरा करने का समान अधिकार है। प्रत्येक अधिकार के साथ एक कर्तव्य जुड़ा हुआ है और उस अधिकार पर कहीं से कोई आक्रमण हुआ हो तो उसका वैसा इलाज़ भी है। इसलिए हमारी समस्या यह है कि हम उस प्रारंभिक बुनियादी समानता को सिद्ध करने के लिए उस समानता के अधिकार से जुड़े हुए कर्तव्य और इलाज़ ढूंढ निकालें। वह कर्तव्य यह है कि हम मेहनत करें और वह इलाज़ यह है कि जो हमें मेहनत के फल से वंचित करे, उसके साथ हम असहयोग करें।”
राष्ट्रीय सुरक्षा
गांधी राष्ट्र की सुरक्षा पर किसी तरह का समझौता नहीं करना चाहते थे। वह यह भी नहीं चाहते थे कि कोई अन्य देश भारत पर कब्जा करे लेकिन राष्ट्रीय सुरक्षा में भी सत्य, अहिंसा और अभय के मूल्य हो सकते हैं, यह बात गांधी के सपनों के संविधान में दिखाई देती है।
वैश्विक शांति
‘स्वतंत्र भारत का गांधीवादी संविधान’ में लिखा है, “यह साबित करने की जरूरत नहीं है कि दुनिया में हर युद्ध का बुनियादी कारण आर्थिक शोषण और विश्व बाज़ार पर नियंत्रण पाने का भयंकर लालच है। अब युद्धों में विनाश का सामना करने के बाद ये बड़े देश अपने यहां के उत्पादों का निर्यात बढ़ाकर अपनी विलासिता को भोगते रहना चाहते हैं। उपनिवेश बनाये रखने की यह प्रवृत्ति दुनिया में दुर्भावना और हिंसा को बरकरार रखेगी। जो देश विश्व शांति बनाने की मंशा रखते हैं, उन्हें अपने यहां स्थानीय और विकेन्द्रीकृत उद्योग स्थापित करने चाहिए। आंतरिक रूप से समान वितरण की व्यवस्था स्थापित किए बिना कोई भी देश विश्व शांति की कल्पना नहीं कर सकता। यदि उपनिवेशवाद और आर्थिक नियंत्रण की भावना को नियंत्रित किया जा सके, तो विश्व शांति स्थापित हो सकती है।
न्याय और सांप्रदायिकता
गांधी हिंद स्वराज में लिखते हैं, ‘‘यह माना जाता है कि भारत में मुसलामानों, ईसाइयों, पारसियों के आने से यह एक राष्ट्र नहीं रहा। हिन्दुस्तान में चाहे जिस धर्म का आदमी रह सकता है। इससे राष्ट्र मिटने वाला नहीं है। दुनिया के किसी भी हिस्से में एक राष्ट्र का अर्थ एक धर्म नहीं किया गया है। हिन्दुस्तान में तो ऐसा था ही नहीं। हिंदू और मुसलमान के झगड़े तो अंग्रेजों ने शुरू करवाए। ‘मियां और महादेव की नहीं बनती’ जैसी कहावतें हमेशा के लिए नुकसान पहुंचाती हैं। ऐसी कहावतें तो शैवों और वैष्णवों में भी चलती हैं, पर इससे कोई यह नहीं कहेगा कि वे एक राष्ट्र नहीं हैं। वेद धर्मियों और जैनों के बीच बहुत फर्क माना जाता है, फिर भी इससे वे अलग राष्ट्र नहीं बन जाते। चूंकि हम गुलाम बन गये इसलिए अपने झगड़े तीसरे के पास ले गये। ज्यों ज्यों ज्ञान बढ़ेगा, त्यों-त्यों हम समझते जायेंगे कि हमें पसंद न आने वाला धर्म दूसरा आदमी मानता हो, तो भी उससे बैर-भाव रखना हमारे लिए ठीक नहीं है। हम उस पर जबरदस्ती न करें। सब अपने अपने धर्म का स्वरूप समझकर उससे चिपके रहें और शास्त्रियों और मुल्लाओं को बीच में न आने दें, तो झगड़े का मुंह हमेशा के लिए बंद रहेगा।”
गांधी के सपनों की राज व्यवस्था
महात्मा गांधी ने कभी नहीं सोचा था कि ग्राम पंचायतें सरकार के नियंत्रण और निर्देशों से संचालित होंगी। जातिवादी और लैंगिक भेदभाव से भरा-पूरा समाज होने के बावजूद उन्हें पता नहीं क्यों यकीन था कि गांव और पंचायतें न्याय और समानता के मूल्यों के आधार पर अपनी भूमिका निभाएंगी। वहीं डॉ. अम्बेडकर का स्पष्ट मत था कि भारत के गांव शोषण के केंद्र हैं, अतः इन्हें स्वतंत्र शक्ति नहीं दी जा सकती है।
महात्मा गांधी की ओर से कल्पित संविधान में पंचायत, तालुका और जिला पंचायत की व्यवस्था की परिकल्पना की गयी थी। उनका सपना था कि गांव के स्तर पर ही चुनाव हो, और वहां से चुने गये प्रतिनिधियों को तालुका, जिला और राज्य सरकारों में स्थान मिले।
महात्मा गांधी ने जिस संविधान का सपना बुना था, उसके बारे में उनका सोचना था कि एक इंसान दूसरे इंसान में अपने जीवन का प्रतिबिंब देखेगा। ऐसा करते हुए वह किसी का अहित नहीं चाहेगा। उनका मानना था कि जब वह अपना जीवन दूसरे व्यक्ति या समुदाय के साथ साझा करेगा, तब वह सभ्यता के सुखद मुकाम पर होगा। इस प्रकार गांधी का संविधान मनुष्यों के परस्पर रिश्तों पर जोर देता है। वह सामुदायिक साझेदारी के भी पैरोकार थे। गांधी का संविधान साझा सोच, साझा हित और संसाधनों की साझेदारी के साथ आगे बढ़ने की वकालत करता है।