संविधान और जवाहरलाल नेहरू -2
राष्ट्रीय नीति के निर्माण के चरण और नेहरू
संविधान निर्माण की चर्चा से बहुत पहले इस बात की जरूरत महसूस की जाने लगी थी कि भारत के विकास की एक राष्ट्रीय नीति होनी चाहिए। यह वह समय था जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पूर्ण स्वराज की मांग कर चुकी थी और नागरिकों के अधिकारों तथा सामाजिक-आर्थिक सिद्धांतों को लेकर भी सक्रियता से काम हो रहा था। इन सभी गतिविधियों में जवाहरलाल नेहरू की महत्वपूर्ण भूमिका थी।
सचिन कुमार जैन
संविधान शोधार्थी एवं अशोका फेलोशिप प्राप्त सामाजिक कार्यकर्ता। ‘संविधान की विकास गाथा’, ‘संविधान और हम’ सहित 65 से अधिक पुस्तक-पुस्तिकाओं का लेखन।
वर्ष 1931 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का कराची अधिवेशन आयोजित हुआ। इसे तीन घटनाओं के आलोक में देखना होगा: पहली, नमक सत्याग्रह के लिए जेल गये महात्मा गांधी रिहा हुए थे, दूसरी, गांधी-इरविन समझौता और तीसरी भगत सिंह समेत तीन क्रांतिकारियों को ब्रिटिश सरकार द्वारा फांसी की सज़ा।
कराची संकल्प पत्र
कराची संकल्प पत्र में पूर्ण स्वराज/पूर्ण स्वतंत्रता की बात को दोहराया गया था। इसे तैयार करने में पंडित जवाहरलाल नेहरू की केंद्रीय भूमिका थी। इस संकल्प में इंसानों के मूलभूत अधिकारों और सामाजिक-आर्थिक सिद्धांतों-अधिकारों की प्रतिबद्धता के साथ मांग की गयी। साथ ही इसमें मजदूरों का संरक्षण, बाल मजदूरी की समाप्ति, मुफ्त प्राथमिक शिक्षा और खेतिहर मजदूरों की सुरक्षा-संरक्षण के अधिकार और नशीले पदार्थों और नशीली दवाओं पर प्रतिबंध लगाने की बात शामिल थी।
कराची अधिवेशन ‘पूर्ण स्वराज’ की मांग को योजनागत रूप देने के नज़रिये से बेहद महत्वपूर्ण माना जाता है। इस अधिवेशन के दौरान सरदार वल्लभ भाई पटेल कांग्रेस के अध्यक्ष थे लेकिन इस अधिवेशन के लिए प्रस्ताव नेहरू ने तैयार किया था। इन प्रस्तावों से महात्मा गांधी की सहमति भी थी। यह कहना बेहतर होगा कि गांधी-पटेल-नेहरू के सामंजस्य से ही कराची घोषणा पत्र जारी किया गया था।
इसी घोषणा पत्र के माध्यम से भारतीय संविधान के मूलभूत अधिकारों का ढांचा बनना शुरू हुआ। इसमें मजदूरों, महिलाओं, बच्चों के अधिकारों का उल्लेख किया गया, शराब बंदी और नशीले पदार्थों को प्रतिबंधित करने की बात कही गयी, शिक्षा और मातृत्व के अधिकार को स्वीकार किया गया।
कराची प्रस्ताव को कुछ प्रमुख हिस्सों में बांटकर देखें तो वे हैं: मूल अधिकार और कर्तव्य, श्रम और श्रमिक, कराधान और व्यय तथा आर्थिक-सामाजिक कार्यक्रम। प्रस्ताव में इन कार्यक्रमों का अपेक्षाकृत विस्तृत ब्योरा मौजूद था जो इस प्रकार था:
मूलभूत अधिकार और कर्तव्य
- हर नागरिक को विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होगी। बिना हथियार के शांतिपूर्ण ढंग से एकत्रित होने और समूह बनाने की आजादी होगी बशर्ते कि इसका उद्देश्य विधि या नैतिकता के विरुद्ध न हो।
- प्रत्येक नागरिक को सार्वजनिक व्यवस्था और नैतिकता के अधीन अंतःकरण की स्वतंत्रता और अपने धर्म को स्वतंत्र रूप से मानने और आचरण करने का अधिकार प्राप्त होगा।
- अल्पसंख्यकों और विभिन्न भाषाई क्षेत्रों की संस्कृति, भाषा और लिपि की रक्षा की जाएगी।
- कानून के समक्ष सभी नागरिक समान हैं चाहे वे किसी भी जाति, पंथ या लिंग के हों।
- सार्वजनिक रोजगार, सत्ता या सम्मान के पद और किसी व्यापार या व्यवसाय के संबंध में किसी भी नागरिक को उसके धर्म, जाति, पंथ या लिंग के कारण अयोग्य नहीं माना जाएगा।
- राज्य या स्थानीय निधि से बनाए गये या आम जनता के उपयोग के लिए निजी व्यक्तियों द्वारा समर्पित कुओं, टैंकों, सड़कों, स्कूलों और सार्वजनिक रिसॉर्ट आदि स्थानों को लेकर सभी नागरिकों के समान अधिकार और कर्तव्य हैं।
- हर नागरिक को हथियार रखने और लेकर चलने का अधिकार होगा बशर्ते कि वह ऐसा विधिपूर्वक करे।
- कानूनन जरूरी नहीं होने पर किसी व्यक्ति से उसकी आजादी नहीं छीनी जाएगी, न ही उसके आवास या संपत्ति में प्रवेश किया जाएगा, न उन्हें जब्त किया जाएगा।
- राज्य सभी धर्मों के प्रति निष्पक्ष रहेगा।
- सभी के लिए वयस्क मताधिकार होगा।
- राज्य निशुल्क और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा देगा।
- राज्य कोई उपाधियां नहीं देगा।
- मृत्युदंड समाप्त किया जाएगा।
- हर नागरिक को पूरे देश में जाने का अधिकार होगा और वह जहां चाहे वहां रह सकेगा, संपत्ति खरीद सकेगा और व्यापार आदि कर सकेगा। देश के सभी हिस्सों में उसे विधि के समक्ष समान माना जाएगा।
श्रम और श्रमिक
- आर्थिक जीवन की व्यवस्था अंत तक न्याय के सिद्धांत के अनुरूप होनी चाहिए ताकि यह एक सभ्य जीवन स्तर सुनिश्चित कर सके।
- राज्य औद्योगिक श्रमिकों के हितों की रक्षा करेगा और उपयुक्त कानून और अन्य तरीकों से उनके लिए बेहतर मजदूरी, काम की बेहतर स्थितियां, काम के सीमित घंटे, नियोक्ताओं और श्रमिकों के बीच विवादों के निपटारे के लिए उपयुक्त प्रणाली सुनिश्चित करेगा और – बुढ़ापे, बीमारी और बेरोजगारी के आर्थिक परिणामों से सुरक्षा मुहैया कराएगा।
- श्रम को दास प्रथा और दास प्रथा के आसपास की परिस्थितियों से बचाया जाएगा।
- महिला श्रमिकों को संरक्षण दिया जाएगा, खासतौर पर मातृत्व अवकाश का समुचित प्रावधान किया जाएगा।
- स्कूल जाने की आयु वाले बच्चों से खदानों और फैक्टरियों में काम नहीं लिया जाएगा।
- किसानों और श्रमिकों को अपने हितों के लिए विरोध प्रदर्शन करने के लिए संगठन बनाने का अधिकार होगा।
कराधान और व्यय
- भूमि स्वामित्व, राजस्व और लगान की प्रणाली में सुधार किया जाएगा और कृषि भूमि पर बोझ का एक उचित समायोजन किया जाएगा। छोटे किसानों को उनके द्वारा भुगतान किए जाने वाले कृषि लगान और राजस्व में पर्याप्त कमी करके तत्काल राहत दी जाएगी। जरूरी होने तक उन्हें कर से राहत दी जाएगी, जब तक कि ऐसी राहत उचित और आवश्यक हो। साथ ही एक उचित सीमा से अधिक रकबा होने पर शुद्ध आय पर चरणबद्ध ढंग से कर लगाया जाएगा।
- तयशुदा न्यूनतम सीमा से अधिक परिसंपत्ति पर चरणबद्ध पैमाने पर विरासती कर लगाया जाएगा।
- सैन्य व्यय में भारी कमी की जाएगी ताकि इसे मौजूदा से आधा किया जा सके।
- नागरिक विभागों में वेतन और व्यय में भारी कमी की जाएगी। विशेष तौर पर नियुक्त लोगों को छोड़ दिया जाए तो सरकारी नौकरों को तयशुदा आय मिलेगी जो आमतौर पर 500 रुपये प्रति माह से अधिक नहीं होगी।
- देश में नमक निर्माण पर कोई शुल्क नहीं लगेगा।
आर्थिक और सामाजिक कार्यक्रम
- राज्य स्वदेशी कपड़े की रक्षा करेगा; और इस उद्देश्य के लिए देश से विदेशी कपड़े और विदेशी सूत के बहिष्कार की नीति अपनाएगा और जरूरत पड़ने पर ऐसे अन्य उपाय अपनाएगा। राज्य, जब आवश्यक हो, विदेशी प्रतिस्पर्धा के विरुद्ध अन्य स्वदेशी उद्योगों की भी रक्षा करेगा।
- चिकित्सा उपयोग को छोड़ दिया जाए तो नशीले पेय और मादक पदार्थ पूरी तरह प्रतिबंधित रहेंगे।
- मुद्रा और विनिमय का नियमन राष्ट्र हित में किया जाएगा।
- राज्य प्रमुख उद्योगों और सेवाओं, खनिज संसाधनों, रेलवे, जलमार्गों, नौवहन और परिवहन के अन्य माध्यमों पर नियंत्रण रखेगा।
- कृषि ऋण से माफी और प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सूदखोरी पर नियंत्रण।
- राज्य नागरिकों के सैन्य प्रशिक्षण की व्यवस्था करेगा ताकि नियमित सैन्य बलों के अलावा राष्ट्रीय रक्षा की व्यवस्था की जा सके।
स्वदेशी पर जोर
जुलाई 1934 में बनारस में कांग्रेस ने ‘स्वदेशी’ के व्यावहारिक रूप को परिभाषित किया। कांग्रेस का मानना था कि बड़े और संरक्षित उद्योगों को कांग्रेस की सहायता की जरूरत नहीं है। इस संदर्भ में स्पष्ट किया गया कि कांग्रेस में केवल हथकरघे/हाथ से बनी खादी का ही उपयोग किया जाएगा, मिलों में बने कपड़े का उपयोग नहीं किया जाएगा। कपड़ों के अलावा अन्य वस्तुओं के उपयोग के संबंध में कांग्रेस कार्यसमिति ने निर्णय लिया कि भारत में बने और उन छोटे-कुटीर उद्योगों द्वारा निर्मित सामानों का उपयोग किया जाए।
नव-निर्माण की पहल
सत्ताइस दिसम्बर 1936 को कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में उद्बोधन देते हुए पंडित नेहरू ने पुनः भारत की व्यवस्था के नव-निर्माण की बात कही थी। उनका वक्तव्य था कि कांग्रेस आज भारत में पूर्ण लोकतंत्र के पक्ष में खड़ी है और इसका संघर्ष एक लोकतांत्रिक राज्य के लिए संघर्ष है, समाजवाद के लिए नहीं। यह साम्राज्यवाद विरोधी है और हमारी मौजूदा राजनीतिक और आर्थिक संरचना में बड़े बदलाव के लिए प्रयासरत है।
कृषि समस्याओं का समाधान
पंडित नेहरू जब-जब कांग्रेस के अध्यक्ष रहे, तब-तब उन्होंने भारत की मूलभूत सामाजिक-आर्थिक समस्यायों के समाधान के लिए ‘नीतिगत’ पहल की। कांग्रेस ने वर्ष 1936-37 में कृषि और काश्तकारों की समस्याओं पर नीति बनाने की पहल की और उस वक्त भी कांग्रेस के अध्यक्ष नेहरू ही थे।
कृषि कार्यक्रम : लखनऊ और फैजपुर अधिवेशन
अप्रैल 1936 में कांग्रेस ने कहा कि देश के समक्ष सबसे बड़ी और तत्काल निदान की मांग करने वाली समस्या हैं किसानों में बढ़ती गरीबी, बेरोजगारी और कर्ज में इजाफा। कहा गया कि इन समस्याओं की मुख्य वजह है शोषणकारी भू स्वामित्व और राजस्व प्रणाली। कांग्रेस ने कहा कि इस समस्या का हल है ब्रिटिश शासन के शोषण को समाप्त करना, भूस्वामित्व और राजस्व व्यवस्था में तब्दीली करना तथा राज्य द्वारा अपनी इस भूमिका को पहचानना कि ग्रामीण आबादी को रोजगार दिलाना उसका दायित्व है।
लखनऊ कांग्रेस ने अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के समक्ष रखने के लिए प्रांतीय कांग्रेस कमेटियों से इस विषय में अनुशंसाएं आमंत्रित कीं तथा निम्न मांग की गयीं:
- किसानों और कृषि श्रमिकों को संगठित होने की आजादी हो।
- राज्य और किसानों के बीच जहां बिचौलिए हैं वहां किसानों के हितों को सुरक्षित किया जाए।
- किराए और राजस्व के बकाये समेत कृषि संबंधी ऋण से समुचित राहत।
- किसानों को सामंती और अर्द्ध सामंती शुल्क से राहत।
- किराये और राजस्व मांग में उल्लेखनीय कमी।
- गांवों में सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक सुविधाओं के लिए सरकारी व्यय का आवंटन।
- कृषि तथा घरेलू आवश्यकताओं के लिए स्थानीय प्राकृतिक सुविधाओं के इस्तेमाल पर परेशान करने वाले प्रतिबंधों से बचाव।
- सरकारी अधिकारियों और जमींदारों के शोषण से बचाव।
- ग्रामीण बेरोजगारी कम करने के लिए उद्योगों की स्थापना।
फैजपुर कांग्रेस में पारित कृषि कार्यक्रम
दिसंबर 1936 में नेहरू की ही अध्यक्षता वाली कांग्रेस की फैजपुर बैठक में पुनः यह बात दोहराई गयी कि गरीबी, कृषि संकट, किसानों का क़र्ज़ और बेरोज़गारी सबसे बड़ी समस्याएं हैं। अतः इन समस्याओं के समाधान के लिए सतत पहल करनी होगी। कांग्रेस ने किसानों और मजदूरों पर शोषण के बुरे प्रभाव के मद्देनजर कृषि और ग्रामीण व्यवस्था से संबंधित पहलुओं पर अपनी मांगें स्पष्ट कीं और सरकार से मांग की कि –
- वर्तमान स्थितियों को ध्यान में रखते हुए भूमि किराए और राजस्व में कमी करते हुए पुनः समायोजन किया जाना चहिए।
- अलाभकारी जोतों को लगान या भूमि कर से छूट दी जानी चाहिए।
- सभी की तरह कृषि आय का भी आयकर के दायरे में लाने का मूल्यांकन किया जाना चाहिए और इसे न्यूनतम रखा जाना चाहिए।
- नहर एवं अन्य सिंचाई दरें काफी कम की जानी चाहिए।
- सभी सामंती कर और लगान तथा बेगार समाप्त कर दिए जाएं।
- किराए के अलावा अन्य मांगें गैर-कानूनी मानी जाना चाहिए।
- सहकारी खेती शुरू करने का प्रयास किया जाना चाहिए।
- ग्रामीण कर्ज़ का भारी बोझ विशेष पहल करते हुए हटाया जाए।
- सभी ऋणों की जांच के लिए न्यायाधिकरण नियुक्त किए जाने चाहिए।
- सस्ती ऋण सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए कदम उठाए जाएंगे।
- पिछले वर्षों का बकाया किराया ख़त्म कर दिया जाना चाहिए।
- समुदाय को सामान्य चारागाह भूमि प्रदान की जाए और तालाबों, कुओं, तालाबों, जंगलों आदि पर समुदाय के अधिकारों को मान्यता प्रदान की जाए। सार्वजनिक संसाधनों पर अतिक्रमण की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।
- जीवनयापन योग्य वेतन सुनिश्चित करने के लिए वैधानिक प्रावधान होना चाहिए।
- खेतिहर मजदूरों के लिए उपयुक्त कार्य परिस्थितियां निर्मित की जाएं।
- किसान यूनियनों को मान्यता दी जाए।
राष्ट्रीय योजना समिति और नेहरू
भारत सरकार अधिनियम, 1935 लागू होने के बाद भारत में चुनाव हुए और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को बहुमत मिला और उसकी सरकारें बनीं। इसी संदर्भ में दो और तीन अक्टूबर 1938 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष सुभाष चन्द्र बोस ने दिल्ली में उद्योग मंत्रियों की बैठक बुलाई। इसमें यह समझ बनी कि भारत में गरीबी और बेरोज़गारी, आर्थिक व्यवस्था के संचालन और राष्ट्र की सुरक्षा से संबंधित समस्याओं का निराकरण औद्योगिकीकरण के बिना नहीं किया जा सकता है।
भारत में औद्योगिकीकरण जिम्मेदार, सुनियोजित और व्यवस्थित तरीके से हो, इसके लिए राष्ट्रीय योजना बनाए जाने की जरूरत समझी गयी। यह भी माना गया कि देश की जरूरतों, देश के संसाधनों और देश की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए भारी, मध्यम और कुटीर उद्योगों की स्थापना, संरक्षण और विकास की नीति बनाई जानी चाहिए। इस नीति को बनाने के लिए एक विशेषज्ञ समिति के गठन का निर्णय लिया गया।
कांग्रेस अध्यक्ष सुभाष चन्द्र बोस ने ‘राष्ट्रीय योजना समिति’ (नेशनल प्लानिंग कमिटी) का गठन किया। इसमें 11 सदस्य शामिल किए गये और बोस ने पंडित नेहरू को इस समिति का अध्यक्ष बनाया। समिति में नेहरू के अलावा सर एम. विश्वेसरय्या, सर पुरुषोत्तमदास ठाकुरदास, डॉ. मेघनाद साहा, ए.डी. श्राफ, के.टी. शाह, डॉ. नजीर अहमद, डॉ. वी.एस. दुबे, अम्बालाल साराभाई और डॉ. जे.सी. घोष शामिल थे। बाद में इस समिति में जे.सी. कुमारप्पा, एन.एम. जोशी, प्रो. राधाकमल मुकर्जी और वालचंद हीराचंद को भी शामिल किया गया।
नेहरू ने वैज्ञानिक तरीके से समिति के काम को आगे बढ़ाया। उनकी नज़र में भारत का राष्ट्रीय विकास एक बहुआयामी पहलू था और किसी एक पक्ष पर ध्यान केंद्रित करके प्रभावी योजना नहीं बनाई जा सकती थी, इसलिए उन्होंने सभी पहलुओं से संबंधित शोध और अध्ययन के साथ साथ प्रांतों, उद्योगपतियों, लोगों, संगठनों के विचारों का अध्ययन शुरू करवाया।