इसमें कोई दो राय नहीं है कि आजादी के 75 वर्षों के काल में भारत की राज्य और समाज व्यवस्था, दोनों में ही संविधान की उपेक्षा की गई है। ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि संविधान प्रचलित राज्य व्यवस्था तथा सामाजिक-आर्थिक व्यवस्थाओं में बुनियादी बदलाव लाने की पहल करता है। राज्य और समाज, दोनों को ही ऐसा होना स्वीकार नहीं था। भारत के संविधान की जिजीविषा को समझने के लिए यह जानना-समझना जरूरी है कि भारत का संविधान किन परिस्थितियों में बनाया गया? क्या वे बहुत सहज-सरल और शांतिकाल की स्थितियां थीं? इस प्रश्न का जवाब ही भारत के संविधान के महत्व को स्थापित करता है।

आर्थिक हालात – जिस वक्त हमारा संविधान बनना शुरू हुआ, उस समय न केवल भारत बल्कि पूरी दुनिया ही मानव इतिहास के सबसे भीषण युद्ध यानी द्वितीय विश्व युद्ध से उबर ही रही थी। उस युद्ध ने जनहानि तो की ही थी, साथ ही आर्थिक संसाधनों के लिहाज़ से भी भारत को प्रभावित किया था। स्वतंत्रता के वर्ष यानी 1947 में भारत का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) केवल 2।7 लाख करोड़ रुपए यानी मात्र 794 रुपए प्रति व्यक्ति था। यह वैश्विक जीडीपी का मात्र 3 प्रतिशत था।

कम प्रति व्यक्ति आय – उस समय एक भारतीय की प्रतिदिन की औसत आय मात्र 63 पैसे प्रतिदिन (230 रुपए प्रतिवर्ष) थी। कृषि उत्पादन की बात करें तो जापान में जहां चावल का उत्पादन 748 किलो प्रति हेक्टेयर था, वहीं भारत में यह मात्र 110 किलो प्रति हेक्टेयर।

खाद्य संकट– वर्ष 1946 में भारत गंभीर खाद्य संकट से जूझ रहा था। दक्षिण भारत (मद्रास प्रेसिडेंसी) में चक्रवात ने संकट बढ़ाया था, जबकि दक्षिण-पश्चिम मानसून कमज़ोर पड़ गया था। ऐसे में गंभीर खाद्य संकट के हालात बने। उस वक्त भारत को अंतरराष्ट्रीय सहायता की जरूरत थी। तब भारत ने संयुक्त खाद्य बोर्ड (कनाडा, अमेरिका और ब्रिटेन की साझा पहल से संचालित होने वाला) से अतिरिक्त खाद्यान्न सहायता हासिल करने की कोशिश की, लेकिन यह सहायता नहीं मिली, क्योंकि इस बोर्ड में अमेरिका का ज्यादा प्रभाव था और उसके ज्यादा हित जापान, फिलीपींस और यूरोप में थे।

शोषणकारी सामाजिक व्यवस्था- जमींदारी, रैय्यतवारी और महालवारी की व्यवस्थाएं थी, जिनमें किसान और श्रमिक का संसाधन और उत्पादन दोनों पर ही कोई अधिकार स्थापित नहीं था। संविधान इन व्यवस्थाओं को समाप्त करने का वायदा कर रहा था। वर्ष 1947 में भारत की अर्थव्यवस्था मूल्यह्रास की अर्थव्यवस्था थी। उत्पादन में बहुत सारे कारकों का उपयोग, उत्पादन व्यवस्था को कमज़ोर बनाता है। इससे उपलब्ध पूंजी का बहुत नुकसान होता है। यही तब भारत के साथ हो रहा था। ब्रिटिश साम्राज्यवादी सरकार ने यह नीति बनायी थी कि भारत से कच्चा माल और पूंजी को ब्रिटेन ले जाया जाए और ब्रिटेन में औद्योगिकीकरण को आगे बढ़ाया जाए। इससे भारत से संसाधन वहां जाते रहे, लेकिन यहाँ उद्योग स्थापित नहीं हुए। वर्ष 1947 में भारत की विकास दर मात्र 1 प्रतिशत सालाना थी।

सीमित जीवन संभावना – वर्ष 1947-48 में भारत में मृत्यु दर 18 प्रति हज़ार थी। शिशु मृत्यु दर 218 प्रति हजार थी यानी 1000 जीवित बच्चों के जन्म लेने पर 218 बच्चे पहला जन्मदिन मनाने से पहले जीवन त्याग देते थे और भारत के लोगों की औसत उम्र मात्र 32 वर्ष थी।

न्यूनतम श्रम मूल्य – भारत से सूती कपड़ा, रेशम, शकर, जूट, नील आदि का निर्यात होता था, लेकिन उपनिवेशवादी सरकार की नीतियों के कारण बहुत कम कीमत पर व्यापार किया जाता था। सूती और रेशम का कपड़ा बनाने वाले बुनकरों को बाज़ार दर से 15 से 40 प्रतिशत कम मजदूरी मिलती थी।

सांप्रदायिक टकराव के हालात- जब भारत स्वतंत्रता की तरफ बढ़ रहा था, तब सांप्रदायिक हिंसा की आग भी बढ़ती जा रही थी। कलकत्ता में अगस्त 1946 के दंगों में लगभग 4,000 लोग मारे गये। फिर नोआखाली में हिंसा हुई। कोई स्पष्ट अधिकृत आंकड़े तो नहीं हैं, लेकिन मोहम्मद अली जिन्ना से लेकर ब्रिटिश सरकार और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के आंकड़े 2,000 से 30,000 लोगों की मृत्यु की बात कहते हैं। लेकिन भारत की संविधान सभा में भारत के राजनीतिज्ञ अब भी यह नहीं सोच रहे थे कि भारत को कोई हिंसक व्यवस्था बना लेना चाहिए।

देश विभाजन – जिस वक्त संविधान बन रहा था, उसी वक्त भारत का विभाजन भी हो रहा था। संविधान सभा में भारत के अलग अलग प्रान्तों और रियासतों के प्रतिनिधि भारत का भविष्य, चरित्र और उसकी व्यवस्था गढ़ रहे थे। उस वक्त केवल जमीन पर सरहद ही नहीं खींची जा रही थी। मन में जमा जहर भी उबलकर बाहर बह निकला था। देश का विभाजन हुआ, लेकिन गुस्से, द्वेष और उन्माद ने 10 लाख से ज्यादा लोगों की जान भी ली। लगभग डेढ़ करोड़ लोग अपने घरों को छोड़ने के लिए मजबूर हुए। कई भारत से पाकिस्तान की दिशा में चले और कई पाकिस्तान से भारत की दिशा में। लेकिन अब भी भारत का संविधान बनाने वाले पूरे विश्वास से अहिंसा, समता और गरिमा की बात कर रहे थे।

आर्थिक बदहाली, हिंसा, प्राकृतिक आपदाओं, सांप्रदायिक वैमनस्यता के तूफ़ान के बीच संविधान सभा के 250 से अधिक प्रतिनिधि, भारत के लिए ऐसा संविधान बना रहे थे, जिसमें व्यक्ति को स्वतंत्रता, बंधुता, समता और न्याय दिलाने वाली व्यवस्था बुनने की कोशिश हो रही थी। भारत की संविधान सभा ऐसा लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव पारित कर रही थी, जिसमें लिखा था कि भारत विश्व में शांंति स्थापित करने के लिए पहल करेगा।

इन कठिन परिस्थितियों में संविधान सभा ने किसी तरह की कटुता का प्रदर्शन नहीं किया। किसी सदस्य ने एक बार भी यह नहीं कहा कि भारत को सैनिक शासन व्यवस्था या तानाशाही अपना लेनी चाहिए। भारत ने बेहद मजबूती, प्रतिबद्धता और हिम्मत के साथ लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनने का निर्णय लिया। अगर संविधान सभा भटक जाती, तो देश का रास्ता ही बदल जाता। सांप्रदायिकता के माहौल के बीच रहते हुए भी, संविधान सभा ने देश को हिंदू राष्ट्र बनाने का विकल्प नहीं अपनाया।

बहरहाल, कई संगठन, कुछ अखबार और फिरकापरस्त लोग यह कोशिश जरूरी कर रहे थे कि भारत का संविधान धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र, व्यक्ति की स्वतंत्रता और बंधुता के मूल्य पर खड़ा न हो पाए। कितनी परिपक्व राजनीति है यह कि संविधान सभा का हर सदस्य अपनी भूमिका की गंभीरता को समझता था और यह जानता था उनका नकारात्मक नज़रिया भारत के भविष्य को अंधकार में धकेल देगा। अगर संविधान सभा ने संविधान के किसी हिस्से को स्थायी बनाया है, तो वह है इसकी उद्देश्यिका और आधारभूत मूल्यों-उसूलों का एक गुलदस्ता। यह माना गया था कि अगर समाज और राज्य व्यवस्था ने उसूल अपना लिए, तो भारत अपनी पहचान बना लेगा; केवल संवैधानिक प्रावधानों से बहुत ज्यादा कुछ हासिल न होगा।

कोई भी देश कानूनों से संचालित होता है। कानूनों का स्वरूप अलग-अलग होता है और उनसे ही व्यवस्था का चरित्र तय होता है। अठारहवीं शताब्दी में भारत की व्यवस्था पर ब्रिटिश साम्राज्य का नियंत्रण होना शुरू हो गया था। महत्वपूर्ण बात यह है कि ब्रिटेन ने भारत पर युद्ध के जरिये नहीं बल्कि व्यापर और आर्थिक गतिविधियों के जरिये नियंत्रण स्थापित करना शुरू किया था। व्यापार पर नियंत्रण स्थापित कर लेने के बाद सामरिक घुसपैठ आसान हो जाती है। भारत पर ब्रिटेन के शासन की स्थापना की कहानी में भी ऐसा ही हुआ।

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