पूजा सिंह

स्‍वतंत्र पत्रकार

विद्या के अभाव में
बेकार बदतर है जीवन
पशुतुल्य हाथ पर हाथ धरे न बैठें
करो विद्याग्रहण अंग्रेजी पढ़कर
तोड़ दीजिए जातिभेद की दीवारें।
(साभार: सावित्रीबाई फुले की कविताएं)

यह सावित्रीबाई फुले की कविता ‘अंग्रेजी पढ़िए’ का अंश है। अंग्रेजी पढ़ कर विद्याग्रहण करने तथा जातिभेद की दीवारें तोड़ने की बात वे उस वक्‍त में कर रही थीं जब जातीय भेद की नींव और दीवारें मजबूत थीं। वह आज के जैसा वक्‍त नहीं था, जब महिलाओं के संवैधानिक मूल्‍यों को लेकर चेतना के प्रयास हो रहे हैं बल्कि तब इन महिलाओं के संवैधानिक मूल्‍यों के बारे में विचार का कोई अस्तित्‍व ही नहीं था। सावित्रीबाई फुले ने विपरीत समय और कठिन परिस्थितियों में महिलाओं और दलितों की शिक्षा व उनकी उन्नति के लिए जो प्रयास किए उनमें ऐसे मूल्य भी शामिल थे जो आगे चलकर हमारे संवैधानिक मूल्यों का हिस्सा बने। शिक्षा का अधिकार जो आज बहुत सहज लगता है उसके पीछे एक लंबा संघर्ष रहा है जिसमें सावित्रीबाई फुले की अविस्मरणीय भूमिका रही है।

उन्नीसवीं सदी में भारतीय महिलाओं की शिक्षा और सशक्तीकरण की बात आने पर सावित्रीबाई फुले का जिक्र लाजिमी है। अपने समय की गिनीचुनी सुशिक्षित महिलाओं में शामिल सावित्रीबाई फुले को पुणे में पहली कन्या शाला की स्थापना करने का श्रेय है और उनकी पहचान एक स्त्रीवादी समाज सुधारक और शिक्षाविद की है। इस दौर में सावित्रीबाई फुले को याद करना इसलिए भी प्रासंगिक है क्योंकि यह समय समता, समानता, स्वतंत्रता, न्याय और बंधुता जैसे संवैधानिक मूल्यों को देश और समाज में पुन: स्थापित करने का भी है। सावित्रीबाई फुले के विचार इस सिलसिले में बेहद मददगार साबित हो सकते हैं।

सावित्रीबाई फुले ने उस दौर में बालिका शिक्षा के लिए काम करना शुरू किया था जब भारतीय समाज में इस बारे में सोचना भी गुनाह माना जाता था। वह दौर बालविवाहों का था। खुद सावित्रीबाई का विवाह महज नौ वर्ष की आयु में जोतिराव फुले (आगे चलकर बड़े समाज सुधारक बने) से कर दिया गया था। उन्होंने अपने पति के साथ मिलकर 1848 में पुणे में पहला कन्या विद्यालय खोला था।

सावित्रीबाई फुले का स्पष्ट तौर पर यह मानना था कि शिक्षा ही वह हथियार है जो महिलाओं और समाज के वंचित वर्ग के लोगों को अधिकार संपन्न बना सकता है। ऐसे समय में जब पर समाज के कुछ खास वर्गों का वर्चस्व हुआ करता था, फुले दंपती ने साक्षरता के लिए बकायदा अभियान शुरू किया और छुआछूत, स्त्री मुक्ति, दलित महिलाओं को शिक्षा देने तथा बिना दहेज के विवाह को लेकर सामाजिक आंदोलन आरंभ किया। सावित्रीबाई फुले ने उस दौर में महिलाओं के अधिकारों के लिए काम करना आरंभ किया जब भारत में किसी भी वर्ग की महिलाओं को संपूर्ण मानवीय अधिकार भी हासिल नहीं थे। उन्हें पुरुषों से कमतर समझा जाता था।

सावित्रीबाई फुले को मराठी भाषा की शुरुआती कवियत्रियों में शामिल किया जाता है। उन्होंने अपनी कविताओं में पूरी प्रखरता से स्वतंत्रता, समानता और बंधुता जैसे ऐसे मूल्यों को स्वर दिया जो बाद में भारतीय संविधान में निहित संवैधानिक मूल्य बने। उनकी कविताओं में महिलाओं की स्वाधीनता, समानता और उन्नति की मांग प्रमुखता से उभरती थी। वे अपनी कविताओं में सामाजिक अन्यायों को रेखांकित करते हुए आपसी सद्भाव, समानता और न्याय की मांग करती थीं। सावित्रीबाई फुले यह समझ चुकी थीं कि अंग्रेजी शिक्षा के बिना दलित समाज मुख्यधारा में शामिल नहीं हो सकता है। उन्होंने अंग्रेजी मैय्या शीर्षक वाली कविता में लिखा-

अंग्रेजी मैय्या, अंग्रेजी मैय्या।
शूद्रों को मुक्ति दिलाओ दिलो जान से
अंग्रेजी मैय्या अब नहीं है मुगलाई
नहीं बची अब पेशवाई।
अंग्रेजी मैय्या तूने तोड़ डाली पशुता की जंजीर
(साभार: सावित्रीबाई फुले की कविताएं)

समाज में महिलाओं की स्थिति तुलनात्मक रूप से भले ही बेहतर हुई है लेकिन महिलाओं के विरुद्ध अपराधों और परिवारों में उनकी स्थिति तथा आर्थिक आत्मनिर्भरता पर गौर करें तो वे आज भी पुरुषों से बहुत पीछे नजर आती हैं। देश की आधी आबादी अगर तरक्की से दूर होगी तो देश कभी सही मायनों में प्रगति नहीं कर पाएगा। ऐसे में यह सोचना ही रोमांचित करता है कि आज से पौने दो साल पहले सावित्रीबाई फुले ने इस बात को समझा था और स्त्री शिक्षा और अछूतोद्धार के लिए वह इतने सघन प्रयास कर रही थीं।

वह अपने पति जोतिराव फुले द्वारा 1873 में स्थापित ‘सत्यशोधक समाज’ से भी जुड़ी हुई थीं और उनके निधन के बाद सावित्रीबाई ने जीवन पर्यंत इस समाज का संचालन किया। सत्यशोधक समाज में सवर्ण हिंदुओं, मुसलमानों समेत विभिन्न समुदायों के लोग शामिल थे और यह महिलाओं, दलितों और वंचित समुदायों के अन्य लोगों की मुक्ति के लिए काम करता था।

डॉ. बी.आर.अम्बेडकर ज्योतिराव फुले को अपना गुरु मानते थे। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘शूद्र कौन थे?’ महात्मा फुले को समर्पित करते हुए लिखा था, ‘‘जिन्होंने हिंदू समाज की छोटी जातियों को उच्च वर्णों के प्रति उनकी गुलामी की भावना के बारे में जागृत किया और जिन्होंने सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना को विदेशी शासन से मुक्ति पाने से भी अधिक महत्वपूर्ण बताया, उस आधुनिक भारत के महान शूद्र महात्मा फुले की स्मृति में सादर समर्पित।’’

ऐसे में सावित्रीबाई फुले के योगदान को याद करते हुए डॉ. बी.आर. अम्बेडकर की याद आ जाना स्वाभाविक ही है। डॉ. अम्बेडकर ने स्त्री उत्थान के लिए जो काम किए और स्त्री समानता को लेकर उनके जो विचार वे थे वह सावित्रीबाई फुले के काम का ही विस्तार थे। वह कहते थे,

‘‘मैं किसी समाज की तरक्की इस बात से देखता हूं कि वहां महिलाओं ने कितनी प्रगति की है।’’

इसी प्रकार 1927 में महिलाओं की एक विशाल संगोष्ठी को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था, ‘‘आप अपने बच्चों को विद्यालय भेजिए। शिक्षा महिलाओं के लिए भी उतनी ही जरूरी है कि जितना पुरुषों के लिए। यदि आपको लिखना-पढ़ना आता है तो समाज के आपका उद्धार संभव है। एक पिता का पहला काम अपने घर की महिलाओं को शिक्षा से वंचित नहीं रखने का होना चाहिए। शादी के बाद महिलाएं स्वयं को गुलाम की तरह महसूस करती हैं। इसका सबसे बड़ा कारण उनकी निरक्षरता है। यदि महिलाएं शिक्षित होंगी तो उन्हें कभी ऐसा महसूस नहीं होगा।’’

डॉ. अम्बेडकर के दिए तीन मूल मंत्रों ‘शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो’ में भी शिक्षा को प्राथमिक स्थान दिया गया है। यह भी बताता है कि सावित्रीबाई फुले और ज्योतिबा फुले का उनके जीवन पर महत्वपूर्ण प्रभाव था। 3 जनवरी को सावित्री बाई फुले की 193 वीं जयंती मनाई गई। 1831 में हु महाराष्ट्र के सतारा जिले के नायगांव में जन्‍मी सावित्रीबाई फुले का जीवन संघर्षों से भरा रहा। मार्च 1897 में प्लेग की बीमारी से अपने निधन (वह एक प्लेगग्रस्त बच्चे की तीमारदारी करते हुए इसकी चपेट में आ गयी थीं) तक वह दलितों और महिलाओं को शिक्षित करने और गुलामी की जंजीरों से आज़ाद होने के लिए प्रेरित करती रहीं।

समाज में लड़कियों, महिलाओं और वंचित वर्ग के लोगों के लिए किए गये कामों के लिए सावित्रीबाई फुले को हमेशा याद किया जाता है। उन्होंने अस्पृश्यता को समाप्त करने तथा जाति और लिंग आधारित भेदभाव को खत्म करने के लिए सक्रिय ढंग से काम किया। इन विषयों को समाज की मुख्य धारा में लाने के लिए उन्होंने जो संघर्ष किए और जिन मूल्यों को स्थापित करने का प्रयास किया उनकी प्रासंगिकता हमेशा बरकरार रहने वाली है। यह आवश्यक है कि सावित्रीबाई फुले की शिक्षाओं और संघर्ष को बार-बार याद किया जाए। समाज में उनकी शिक्षाओं को लेकर जागरुकता बढ़ाई जाए। यदि ऐसा होगा तो हमारा समाज स्वत: समता, समानता और बंधुता जैसे मूल्यों को अपनाने की दिशा में और अधिक सक्रियता से आगे बढ़ेगा।

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