भारतीय संविधान में विश्व स्वतंत्रता का स्वप्न
भारत के संविधान को दुनिया का अनूठा संविधान माना जा सकता है। दरअसल भारतीय संविधान केवल व्यक्ति के अस्तित्व और गरिमा का ही ध्यान नहीं रखता है बल्कि उसमें महाद्वीप, विश्व और प्रकृति के संरक्षण के बारे में भी पर्याप्त बात की गयी है। ऐसा इसलिए हो सका क्योंकि भारत की संविधान सभा अपने समय की वैश्विक परिस्थितियों से अछूती नहीं थी।
सचिन कुमार जैन
संविधान शोधार्थी एवं अशोका फेलोशिप प्राप्त सामाजिक कार्यकर्ता। ‘संविधान की विकास गाथा’, ‘संविधान और हम’ सहित 65 से अधिक पुस्तक-पुस्तिकाओं का लेखन।
भारत को जिस समय आज़ादी मिली, वह न केवल देश के लिए बल्कि वैश्विक स्तर पर भी अत्यंत जटिल और चुनौतीपूर्ण दौर था। दुनिया विश्व युद्ध के साये में थी, चौतरफा उपनिवेशवाद फैला हुआ था, विध्वंसक हथियारों की चाह बढ़ती जा रही थी। सत्ता के लिए साम्प्रदायिक वैमनस्यता का बीज बोया जा रहा था और आर्थिक निर्धनता बढ़ रही थी। यह कोई सुखद विरासत नहीं थी। इसके बावजूद भारत ने केवल अपने हित या अपनी शक्ति का विस्तार करने का स्वप्न नहीं देखा। भारत की आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाले बार-बार यही दोहराते रहे कि हम अमन चाहते हैं। वे कहते रहे कि हम केवल मुल्क की नहीं, हर व्यक्ति की आज़ादी चाहते हैं।
संविधान सभा का उद्देश्य था स्वतंत्र भारत के लिए सर्वमान्य संविधान का निर्माण करना। आज़ादी के बाद भारत कैसा देश बनेगा, उसकी व्यवस्था और चरित्र कैसे होंगे, यह स्पष्ट करने के लिए सभा के समक्ष सबसे पहले “भारत की स्वतंत्रता का घोषणा पत्र और संविधान का लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव” पेश किया गया। इसमें उपनिवेशवाद के अनुभवों की पीड़ा, अहिंसक स्वतंत्रता संग्राम का गर्व और उपनिवेशवाद से मुक्ति के संघर्ष की खुशबू के साथ-साथ भारत को एक मूल्य आधारित देश बनाने का सपना भी था। भारत की संविधान सभा केवल सत्ता प्राप्ति के लिए संविधान नहीं बना रही थी, बल्कि यह भारत को एक गरिमामय मुकाम दिलाने के लिए प्रतिबद्ध थी।
सन 1946 में 13 दिसम्बर को संविधान सभा में भारत की स्वतंत्रता का घोषणा पत्र पेश करते हुए पंडित जवाहर लाल नेहरू ने कहा, “आप जानते हैं कि यह जो संविधान सभा है, बिलकुल उस किस्म की नहीं है, जैसा कि हममें से बहुत से लोग चाहते थे। यह खास हालात में पैदा हुई है और इसके पैदा होने में अंग्रेजी हुकूमत का हाथ है। कुछ शरारत भी इसमें उन्होंने लगाई है। हमने बहुत गौर के बाद उस बयान का, जो कि इस संविधान सभा की बुनियाद सा है, मंज़ूर किया है। हमारी कोशिश रही है और रहेगी कि जहां तक मुमकिन हो, हम उसे उन हदों में चलायें, लेकिन इसके साथ आप याद रखें कि आखिर इस संविधान सभा के पीछे क्या ताकत है और किस चीज ने इसे बनाया है? ऐसी चीजें हुकूमत के बयानों से नहीं बनती हैं। हुकूमत के जो बयान होते हैं, वे किसी ताकत की और किसी मजबूरी की तर्जुमानी करते हैं और अगर हम यहां मिले हैं तो हिंदुस्तान के लोगों की ताकत से मिले हैं। जो बात हम करें, उसी दर्जे तक कर सकते हैं, जितनी कि उसके पीछे हिंदुस्तान के लोगों की ताकत और मंज़ूरी हो – कुल हिंदुस्तान के लोगों की; किसी खास फिरके या किसी खास गिरोह की नहीं।”
पंडित नेहरू ने इसी दिन ‘भारतीय स्वतंत्रता का घोषणा पत्र’ प्रस्तुत किया। इसमें यह बताने की कोशिश की गई थी कि उस दौर के नेता कैसा संविधान और कैसी संवैधानिक व्यवस्था बनाना चाहते थे…… पंडित नेहरू ने कहा कि “इस मौके पर हमें एक जानदार पैगाम हिन्दुस्तान को देना है और हिंदुस्तान के बाहर भेजना है और यह दिखाना है कि हम क्या करना चाहते हैं? इस घोषणा पत्र में आठ बिंदु हैं–
1. “यह विधान परिषद भारतवर्ष को एक पूर्ण स्वतंत्र जनतंत्र घोषित करने का दृढ़ और गंभीर संकल्प प्रस्तुत करती है और निश्चय करती है कि उसके भावी शासन के लिए एक विधान बनाया जाये।
2. जिसमें उन सभी प्रदेशों का एक संघ होगा, जो आज ब्रिटिश भारत तथा देसी रियासतों के अंतर्गत तथा इनके बाहर भी हैं और जो आगे स्वतंत्र भारत में सम्मिलित होना चाहते हों।
3. और जिसमें उपर्युक्त सभी प्रदेशों को, जिनकी सीमा (चौहद्दी) चाहे कायम रहे या विधान सभा और बाद में विधान के नियमानुसार बने या बदले, एक स्वाधीन इकाई या प्रदेश का दर्ज़ा मिलेगा व रहेगा। उन्हें वे सब शेषाधिकार प्राप्त होंगे व रहेंगे, जो संघ को नहीं सौंपे जायेंगे और वे शासन तथा प्रबंध संबंधी सभी अधिकारों को बरतेंगे सिवाय उन अधिकारों और कामों के जो संघ को सौंपे जायेंगे अथवा जो संघ में स्वभावतः निहित या समाविष्ट होंगे या जो उससे फलित होंगे; और
4. जिसमें स्वतंत्र भारत तथा उसके अंगभूत प्रदेशों और शासन के सभी अंगों की सारी शक्ति और सत्ता (अधिकार) जनता द्वारा प्राप्त होगी; तथा
5. जिसमें भारत के सभी लोगों (जनता) को राजकीय नियमों और साधारण सदाचार के अनुकूल, निश्चित नियमों के आधार पर सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक न्याय के अधिकार, वैयक्तिक स्थिति व सुविधा की तथा मानवीय समानता के अधिकार और विचारों की, विचारों को प्रकट करने की, विश्वास व धर्म की, ईश्वरोपासना की, काम-धंधे की, संघ बनाने व काम करने की स्वतंत्रता के अधिकार रहेंगे और माने जायेंगे; और
6. जिसमें सभी अल्पसंख्यकों के लिए, पिछड़े और कबाइली प्रदेशों के लिए तथा दलित और पिछड़ी हुई जातियों के लिए काफी संरक्षण विधि रहेगी; और
7. जिसके द्वारा इस जनतंत्र के क्षेत्र की अक्षुण्णता (आंतरिक एकता) रक्षित रहेगी और जल, थल और हवा पर उसके सब अधिकार, न्याय और सभ्य राष्ट्रों के नियमों के अनुसार रक्षित होंगे; और
8. यह प्राचीन देश संसार में अपना योग्य व सम्मानित स्थान प्राप्त करने और संसार की शांति तथा मानव जाति का हित-साधन करने में अपनी इच्छा से पूर्ण योग देगा।”
“………यह एक घोषणा है। यह एक दृढ़ निश्चय है। यह एक प्रतिज्ञा और दायित्व है हम सबों के लिए। हमें विश्वास है कि यह एक व्रत है! मैं चाहता हूं कि सभा इस प्रस्ताव पर कानूनी शब्द-जाल की संकुचित भावना से विचार न करे बल्कि उसके मूल में जो भावना है, उसे मद्देनज़र रखकर उस पर विचार करे……… जब भारत को हम सर्वाधिकारपूर्ण स्वतंत्र राष्ट्र बनाने जा रहे हैं तो किसी बाहरी शक्ति को हम राजा न मानेंगे और न किसी स्थानीय राजतंत्र की ही तलाश करेंगे। यह तो निश्चय ही प्रजातंत्रीय (रिपब्लिक) होगा। कुछ मित्रों ने यह प्रश्न किया कि मैंने प्रस्ताव में लोकतंत्रीय (डेमोक्रेटिक) शब्द क्यों नहीं रखा। मैंने उन्हें बताया कि प्रजातंत्रीय राज्य लोकतांत्रिक न हो, ऐसा समझा जा सकता है, पर हमारा सारा अतीत इस बात का गवाह है कि हम लोकतांत्रिक संस्था की ही स्थापना करना चाहते हैं। कुछ लोग इस बिना पर इस प्रस्ताव का विरोध कर सकते हैं कि इसमें समाजवादी राष्ट्र को नहीं अपनाया है, मैं भी समाजवादी राष्ट्र चाहता हूं……। असली बात यह है कि यदि मैं अपनी इच्छानुसार इस प्रस्ताव में यह रखता कि हम समाजवादी राष्ट्र चाहते हैं तो शायद इसमें कुछ ऐसी बातें आ जातीं जो बहुतों को ग्राह्य होती और कुछ को अग्राह्य। हम यह नहीं चाहते थे कि ऐसी बातों को लेकर यह प्रस्ताव विवादात्मक हो जाये, इसलिए प्रस्ताव में हमने पारिभाषिक शब्द नहीं रखे हैं बल्कि हम क्या चाहते हैं इसका निचोड़ रख दिया है……। यहां हममें से बहुतों ने गत वर्षों से एक या अधिक पीढ़ियों से भारत की आज़ादी की लड़ाई में अक्सर हिस्सा लिया है। हम आफतों के बीच से गुज़रे हैं, हम इसके आदी हैं और यदि जरूरत आ गयी तो हम पुनः विपत्तियों से खेलेंगे। फिर भी इन तमाम संघर्षों के दौरे में हम हमेशा ऐसे अवसर की बात सोचते रहे हैं, जब हम संघर्ष और विध्वंस नहीं बल्कि निर्माण के काम में लग जाएं।”
भारत के नेता सिर्फ ऐसा संविधान नहीं बनाना चाहते थे, जो केवल भारत की बेहतरी करता, भारत की ही आर्थिक उन्नति सुनिश्चित करता या भारत के समाज को उत्कृष्ट बनाता। संविधान निर्माण की इस प्रक्रिया को गहराई से जानना इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि भारत की संविधान सभा सहभागिता, वैश्विक समानता, उपनिवेशवाद की समाप्ति, आत्मनिर्भरता, शांति और स्थायी कल्याण का वैश्विक स्वप्न देख रही थी। भारत जब आज़ादी के लिए संघर्ष कर रहा था, तब उसने केवल अपने दुखों को ही नहीं सहा, बल्कि रूस की क्रांति के अनुभव और दो विध्वंसकारी विश्व युद्धों की पीड़ा का भी सामना किया। लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव में इसके साफ संकेत मिलते हैं। संभवतः भारत का संविधान ही दुनिया का ऐसा अनूठा संविधान है, जिसे बनाते समय न केवल व्यक्ति के अस्तित्व और गरिमा का ख्याल किया गया, बल्कि महाद्वीप, विश्व और प्रकृति के संरक्षण की भी बात गयी।
पुरुषोत्तम दास टंडन ने लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव का समर्थन करते हुए कहा:
“संसार ने समझ लिया है कि दुनिया के एक सुदूर कोने में भी जो अत्याचार किया जाता है, उसका व्यापक असर खुद अत्याचारी देश पर और उसके पड़ोसी देशों पर पड़ता है। गत दो विश्व युद्धों ने यह बात प्रमाणित कर दी है। आज संसार के बड़े-बड़े नेता विश्व को तृतीय विश्व युद्ध की बर्बादी से बचाने का उपाय खोजने में लगे हैं। वे संसार को स्वर्ग बनाना चाहते हैं, जहां न और युद्ध होंगे, न इंसान का खून बहाया जायेगा। जहां अमीर और गरीब के बीच भेदभाव न होगा, जहां सबको भोजन और अन्न मिलेगा, जहां हर आदमी को हक हासिल होगा कि वह अपने आदर्शों के अनुसार जीवन बिताए। जहां प्रत्येक बच्चे को शिक्षा का अधिकार होगा, जहां आदर्श उच्च और उच्चतर होंगे, जहां निवासियों के बीच एक आत्मिक संबंध होगा।”
बहरहाल डॉ. अम्बेडकर लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव से निराश थे। उनका मानना था कि “प्रस्ताव के बिंदु 5 और 7 (मानवाधिकार संबंधी) में जो बातें कही गयी हैं, वे फ्रांस की मानव अधिकार घोषणा के तहत 450 साल पहले सामने आ गयी थीं, और भारत जैसे कट्टर और पुरातनवादी मुल्क में भी सभी लोग इससे सहमत होंगे। उनका कहना था कि इस प्रस्ताव में अधिकारों की चर्चा की गयी है, किन्तु उनकी सुरक्षा का कोई उपचार नहीं दिया गया है। अधिकारों का कोई महत्व नहीं होता, यदि उनकी रक्षा की व्यवस्था न हो ताकि अधिकारों पर कुठाराघात होने की स्थिति में उनका बचाव कर सकें। मौलिक आधारों को भी क़ानून और सदाचार के अधीन रख दिया गया है, निश्चय ही क़ानून और सदाचार क्या है, इस बात का निर्णय तत्कालीन शासन प्रबंध (कार्यपालिका) करेगा, किसी प्रबंध का एक फैसला हो सकता है, और दूसरे का दूसरा। मैं आशा करता था कि यह प्रस्ताव ऐसी व्यवस्था करता कि राज्य सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक न्याय प्रदान कर पाता……और कहता कि देश में उद्योग धंधों का और भूमि का राष्ट्रीयकरण किया जायेगा।”
बहरहाल जब वे स्वयं संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष बने, तो उन्होंने न केवल मूलभूत अधिकारों को कुछ शर्तों के अधीन रखा, बल्कि इसकी अनिवार्यता की वकालत की। वह मानते थे कि मूलभूत अधिकार पूरी तरह से निर्बंधनों से मुक्त नहीं हो सकते हैं।
संविधान सभा की बैठकों से मुस्लिम लीग अनुपस्थित रही। उस वक्त मुस्लिम लीग का लक्ष्य था पाकिस्तान का निर्माण और इसीलिए उनका मानना था कि भारत की संविधान सभा में सहभागिता करने से उनके अभियान में कमजोरी आयेगी। बहरहाल फिर भी एम.आर. जयकर सरीखे संविधान सभा के सदस्य बार-बार उनकी भागीदारी सुनिश्चित करने की बात कहते रहे। डॉ. अम्बेडकर ने भी उनका समर्थन करते हुए कहा:
“मेरा सुझाव है कि कांग्रेस और मुस्लिम लीग के झगड़े को सुलझाने के लिए एक और प्रयास करना चाहिये। यह मामला इतना संगीन है, इतना महत्वपूर्ण है कि इसका फैसला एक या दूसरे दल की प्रतिष्ठा के ख्याल से नहीं किया जा सकता। जहां राष्ट्र के भाग्य का फैसला करने का प्रश्न हो, वहां नेताओं, दलों, तथा संप्रदायों की शान का कोई मूल्य नहीं होना चाहिये। वहां तो राष्ट्र के भाग्य को ही सर्वोपरि रखना चाहिये……मैं कुछ सदस्यों से यह सुनता आया हूं कि वे युद्ध के लिए तैयार हैं। मैं इस कल्पना से भी कांप उठता हूं कि इस देश का कोई भी व्यक्ति यह सोचे कि युद्ध द्वारा वह देश की राजनीतिक समस्या को हल कर लेगा……। उनका विश्वास है कि उनका युद्ध अंग्रेजों के साथ होगा। अगर यह युद्ध, जो लोगों के दिमाग में है, परिमित दायरे में होता और सिर्फ अंग्रेजों तक ही सीमित रहता तो मुझे इस कौशल पर, इस युक्ति पर कोई आपत्ति न होती। परंतु क्या आप समझते हैं कि यह युद्ध सिर्फ अंग्रेजों के ही विरुद्ध होगा? मुझे यह कहने में रंचमात्र भी दुविधा नहीं है और सभा के सामने मैं साफ़ शब्दों में कहना चाहता हूं कि अगर देश में युद्ध हुआ और उसका संबंध हमारी आज की समस्या से रहा तो फिर यह युद्ध अंग्रेजों के साथ न होगा, यह होगा मुसलमानों के साथ……। बल्कि या उससे भी बुरा होगा और यह युद्ध होगा मुसलमानों और अंग्रेजों की सम्मिलित शक्ति के साथ।”
यह सच है कि हिन्दुओं और मुस्लिमों के बीच जो खाई बन गयी थी, उसे पाटना संभव नहीं नजर आ रहा था। चूंकि साम्प्रादायिकता के मूल में भावुकता और राजनीतिक सत्ता दोनों ही होती हैं, इसलिए साम्प्रदायिक हिंसा और दंगों की आशंका से भारत घिरा हुआ था; हिंसा की यह आशंका सच ही साबित भी हुई। इसके बावजूद संविधान सभा के सदस्य शांति से समाधान की संभावना खोज रहे थे। आज हिंसा, अस्त्रों-शस्त्रों, तनाव और भेदभाव से अल्पसंख्यकों, आदिवासियों और दलितों को कुचलने की कोशिशें हो रही हैं, इसकी नींव में ब्रिटिश शासन द्वारा बोई गयी दुर्भावना ही है, जिसका इस्तेमाल हिन्दूवादी भारत बनाने के लिए किया जा रहा है। इस बारे में डॉ. अम्बेडकर ने कहा था,
“केवल बल प्रयोग कभी स्थायी नहीं होता। उससे कुछ देर के लिए किसी को दबाया जा सकता है पर उससे पुनः दबाने की आवश्यकता दूर नहीं की जा सकती। उस जाति पर कभी शासन नहीं किया जा सकता, जिसे हमेशा ही जीतने की जरूरत पड़े। बल प्रयोग का परिणाम अनिश्चित होता है। बल प्रयोग से सदा आतंक ही नहीं पैदा होता। अगर हम सदा शस्त्र ही उठाये रहें, तो फिर यह विजय कैसी? बल प्रयोग से अगर आप असफल होते हैं तो फिर कोई साधन आपके पास नहीं रह जाता। अगर आप मीठे तरीके से सुलह करने में असफल होते हैं तो बल प्रयोग का साधन आपके हाथ में रहता है, बल प्रयोग में अगर आप हारे तो फिर समझौते की कोई गुंजाइश नहीं रहती। दया दिखाने से अधिकार और शक्ति तो कभी-कभी प्राप्त हो जाते हैं परंतु बल प्रयोग में पराजित होने पर आप अधिकार की भीख नहीं मांग सकते। बल प्रयोग पर मेरी आपत्ति यह भी है कि इसके द्वारा लक्ष्य प्राप्ति के प्रयास में आप अपने लक्ष्य को ही क्षीण बना देते हैं। बल प्रयोग में विजयी होने पर आपको क्या मिलता है? जो भी आप पाते हैं, वह युद्ध के सिलसिले में प्रायः मूल्यहीन, जर्जरित और बर्बाद हो चुका रहता है। निश्चय ही आप विजय पाने के लिए युद्ध नहीं करते हैं……… यह मेरी गंभीर चेतावनी है और इसकी उपेक्षा करना खतरनाक होगा। अगर किसी के दिमाग में यह ख़याल हो कि बल-प्रयोग द्वारा, युद्ध द्वारा, क्योंकि बल प्रयोग ही युद्ध है। हिन्दू-मुस्लिम समस्या का समाधान किया जाये ताकि मुसलमानों को दबाकर उनसे वह विधान मनवा लिया जाये जो उनके रजामंदी से नहीं बना है तो इससे देश ऐसी स्थिति में फंस जायेगा कि उसे मुसलमानों को जीतने में सदा लगे रहना पड़ेगा। एक बार जीतने से ही जीत का काम समाप्त न हो जायेगा।” उन्होंने कितनी परिपक्व बात कही थी; यही भारत की नीति भी रही है कि हमें कभी भी हिंसा या बल के जरिये किसी विचार या समुदाय को कोई विकल्प अपनाने के लिए मजबूर नहीं करना चाहिये, यदि हम ऐसा करते हैं तो संभव है कि जल्दी ही वह समुदाय खुद कोई विकल्प खोजे और आपसे प्रतिशोध लेने के लिए तैयार हो जाये।
कोई भी समाज अपने अतीत और अनुभवों से जीवन के पाठ सीखता है। जिन लोगों ने और जिस अहिंसा-सद्भाव-सहिष्णुता की विचारधारा ने भारत को स्वतंत्रता दिलाई थी, वह हमें भारत के संविधान में मौजूद दिखाई देती है; किन्तु हम कहां चूक गये? हम चूक गये अपनी सामाजिक-राजनीतिक शिक्षण की योजना में, हमने आज़ाद भारत को कभी न्याय, समानता, बंधुता, सह-अस्तित्व और स्वतंत्रता का प्रयोग करना सिखाया ही नहीं! हम तो भारत के लोगों को नागरिक से ज्यादा, गुलाम बनाये रखने की योजनायें बनाते रहे!