समलैंगिक विवाह : सर्वोच्च न्यायालय का आदेश और संवैधानिक नैतिकता
समलैंगिक विवाहों से संबंधित हालिया महत्वपूर्ण निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने सामाजिक नैतिकता और संवैधानिक नैतिकता के बीच के अंतर को स्पष्ट रूप से रेखांकित किया है। न्यायालय ने साफ कहा कि न्यायपालिका सदैव संवैधानिक नैतिकता से संचालित होती है, सामाजिक नैतिकता से नहीं। यह उसका कर्तव्य है कि वह बहुसंख्यक नैतिकता या लोकप्रिय धारणाओं के दबाव में न आते हुए व्यक्ति या किन्हीं व्यक्तियों के समूह के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा को प्राथमिकता दे।
सचिन कुमार जैन
संविधान शोधार्थी एवं अशोका फेलोशिप प्राप्त सामाजिक कार्यकर्ता। ‘संविधान की विकास गाथा’, ‘संविधान और हम’ सहित 65 से अधिक पुस्तक-पुस्तिकाओं का लेखन।
सर्वोच्च न्यायालय में सुप्रिया चक्रबर्ती और अन्य बनाम भारतीय संघ (1011/2022) के मामले में तर्क दिया गया कि एलजीबीटीक्यूआईए+ समूह के व्यक्तियों को धर्म, लिंग और लैंगिक अभिमुखता (सेक्शुअल ओरिएंटेशन) से इतर अपनी इच्छा से विवाह करने का अधिकार है। यह भी कहा गया कि विशेष विवाह अधिनियम भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 19 और 21 का उल्लंघन करता है क्योंकि इस अधिनियम में समलैंगिक विवाह, अनिश्चित लैंगिक पहचान और एलजीबीटीक्यूआईए+ समूह के व्यक्तियों के विवाह संपादित करने का विकल्प नहीं है। कहा गया कि वर्तमान व्यवस्था में विवाह में शामिल होने वाले व्यक्तियों को ‘पति’ और ‘पत्नी’ जैसी लैंगिक पहचान दी जाती है। अतः इनके स्थान पर ‘पक्ष’ या ‘जीवन साथी’ शब्द रखे जाएं।
न्यायालय को यह भी बताया गया कि यदि एलजीबीटीक्यूआईए+ व्यक्ति या समलैंगिक व्यक्ति विवाह करते हैं, तो उनके साथ उनके परिवार, समाज और सरकारी तंत्र (विशेष रूप से पुलिस) द्वारा शोषणकारी व्यवहार किया जाता है। उन्हें अपमानित किया जाता है, उनके साथ हिंसा की जाती है और उन्हें अपने वैवाहिक या सहजीवन के निर्णय को बदलने के लिए बाध्य किया जाता है। यहां तक कि उन्हें आवश्यक शासकीय योजनाओं और पंजीयन का लाभ भी नहीं दिया जाता है।
याचिका में मांग की गयी थी कि समलैंगिक विवाह को मान्यता दी जाए और सामाजिक नज़रिये को बदलने के लिए आवश्यक योजना बनाई जाए क्योंकि एलजीबीटीक्यूआईए+ व्यक्तियों का व्यवहार अप्राकृतिक नहीं होता है। यह स्वाभाविक और प्राकृतिक होता है और भारतीय इतिहास में इसके प्रमाण उपलब्ध हैं, लेकिन समाज द्वारा निर्धारित किए गये नियमों और व्यवहारिक मानकों ने समलैंगिक संबंधों या एलजीबीटीक्यूआई+ व्यक्तियों के स्वभाव को ‘आपराधिक व्यवहार’ के रूप में स्थापित किया है।
इन तर्कों के बावजूद 17 अक्टूबर 2023 के अपने निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने समलैंगिक व्यक्तियों के विवाह को मान्यता देने के लिए विशेष विवाह अधिनियम में संशोधन का आदेश नहीं दिया क्योंकि ‘विवाह’ को ‘संवैधानिक मौलिक अधिकार’ नहीं माना गया। साथ ही कहा गया कि एलजीबीटीक्यूआईए+ को वैवाहिक संबंध रखने का अधिकार है और इस आधार पर उन्हें किसी भी संवैधानिक और मानवीय अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय के इस आदेश को ‘संवैधानिक नैतिकता और सामाजिक नैतिकता’ के नज़रिये से भी देखा-समझा जाना चाहिए।
संवैधानिक नैतिकता बनाम सामाजिक नैतिकता
इस निर्णय में संदर्भ के साथ उल्लेख किया गया है कि भारतीय दंड संहिता में धारा 377 वास्तव में ‘सामाजिक नैतिकता’ का प्रतिनिधित्व करती थी, ‘संवैधानिक नैतिकता’ का नहीं। धारा 377 के अनुसार – ‘‘यदि कोई किसी पुरुष, स्त्री या जीव-जंतु के साथ ‘प्रकृति की व्यवस्था के विरुद्ध’ स्वेच्छापूर्वक संभोग करेगा तो उसे आजीवन कारावास या किसी खास अवधि के लिए कारावास जिसे दस वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है से दंडित किया जाएगा और साथ ही वह आर्थिक दंड के लिए भी उत्तरदायी होगा।’’ इस धारा के अनुसार अगर स्त्री किसी स्त्री के साथ या पुरुष किसी पुरुष के साथ आपसी सहमति से भी शारीरिक संबंध रखता है, तो इसे ‘प्रकृति के विरुद्ध’ अपराध माना जाएगा। इस अपराध में लिए कठोर सजा का प्रावधान था। इस धारा को सर्वोच्च न्यायालय ने ‘असंवैधानिक’ करार दिया था।
सामाजिक मान्यता है कि समलैंगिक संबंध या एलजीबीटीक्यूआईए+ व्यक्तियों के बीच शारीरिक संबंध ‘अप्राकृतिक’ हैं, जबकि विज्ञान और इतिहास दोनों ही यह प्रमाणित करते हैं कि ऐसे संबंध पूर्णतः ‘प्राकृतिक और स्वाभाविक’ होते हैं। समय के साथ सामाजिक मान्यताओं ने सामाजिक नियमों का रूप ले लिया और ऐसे संबंधों को ‘अप्राकृतिक’ और ‘आपराधिक’ मान लिया गया। फिर भारत के क़ानून (भारतीय दंड संहिता 1860) ने भी इस ‘अपराध’ की सजा तय कर दी। ‘सामाजिक नैतिकता’ के तहत अपनाया गया नियम और व्यवहार वास्तव में ‘शोषणकारी’ साबित हुआ। सामाजिक नैतिकता वास्तव में मानवीय और मूल्य आधारित है या नहीं, इसका निर्धारण ‘संवैधानिक नैतिकता’ के आधार पर ही हो सकता है।
प्रधान न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने अपने आदेश में सुरेश कुमार कौशल के मामले का उल्लेख करते हुए लिखा है, “तीन न्यायाधीशों की पीठ ने यह माना था कि धारा 377 में ‘प्रकृति की व्यवस्था के विरुद्ध’ कोई स्थायी नियम नहीं है, लेकिन यह संवैधानिक मूल्यों के बजाय सामाजिक नैतिकता से निर्देशित अवधारणा थी; और इस सामाजिक नैतिकता से प्रभावित होने के कारण जनसंख्या के एक वर्ग को अपने रूचि के मुताबिक़ व्यवहार करते समय हमेशा भय की अवस्था में नहीं रहना चाहिए।” उन्होंने आगे लिखा,
“एलजीबीटीक्यूआईए+ समूह ने विभिन्न रूपों में भेदभाव का सामना इसलिए किया है क्योंकि ‘राज्य’ ने आम लोगों को समलैंगिकों के अधिकारों के बारे में संवेदनशील नहीं बनाया; सदियों तक जिन सामाजिक मानदंडों और मान्यताओं को आत्मसात किया जाता रहा, वर्ष 1950 में संविधान को अंगीकृत करने के बाद उन्हें (सामाजिक मानदंडों और मान्यताओं को) एक झटके में नहीं बदला जा सकता है।”
परिवर्तनशील संस्था है विवाह
भारतीय सामाजिक व्यवस्था में ‘विवाह’ को एक महत्वपूर्ण ‘संस्कार’ माना जाता है। इसके आसपास कई मानक, नियम और परम्पराएं निर्मित हैं, लेकिन इसके साथ ही यह ‘सामाजिक नैतिकता’ का भी केंद्र बना है। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश में ‘विवाह संस्था की अवधारणा’ का विश्लेषण करते हुए यह उल्लेख किया गया है कि ‘विवाह’ की कोई वैश्विक और सर्वव्यापी परिभाषा नहीं है। अलग-अलग कानूनों में, धर्मों और संस्कृतियों में इसे अलग-अलग ढंग से परिभाषित किया गया है। कुछ धर्म इसे धार्मिक अनुष्ठान मानते हैं जबकि कुछ अन्य धर्म इसे अनुबंध मानते हैं। विवाह से संबंधित क़ानून विवाह की उम्र, परस्पर सहमति आदि का निर्धारण करते हैं। यह भी स्वीकार कर लेना चाहिए कि विवाह की अवधारणा और इससे संबंधित नियमों में बहुत बड़े-बड़े बदलाव आए हैं। इन मायनों में विवाह कोई स्थिर या हमेशा एक समान बनी रहने वाली व्यवस्था नहीं है। भारतीय सामाजिक व्यवस्था के संदर्भ में यह देखा जा सकता है कि समाज ने ‘सामाजिक नैतिकता’ के आधार पर ही ‘सती’ प्रथा की रचना की थी, परंतु जब समाज में चेतना आई और प्रतिकार हुआ तब इस प्रथा को प्रतिबंधित किया गया। इसी तरह बाल विवाह की प्रथा का निर्माण भी समाज ने ही सामाजिक नैतिकता के मानकों का पालन करते हुए किया था, लेकिन इस प्रथा में भी बदलाव आए। भारत में पति की मृत्यु हो जाने पर विधवा हुई स्त्री के पुनर्विवाह करने पर सामाजिक प्रतिबंध था, जबकि पत्नी की मृत्यु हो जाने पर पति को पुनर्विवाह करने का सशक्त अधिकार हमेशा से रहा है। विवाह की व्यवस्था पर जाति व्यवस्था का भी गहरा प्रभाव देखा गया है। अंतरजातीय और अंतरधार्मिक विवाहों पर प्रतिबंध ही नहीं रहा बल्कि ऐसे विवाह ‘समुदायों और पंथों’ की अस्मिता से जुड़े बड़े प्रश्न माने गये। इन प्रश्नों से असमानता और हिंसा तक उत्पन्न हुई। कितने आश्चर्य की बात है कि जब अलग-अलग जाति के दो व्यक्ति प्रेम के कारण विवाह करते हैं; इस अपराध के लिए उनके समुदाय उनकी हत्या कर देते हैं और इस हत्या को ‘प्रतिष्ठा के लिए हत्या यानी आनर किलिंग’ कहा जाता है। विवाह संस्था के भीतर भी हिंसा और असमानता का व्यवहार मौजूद रहा। दहेज प्रथा और घरेलू हिंसा इसके उदाहरण हैं।
संभवतः इन मायनों में ‘विवाह’ को कोई स्थायी संस्कार या संस्था नहीं माना जाता है और सर्वोच्च न्यायालय इसे संवैधानिक मौलिक अधिकार भी नहीं मानता है। परंतु ‘संवैधानिक भूमिका’ के अंतर्गत न्यायालय यह समीक्षा करता है कि ‘विवाह’ संस्था के भीतर कोई हिंसा, अन्याय, अपमान न हो और मूलभूत अधिकारों का उल्लंघन न हो। वास्तव में ‘सामाजिक नैतिकता’ के आधार पर बनी ‘विवाह परंपरा’ का मूल्यांकन ‘संवैधानिक नैतिकता’ के आधार पर ही होता है। यह भी उल्लेख किया गया कि विवाह मूलभूत अधिकार नहीं है और न ही इसे महज इसलिए मूलभूत अधिकार का दर्ज़ा दिया जा सकता है क्योंकि इसे नियंत्रित करने के लिए क़ानून (जैसे विशेष विवाह अधिनियम) बने हुए हैं। बहरहाल वैवाहिक संबंधों में कुछ संवैधानिक मूल्यों के प्रतिबिंब दिखाई देते है; जैसे – ‘मानवीय गरिमा, जीवन का अधिकार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता।’ इसका मतलब यह भी है कि संवैधानिक मूल्य महज एक सैद्धांतिक संदर्भ और निष्क्रिय शब्द नहीं हैं। इन्हें व्यक्ति के व्यवहार और सामाजिक संरचनाओं में व्यवहारिक रूप में लागू किया जाना चाहिए और यह परीक्षण भी किया जाना चाहिए कि इन मूल्यों को त्यागा नहीं जा रहा है, बल्कि ज्यादा से ज्यादा उपयोग करके इन्हें प्रभावी रूप प्रदान किया जा रहा है।
सर्वोच्च न्यायालय ने समलैंगिक समूह के विवाह के अधिकार से संबंधित मामले में अपने आदेश में लिखा, “व्यक्तिगत संबंधों को लोकतांत्रिक बनाने के लिए ही व्यक्तिगत/अन्तरंग क्षेत्रों को विनियमित (रेगुलेट) करने में राज्य की रुचि है;” इसका अर्थ यह है कि समाज द्वारा निर्मित विवाह की व्यवस्था क्या हो, इस पर कोई नीति नहीं बनायी जा सकती है, लेकिन उस व्यवस्था में संवैधानिक नैतिकता और संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन न हो, यही सुनिश्चित करने में राज्य की अहम भूमिका है।
वर्ष 2012 में बच्चों का लैंगिक अपराधों से संरक्षण अधिनियम (पोक्सो) लागू हुआ। इस अधिनियम के मुताबिक़ 18 वर्ष से कम उम्र के हर व्यक्ति को ‘बच्चा’ माना गया है। पोक्सो अधिनियम के मुताबिक़ बच्चों का/के साथ किसी भी प्रकार का लैंगिक उत्पीड़न ‘अपराध’ है। लेकिन भारतीय दंड संहिता की धारा 375 के अपवाद 2 के अनुसार अगर कोई पुरुष अपनी 15 वर्ष या इससे ज्यादा उम्र की पत्नी के साथ शारीरिक/लैंगिक संबंध स्थापित करता है, तो उसे ‘बलात्कार’ नहीं माना जाएगा। दंड संहिता की यह धारा पूरी तरह पोक्सो अधिनियम के प्रावधानों के विपरीत है। इसका मतलब यह है कि एक व्यक्ति ‘पोक्सो अधिनियम’ के अंतर्गत अपराधी होगा, लेकिन भारतीय दंड संहिता की धारा 375 के अंतर्गत अपराधी नहीं होगा। यह विसंगति भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 का उल्लंघन करती है और संवैधानिक नैतिकता के प्रभाव को समाप्त करती है। न्यायपालिका ने माना कि यह धारा 15 वर्ष या इससे अधिक उम्र की लड़की (चाहे वह पत्नी के रूप में) के साथ बलात्कार से पुरुष को छूट प्रदान करती है। तब संवैधानिक नैतिकता के मानकों (न्याय, समता और गरिमा) के आधार पर दंड संहिता में संशोधन किया गया। अब 15 वर्ष की उम्र की पत्नी से भी शारीरिक संबंध बनाना अपराध है।
सुप्रिया चक्रबर्ती और अन्य बनाम भारतीय संघ के प्रकरण में न्यायमूर्ति संजय किशन कौल ने अपने आदेश में लिखा है, “यह पूर्ण रूप से स्थापित हो चुका है कि संवैधानिक न्यायालय का कर्तव्य संविधान में निहित अधिकारों को बनाए रखना है और बहुसंख्यकवादी प्रवृत्तियों या लोकप्रिय धारणाओं से प्रभावित होना नहीं है। यह न्यायालय हमेशा संवैधानिक नैतिकता से निर्देशित होता है न कि सामाजिक नैतिकता से।”
वास्तव में संवैधानिक नैतिकता क्या है? जब भारत ने एक ऐसा संविधान बनाया और अपनाया, जिसमें लोगों के लिए मूलभूत अधिकार निर्धारित किये गये, जिसमें विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका की भूमिका और कार्यप्रणाली को परिभाषित किया गया, उसी संविधान की उद्देशिका में यह घोषित किया गया कि स्वतंत्र भारत का चरित्र और स्वभाव कैसा होगा? उसमें राज्य व्यवस्था को संप्रभु और लोकतांत्रिक बनाया गया, सभी लोगों को राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक न्याय और धर्म, विश्वास, विचार, अभिव्यक्ति, विचरण की स्वतंत्रता दी गयी; इसमें व्यक्ति की गरिमा और आपसी बंधुता को राष्ट्र की एकता और अखंडता का आधार माना गया। भारत के लोग, भारत के राजनीतिक दल, भारत के संगठन, भारत की न्यायपालिका, भारत की कार्यपालिका और भारत की विधायिका उद्देशिका में दर्ज इन मौलिक मूल्यों को अपने स्वभाव, विचार तंत्र और कार्यप्रणाली का हिस्सा बनाये यही ‘संवैधानिक नैतिकता’ है। वे अपनी भूमिका और अपनी नीतियों का परीक्षण भी इन्हीं मौलिक मूल्यों के आधार पर करें, यही ‘संवैधानिक नैतिकता’ है।