संविधान: मूल अधिकार और नीति निदेशक तत्व 

आज़ादी के बाद भारत का चरित्र बेहतर बनाने और व्यवस्था को उचित आकार प्रदान करने के लिए सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अधिकारों की आवश्यकता थी। इन अधिकारों में सामाजिक और राजनीतिक अधिकारों को मूल अधिकारों में स्थान दिया गया। यह सुनिश्चित किया गया कि राज्य नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा करे। वहीं आर्थिक अधिकारों और आर्थिक लोकतंत्र की व्यवस्था राज्य के नीति निदेशक तत्वों के रूप में की गयी। दूसरे शब्दों में मूल अधिकारों को सुनिश्चित करना जहां राज्य के लिए बाध्यकारी था वहीं नीति निदेशक तत्वों के मामले में राज्य को इस बात के लिए बाध्य नहीं किया गया कि वह इन नीतिगत संवैधानिक प्रावधानों का पालन अवश्य करे। यह काम उसकी सदिच्छा पर छोड़ दिया गया था। दरअसल हमारे संविधान निर्माता पुरखों का मानना था कि आर्थिक लोकतंत्र के लिए जनता सरकारों को बाध्य करे। अर्थात वह उन पर दबाव बनाए कि वे नीति निदेशक तत्वों को लागू करें। संक्षेप में कहें तो भारत के संविधान में नागरिकों के अधिकारों को दो रूपों में वर्गीकृत किया गया है। भाग तीन में मूलभूत अधिकार हैं, जिनके मामले में न्यायालय का रुख किया जा सकता है (इन्हें न्याय संगत अधिकार या जस्टिसियेबल राइट्स कहा गया), जबकि भाग चार में राज्य की नीति के निदेशक तत्व (इन्हें गैर-न्याय संगत या नॉन-जस्टिसियेबल राइट्स कहा गया), जिन्हें अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती। हालांकि अपेक्षा यही थी कि राज्य, समाज की बेहतरी के लिए नीति बनाने में इन्हें मूलभूत तत्व के रूप में अपनायेगा।

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