गौतम भाटिया

लेखक अधिवक्‍ता, संविधान विशेषज्ञ, स्‍तंभकार हैं।

बंधुता और न्याय शब्दों पर बात करने से पहले हमें उसकी पृष्ठभूमि में जाना होगा और इसके लिए यह आवश्यक है कि पहले हम संविधान की उद्देशिका पर एक नजर डालें। संविधान की उद्देशिका कहती है:

हम, भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को: सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए, तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर, 1949 ई. (मिति मार्गशीर्ष शुक्ला सप्तमी, संवत् दो हजार छह विक्रमी) को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।

इस उद्देशिका को दोहराते हुए मुझे एक छोटी सी कहानी याद आती है। जब संविधान सभा की बहस चल रही थी तब कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पट्टाभि सीतारमैया ने यह प्रस्ताव रखा कि उद्देशिका में देश की अखंडता का जिक्र व्यक्ति की गरिमा के पहले किया जाए। संविधान सभा ने यह प्रस्ताव खारिज कर दिया। संविधान सभा का मानना था कि सबसे पहले व्यक्ति की गरिमा आती है और उसके बाद अखंडता। इसका अर्थ यह समझ सकते हैं कि व्यक्ति की गरिमा बरकरार रहेगी तभी देश की अखंडता भी बरकरार रहेगी। 

न्याय और बंधुता के साथ कई अन्य शब्द जुड़े हैं और इन शब्दों के अन्य शब्दों से मिलकर निकलते हैं। इसका एक उदाहरण देखते हैं। आजादी के तुरंत बाद 1950 में सर्वोच्च न्यायालय के सामने चंपकम दोराईराजन बनाम मद्रास राज्य का मामला आया। इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि मद्रास राज्य द्वारा दिया गया आरक्षण गैर संवैधानिक है क्योंकि समता के मूल तत्व के अनुसार आरक्षण नहीं मिल सकता। इसके बाद ही संशोधन किया गया और अनुच्छेद 15 (4) के जरिए आरक्षण को लाया गया। इसके 25 वर्ष बाद एनएन थॉमस केस में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि आरक्षण, समता के खिलाफ नहीं है बल्कि समता का एक भाग है। असली समता लाने के लिए आरक्षण जरूरी है। न्याय और बंधुता जैसे शब्दों को बहुत अलग-अलग ढंग से समझा और इस्तेमाल किया जा सकता है। इसलिए यह बात आवश्यक है कि संविधान को लिखे जाने तक के इतिहास तथा उसके बाद के इतिहास का अच्छी तरह अध्ययन किया जाए। उससे ही यह समझा जा सकता है कि संविधान में प्रयोग किए गए शब्दों का वास्तविक अर्थ क्या है। 

आजादी, समता और बंधुता एक दूसरे से खंडित नहीं हो सकते

इस इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति डॉ. अंबेडकर हैं क्योंकि संविधान को लिखने का काम उन्होंने किया। वह मसौदा समिति के अध्यक्ष थे। उन्होंने बंधुता को लेकर बहुत कुछ कहा। जब उद्देशिका को लिखा जा रहा था और उसके शब्दों पर विवाद हो रहा था तब उन्होंने संविधान सभा में कहा था कि आजादी, समता और बंधुता ये तीनों शब्द एक दूसरे से खंडित नहीं हो सकते। ये तीनों सम हैं। इनमें से एक को हटाने से इमारत ढह जाएगी। ये ऐसे जीवन मूल्य हैं जो एक दूसरे के बिना अधूरे हैं। उन्होंने कहा कि समता के बिना कुछ लोग बाकियों पर हावी हो जाएंगे, आजादी के बिना अगर केवल समता हो तो हर व्यक्ति की क्षमता पूरी नहीं हो पाएगी। आखिर में उन्होंने बहुत महत्वपूर्ण बात कही कि बंधुता के बिना आजादी और समता कभी स्वाभाविक नहीं हो पाएंगे। उन्होंने कहा कि बंधुता ही बाकी दोनों शब्दों को संविधान से निकालकर हमारे जीवन में लाएगी। इन तीनों शब्दों की शुरुआत फ्रांस की क्रांति से हुई थी और डॉ. अंबेडकर ने इन्हें हमारे इतिहास के संदर्भ में एक अलग अर्थ दिया। 

कुछ लोग कहते हैं कि संविधान का 75 फीसदी हिस्सा ब्रिटिश शासन अधिनियम 1935 से लिया गया है। यह सही है कि ब्रिटिशों ने स्वतंत्रता संग्राम को काबू में रखने के लिए जो व्यवस्थाएं की थीं, मसलन बिना सुनवाई के किसी को जेल में बंद कर देना। किसी निर्वाचित सरकार को बिना कारण अपदस्थ करने की शक्ति, राज्यों में गवर्नर के माध्यम से शासन करना आदि ये सीधे ब्रिटिशों से हमारे संविधान में आ गईं। परंतु यह एक हिस्सा है। दूसरा हिस्सा यह है कि हमारा संविधान राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्र में अत्यधिक परिवर्तनकारी है। ब्रिटिश काल की बात करें तो राजा और प्रजा का संबंध था। आजादी के बाद और संविधान बनने के बाद सारी प्रजा नागरिक हो गई। उद्देशिका में नागरिक शब्द का इस्तेमाल किया गया है। यह एक राजनीतिक बदलाव था जहां प्रजा नागरिक हो गई और राजा की जगह सरकार ने ले ली जो पारदर्शी और जनता के प्रति जवाबदेह है। मौलिक अधिकार, मताधिकार आदि हमें प्रजा से नागरिक होने के बदले मिले।

बंधुता समाज की बात है

संविधान प्रदत्त सामाजिक परिवर्तन कहीं अधिक गहरे हैं। सामाजिक सत्ताएं मसलन जातिवाद और पितृसत्ता आदि सरकार से संचालित नहीं हैं लेकिन समाज में ठोस ढंग से मौजूद हैं। ये लोगों के अधिकारों का हनन करते हैं और समता के खिलाफ हैं। संविधान इनमें भी बदलाव का वाहक बना। यानी जहां सरकार नहीं है लेकिन समाज के भीतर की समस्याएं और कठिनाइयां हैं, संविधान उन्हें भी दूर करने का प्रयास करेगा। 

यह एक अलग बात थी क्योंकि पूरी दुनिया में माना जाता था कि संविधान केवल सरकार और नागरिक के संबंध में बात करता है। भारतीय संविधान ने समाज को भी अपने दायरे में लिया। यहां पर अंबेडकर ने बंधुता के बारे में जो कुछ कहा वह बहुत महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि बंधुता का सरकार से लेनादेना नहीं है यह समाज की बात है। 

सवाल यह है कि बंधुता का इतिहास क्या था और डॉ. अंबेडकर ने संविधान में उसे इतना महत्व क्यों दिया? हमारे समाज में जातिप्रथा का एक पहलू था दलितों का सामाजिक बहिष्कार। अंबेडकर बचपन से इसका सामना करते रहे थे और इसके प्रभावों से अवगत थे। आप सबने वह किस्सा सुना होगा कि कैसे अंबेडकर को दलित होने के कारण स्कूल में पानी नहीं पीने दिया गया था। डॉ. अंबेडकर ने एक अखबार भी शुरू किया था ‘बहिष्कृत भारत’। उन्होंने 1927 में महार सत्याग्रह किया था जो बहुत महत्वपूर्ण था। संदर्भ यह था कि ब्राह्मण, दलितों को सार्वजनिक तालाब से पानी नहीं लेने देते थे। डॉ. अंबेडकर के नेतृत्व में एक सुबह दलितों ने उस तालाब से पानी लिया और दोपहर में मनुस्मृति का दहन किया। यह तीन-चार दिनों तक चला उसके बाद ब्राह्मण न्यायालय गए और काफी कुछ घटा। बहरहाल, इसी दौरान उन्हें अनुभव हुआ कि सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार दलितों को प्रताड़ित करने के हथियार हैं। इनकी मदद से उन्हें दबाया जाता है। 

बंधुता के बिना आजादी, समता, स्वतंत्रता का बेमानी

एक ब्रिटिश कमीशन भारत में छुआछूत और बहिष्कार पर अध्ययन करने आया था। डॉ. अंबेडकर ने उससे कहा कि मैं एक दलित हूं और अगर मैं बस में जाना चाहता हूं तो बस चालक मुझे बस में नहीं बिठाएगा। कमीशन ने उनसे पूछा कि अगर आपने टिकट लिया है तो क्यों नहीं बिठाएगा कोई कानून है क्या? अंबेडकर कहते हैं कि कानून नहीं है लेकिन यह बात समाज में इतने गहरे तक घुसी हुई है कि कानून की कोई जरूरत नहीं है। यह एक सामाजिक दिक्कत है

इन्हीं बातों के कारण अंबेडकर ने संविधान सभा में कहा कि बंधुता के बिना आजादी, समता, स्वतंत्रता आदि का कोई मोल नहीं है। संविधान के कुछ प्रावधान मसलन अनुच्छेद 14, 19, 21 आदि के बारे में सभी जानते हैं लेकिन कुछ हिस्से ऐसे हैं जो बंधुता के मूल्य के बारे में हैं लेकिन लोग उनके बारे में अधिक नहीं जानते। उदाहरण के लिए संविधान का अनुच्छेद 15 (2) की बहुत कम चर्चा होती है। यह कहता है कि कोई नागरिक केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर दुकानों, सार्वजनिक भोजनालयों, होटलों और सार्वजनिक मनोरंजन के स्थानों पर प्रवेश के संबंध में कोई भी शर्त या दायित्व या निर्बंध लागू नहीं होगा। यह प्रावधान कहता है कि किसी व्यक्ति को किसी दुकान, होटल या मनोरंजन की जगह पर जाति या लिंग के आधार पर प्रवेश करने से नहीं रोका जाएगा। हमारा पूरा इतिहास मंदिरों में प्रवेश के निषेध और दलितों के साथ जातीय आधार पर भेदभाव के उदाहरणों से भरा हुआ है। डॉ. अंबेडकर संविधान में बहिष्कार विरोधी कानून को शामिल करना चाहते थे लेकिन ऐसा नहीं हो सका। बर्मा में 1911 में एक बहिष्कार विरोधी कानून (एंटी बॉयकॉट लॉ) था अंबेडकर उस पूरे कानून को संविधान में शामिल करना चाहते थे लेकिन ऐसा नहीं हो सका। लेकिन 15 (2) का प्रावधान इसमें आ गया। 

इसके महत्व के लिए हम एक उदाहरण लेते हैं। 2011 का इंडियन मेडिकल एसोसिएशन बनाम भारत संघ के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि 15 (2) की जिस परिभाषा में दुकानों, सार्वजनिक भोजनालयों आदि का जिक्र है, उसमें स्कूल भी आते हैं और वहां भी भेदभाव नहीं किया जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय को ऐसा इसलिए कहना पड़ा क्योंकि उसके सामने ऐसे कई मामले आए जहां दलितों के साथ शैक्षणिक संस्थाओं में भेदभाव किया जाता था। 

अंबेडकर ने 15 (2) के बारे में कहा था कि जहां भी कोई सेवा ली या दी जा रही है वहां यह प्रावधान लागू होगा। इस प्रावधान का अर्थ बहुत व्यापक है। यानी किसी भी आर्थिक सेवा के लेने देने में जनता के बीच किसी तरह का भेदभाव नहीं किया जा सकता है। यानी जहां सरकार नहीं है वहां भी नागरिकों के बीच भेदभाव नहीं हो सकता। यानी 15 (2) कहता है कि आर्थिक बहिष्कार जैसे कदम अब नहीं उठाए जा सकते हैं। उनकी इजाजत नहीं है। स्पष्ट है कि यह प्रावधान समाज में बंधुता बढ़ाने के लिए रखा गया था। अब हमारे सामने चुनौती यह है कि इसे संविधान के मुताबिक समाज में कैसे लागू किया जाए। 

अनुच्छेद 17 छुआछूत के बारे में है। आपने 2017 का सबरीमला जजमेंट पढ़ा होगा। उस मामले में हमारे मौजूदा मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा था कि अगर महिलाओं को मंदिर में प्रवेश करने से रोका जा रहा है तो यहां छुआछूत का प्रावधान यहां लागू होगा। यह मामला अभी भी विवादों के केंद्र में है। 

बंधुता को लेकर संविधान के अनुच्छेद 15 से 17 तक प्रावधान हैं। अब हम बात करते हैं अनुच्छेद 23 की। यह कहता है कि मानव का दुर्व्‍यापार और बेगार तथा इस प्रकार का अन्य बलात श्रम प्रतिबंधित किया जाता है। यह आर्थिक न्याय से संबंध रखता है। 

इतिहास में जाएं तो 1929 में कराची घोषणापत्र में कांग्रेस ने संविधान से पहले संविधान बनाने की प्रक्रिया शुरू की। कांग्रेस ने कहा कि हम एक संविधान बनाएंगे क्योंकि किसी दिन तो आजादी आएगी। उस संविधान में श्रम अधिकार सबसे आगे थे। न्यूनतम मजदूरी, मातृत्व अवकाश आदि सबसे आगे थे। 

संविधान सभा में जब यह विवाद चल रहा था कि कौन से अधिकार शामिल हों और कौन से नहीं तब अंबेडकर से कहा गया कि वे एक नोट बनाएं। अंबेडकर ने तब चार पन्नों का एक नोट बनाया जिसे सबको पढ़ना चाहिए। बी. शिवाराव की किताब ‘फ्रेमिंग ऑफ इंडियन कॉन्स्टीट्यूशन: सिलेक्ट डॉक्युमेंट्स’ के वॉल्यूम 2 में अंबेडकर का यह नोट है जिसमें वह स्पष्ट करते हैं कि देश के आर्थिक ढांचे और मौलिक अधिकारों में करीबी रिश्ता है। यह बहुत क्रांतिकारी बात है क्योंकि अंबेडकर कहते हैं कि अभी तक जो भी संविधान लिखे गए हैं उनमें इन दोनों को अलग रखा गया है।

वह कहते हैं कि अगर संविधान में आर्थिक ढांचा नहीं डाला गया तो सरकार की तानाशाही के अलावा लोगों को मालिक की तानाशाही का सामना करना होगा। इसलिए उन्होंने कहा कि आर्थिक न्याय का सिद्धांत संविधान में होना चाहिए। हालांकि उस वक्त इसे स्वीकार नहीं किया गया और इसे नीति निर्देशक तत्वों में शामिल किया गया। लेकिन एक धारा बन गई जो अनुच्छेद 23 के अनुसार हमारे मौलिक अधिकारों में बनी रही। 

अब लड़ाई यह है कि हम इसकी व्याख्या कैसे करें और इसका दायरा कैसे बढ़ाएं?

महत्‍वपूर्ण है अधिकारों पर अंबेडकर का नोट

1982 में एशियाई खेलों के समय पीयूडीआर (पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स) मामले में सर्वोच्च न्यायालय का एक निर्णय आया था। खेलों के ठेकेदार मजदूरों पर बहुत अत्याचार और शोषण कर रहे थे। पीयूडीआर ने सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका लगाई। सवाल यह था कि कौन सा संवैधानिक प्रावधान निजी ठेकेदारों को ऐसा करने से रोकेगा। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में मजदूरों के पास असली आजादी नहीं होती है क्योंकि उनके और मालिक के बीच मोलभाव की शक्ति इतनी असमान है कि उनके पास कोई आजादी है ही नहीं। ऐसे में अगर मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी नहीं दी जाती है तो इसे बलात श्रम माना जाएगा क्योंकि मजदूर के पास यह शक्ति नहीं है कि वह मालिक या ठेकेदार से मोलभाव कर सके। यह बहुत महत्वपूर्ण नियम है क्योंकि भारत में केवल 13 प्रतिशत लोग ही औपचारिक मजदूरी करते हैं और श्रम कानूनों के दायरे में आते हैं। बाकी 87 प्रतिशत अनौपचारिक है जहां श्रम कानून लागू नहीं होते हैं। ऐसे में चूंकि कानून लागू नहीं होते तो उनकी मदद के लिए संविधान है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि सरकार हो या ठेकेदार, औपचारिक श्रम हो या अनौपचारिक, न्यूनतम मजदूरी देनी होगी।  

अंबेडकर चाहते थे कि बहिष्कार के विरुद्ध एक पूरा प्रावधान संविधान में हो लेकिन यह नहीं हो सका। वह आर्थिक न्याय को मौलिक अधिकार बनाना चाहते थे लेकिन वह नहीं हो सका। मूल संविधान में वह नहीं हो सका जो हो सकता था लेकिन फिर भी हमारे पास जो है हम उसके साथ काम कर सकते हैं।

अंबेडकर ने संविधान लागू होते समय संविधान सभा के अपने अंतिम भाषण में कहा था कि हम एक विरोधाभास के जीवन में प्रवेश कर रहे हैं। हमने राजनीतिक लोकतंत्र ले लिया लेकिन आर्थिक लोकतंत्र नहीं लिया है। हमने हर व्यक्ति को एक वोट दे दिया लेकिन आर्थिक मामले में हर व्यक्ति को समानता नहीं मिली। उन्होंने कहा कि अगर हम इन विरोधाभासों को सुलझा न सके तो इस संविधान का नाश हो जाएगा। आज हम देख सकते हैं कि वह सही थे क्योंकि जो कुछ संविधान में नहीं है उसके कारण हमें काफी कठिनाइयां हो रही हैं।

हमारे सामने अब चुनौती है कि हम अपने जीवन में कानून के बाहर यानी समाज में और कानून में भी कैसे संविधान का उपयोग करते हुए बंधुता और न्याय के मूल्यों को आगे बढ़ा पाएं।

(वर्धा में आयोजित संविधान संवाद कार्यशाला में दिए गए उद्बोधन के अंश) 

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