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संविधान संवाद टीम

‘जीवन में संविधान’ पुस्तक से:

झारखंड के बोकारो जिले के चास के रहने वाले गोलू बाउरी दिहाड़ी मजदूर हैं। उनके जीवन का एक ही लक्ष्य है, अपने बेटे जीत कुमार को अभावों की जिंदगी से बचाना, उसे किसी के सामने हाथ फैलाने से बचाना और यह तय करना कि वह इज्जत की जिंदगी जी सके। यही वजह है कि वे अपनी ओर से उसके लिए बेहतर से बेहतर शिक्षा का प्रबंध करना चाहते हैं।

जीत कुमार शासकीय प्राथमिक स्कूल में पढ़ता है, लेकिन कोविड-19 के कारण स्कूल बंद हो गए और ऑनलाइन पढ़ाई शुरू हो गई। गोलू की स्थिति ऐसी नहीं रही कि वह एक एंड्रायड स्मार्टफोन खरीद सकें और इंटरनेट का खर्चा उठा सकें। उन्होंने बहुत मेहनत की, लेकिन बहुत मेहनत करने के बाद भी वे 20 हजार रुपये मासिक से ज्यादा नहीं कमा सके। इसी राशि से पूरे परिवार को पालना होता है। क्या आपको लगता है कि गोलू अपने बेटे को शिक्षित होते नहीं देखना चाहते हैं?

स्मार्टफोन और इंटरनेट की सुविधा नहीं जुटा पाने के कारण जीत डेढ़ साल से स्कूल की पढ़ाई से वंचित है। जाहिर है, उसकी आगे की शिक्षा बहुत कठिन या शायद लगभग असंभव हो जाएगी।

एक तरफ महामारी का संकट और दूसरी तरफ शिक्षा जारी रखने की प्रतिबद्धता भी है। लेकिन देश के समाज का बड़ा हिस्सा इन दोनों स्थितियों के बीच जूझ रहा है। साधारण तौर पर हम कह सकते हैं कि यदि बच्चे को पढ़ाना है तो यह गोलू बाउरी को तय करना होगा कि वह उसे कैसे पढ़ाएंगे। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि राज्य ऐसी व्यवस्था नहीं बना सका जहां गोलू को गरिमामय जीवन जीने लायक मजदूरी मिल सके। राज्य ऐसा नहीं कर सका जबकि संविधान ने ‘राज्य’ को यह जिम्मेदारी दी है कि वह इस तबके को सशक्त बनाए।

गोलू और जीत बाउरी कोई अपवाद नहीं हैं। भारतीय समाज में ऐसे लोगों की हिस्सेदारी बहुत अधिक है।

ध्यान रहे कि झारखंड के केवल एक जिले बोकारो में हाई स्कूल यानी कक्षा 10 तक की पढ़ाई के लिए 1.72 लाख बच्चों का नामांकन है। जबकि केवल 56.5 हजार बच्चे ही ऑनलाइन पढ़ाई कर पा रहे हैं। स्पष्ट है कि दो-तिहाई बच्चे शिक्षा से वंचित हो रहे हैं। इनकी कमजोर बुनियाद भविष्य में पढ़ाई की काफी मुश्किल खड़ी करेगी।

किसी भी व्यक्ति के गरिमामय जीवन जीने के लिए शिक्षा अत्यंत महत्वपूर्ण है। यही कारण है कि हमारा संविधान शिक्षा को मूलभूत अधिकार के रूप में स्वीकार करता है और यही  संविधान यह तय करता है कि प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिष्ठा और अवसर की समानता तथा गरिमा सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए व्यवस्थाएं बनाई जाएंगी। यही लक्ष्य भारत का संविधान भी तय करता है। 

जीत कुमार तथा उस जैसे अन्य बच्चों के शिक्षा के अधिकार का संरक्षण करने के लिए राज्य को संवेदनशील पहल करनी चाहिए थी। यह इसलिए भी आवश्यक था क्योंकि शिक्षा से ही वह सशक्त और गरिमामय जीवन जीने का अधिकार पा सकता है।

स्मार्टफोन इस्तेमाल न करने वाले बच्चों की तादाद इतनी ज्यादा होने के बावजूद उनकी शिक्षा का कोई और वैकल्पिक तरीका तलाशने के लिए किसी ने आवाज क्यों नहीं उठाई और यदि आवाज उठाई गई तो वह सत्ता प्रतिष्ठान के कानों तक क्यों नहीं पहुंची?

राज्य अपनी जिम्मेदारी क्यों नहीं निभा पाया है आजतक ? ऐसा क्यों हुआ कि संविधान प्रदत्त शिक्षा का अधिकार परिस्थितियों के असामान्य होते ही निरर्थक हो गया? 

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