सचिन कुमार जैन

संविधान शोधार्थी एवं अशोका फेलोशिप प्राप्त सामाजिक कार्यकर्ता। ‘संविधान की विकास गाथा’, ‘संविधान और हम’ सहित 65 से अधिक पुस्तक-पुस्तिकाओं का लेखन।

जब हम लोकतंत्र की परिभाषा जानने की कोशिश करते हैं तो हमारे सामने कई परिभाषाएं आती हैं। इन तमाम परिभाषाओं के बीच हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि भारत के संविधान में लोकतांत्रिक व्यवस्था से क्या अर्थ लिया गया है?

संविधान निर्माण की प्रक्रिया के दौरान हमारे संविधान निर्माताओं ने देश की सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को बहुत गहराई से जानते समझते हुए लोकतंत्र के मायने गढ़े थे। ऐसे तमाम लोग हैं जो अक्सर चलताऊ टिप्पणी कर देते हैं कि भारत के संविधान में शामिल की गयी व्यवस्थाएं भारतीय नहीं हैं बल्कि इन्हें अमेरिका, ब्रिटेन या फिर ऑस्ट्रेलिया से उधार लिया गया है। ऐसा कहने वाले लोगों को संविधान सभा द्वारा दी गयी परिभाषाओं को अवश्य जानना चाहिए।   

संविधान सभा में लोकतंत्र पर टिप्पणियां

‘‘हमारी दृष्टि में प्रजातंत्र का यह अर्थ नहीं है कि पुलिस का शासन हो और लोगों को बिना मुकदमा चलाये ही खुफिया पुलिस गिरफ्तार कर ले और जेल दे दे। प्रजातंत्र का मतलब यह नहीं है कि राज्य ही सबकुछ हो और प्रजा मानो महज राज्य का आदेश मानने के लिए ही हो, और एक दल का शासन चले और विरोधी दलों को कुचल दिया जाए और उन्हें अपना मंतव्य प्रकट करने का अवसर ही न दिया जाए। इसका मतलब ऐसे राज्य या समाज से नहीं है, जहां व्यक्ति की कोई हैसियत न हो और वह राज्य की बड़ी मशीनरी का महज़ एक छोटा आज्ञाकारी पुर्जा ही समझा जाए। हमारे राष्ट्रीय जीवन का प्रवाह बहुमुखी है पर व्यक्ति की स्वतंत्रता और लोकतंत्रीय राज्य की व्यवस्था से हम सभी सहमत हैं। हम हामिल (भारवाहक या बोझ उठाने वाला) हैं यह बताने के लिए कि हमारे देश में व्यापक अंतर वाली विचारधाराओं के लोग आज किस तरह इस बात पर एकमत हैं कि अधिकार और शक्ति साधारण जनता में बांट दिए जाएं, राजनैतिक और आर्थिक अधिकार इतने विस्तृत पैमाने पर बांट दिए जाएं कि कोई व्यक्ति या वर्ग दूसरों का शोषण न कर सके, उन पर हावी न हो सके। आज यह दलील पेश करने का रिवाज़ सा चल गया है कि तब तक कोई आवश्यक सामाजिक और राजनैतिक परिवर्तन नहीं किए जा सकते हैं, जब तक कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता और प्रजातंत्र को समाप्त न कर दिया जाए और सर्वशक्तिशाली राज्य अपने कार्यक्रम को जोर देकर पूरा न करे। संविधान का लक्ष्य संबंधी यह प्रस्ताव इस मत का खंडन करता है। खूबी यह है कि राजनैतिक प्रजातंत्र और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के जरिये ही ये सब आवश्यक परिवर्तन किए जायेंगे।’’ 
-एम.आर. मसानी (17 दिसंबर 1946)                                                                                           
‘‘मुझे पूरी आशा है कि यदि हम प्रयास करेंगे तो हम इस संविधान के अधीन एक वर्गहीन समाज को अस्तित्व में ला सकेंगे और इस देश के करोड़ों निवासियों के घरों में आशा का संचार कर सकेंगे। आर्थिक लोकतंत्र के बिना लोकतंत्र का कोई महत्व नहीं है। कुछ लोगों के लोकतंत्र का विभिन्न प्रांतों से आये हुए तथा दिल्ली के मकानों में रहने वाले कुछ लोगों के लोकतंत्र का कोई अर्थ नहीं है। वास्तविक लोकतंत्र का अर्थ यह है कि हम लोगों के सेवक हैं तथा लोगों के वास्तविक प्रतिनिधि हैं। भारत के इतिहास में यह सबसे बड़ा प्रयोग है क्योंकि चाहे शास्त्रों और पुराणों से हम कितने ही उद्धरण पढ़कर क्यों न सुनाएं, इस प्रकार का लोकतंत्र पहले अस्तित्व में नहीं था। यदि यह महाप्रयोग विफल हुआ तो इस संविधान के कारण विफल नहीं होगा, बल्कि इस कारण विफल होगा कि हममें से वे लोग जिन्हें करोड़ों मील दूर रहने वाले लोगों का भाग्यवश प्रतिनिधित्व करना पड़ा, जबकि वास्तव में वे उनका प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। वास्तव में तथ्य यह है कि हमारे राष्ट्र का जन्म हाल ही में हुआ है और हमें भी लोकतंत्र की कला सीखनी है। किसी पुस्तक द्वारा लोकतंत्र की शिक्षा नहीं दी जा सकती। लोकतंत्र का विकास होता है। किसी राष्ट्र के लोगों के चरित्र, उनकी सत्यनिष्ठा तथा ईमानदारी के कारण और लोकतंत्रात्मक सिद्धांतों के प्रति उनके प्रेम तथा उन सिद्धांतों के अनुसरण करने के लिए उनके उत्साह के कारण ही उनका संविधान सफल या असफल होता है। सबकुछ इस पर निर्भर है कि हम सहिष्णुता की भावना का किस प्रकार विकास करते हैं, चाहे हमारा संविधान कैसा ही क्यों न हो और हमारी विधि (क़ानून) की शब्दावली कैसी ही क्यों न हो? सबकुछ इस पर निर्भर है कि हम पद-दलितों के प्रति तथा उन लोगों के प्रति जो अपने को अल्पसंख्यक कहते हैं, कितने प्रेम का परिचय देते हैं? हम भले ही संविधान में लिख दें कि प्रत्येक घर तथा परिवार में अस्पृश्यता का अंत किया जाता है, किन्तु इससे कुछ प्राप्त नहीं होता। जो लोग इस समय जीवन के अनेक साधनों से वंचित हैं, उनसे हमें प्रेम करना चाहिए।’’ 
जदुवंश सहाय (22 नवंबर 1949)                                              

“इस संविधान में लोकतंत्र के लिए पूरा क्षेत्र है। लोकतंत्र क्या है? मैं उसकी परिभाषा करता हूं, एक शब्द में लोकतंत्र सहिष्णुता है। कोई व्यक्ति जो लोकतंत्र की इस छोटी सी परिभाषा को नहीं समझ सकता, वह कभी भी लोकतांत्रिक नहीं हो सकता। कोई व्यक्ति, जो किसी समिति से बाहर निकल कर असंतोष का अनुभव करता है और यही राग अलापता रहता है कि उसकी बात नहीं सुनी गयी और सदा शिकायत ही करता रहता है; मैं कहता हूं कि वह लोकतांत्रिक नहीं है। जब दस व्यक्ति साथ मिलकर बैठते हैं या अपने दिमाग से सोचते हैं तो वे या तो सहमत होते हैं या असहमत। यदि वे किसी नतीजे पर पहुंचते हैं तो मेरा यह विचार है और विश्वास है कि वह लोकतंत्रात्मक संकल्प है और उसका पालन होना चाहिए।’’                        
-आर.वी. धुलेकर (23 नवंबर 1949) 

‘‘यदि हम लोकतंत्र को केवल रूप में ही नहीं वरन यथार्थ में बनाए रखना चाहते हैं तो हमें क्या करना चाहिए? मेरे विचारानुसार सबसे पहले हमें यह करना चाहिए कि अपने सामाजिक और आर्थिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए हम संवैधानिक रीतियों को दृढ़ता पूर्वक अपनाएं। इसका अर्थ यह है कि क्रांति की निर्मम रीतियों का हम परित्याग करें। इसका अर्थ यह है कि सविनय अवज्ञा, असहयोग और सत्याग्रह की रीति का हम परित्याग करें। आर्थिक और सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जब कोई मार्ग न रहे, तब तो इन असंविधानिक रीतियों का अपनाना बहुत कुछ रूप में न्यायपूर्ण हो सकता है।” “केवल राजनैतिक लोकतंत्र से ही हमें संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए। अपने राजनैतिक लोकतंत्र को हमें सामाजिक लोकतंत्र का रूप भी देना चाहिए। सामाजिक लोकतंत्र का क्या अर्थ है? इसका अर्थ उस जीवन मार्ग से है, जो स्वातंत्र्य, समता और बंधुत्व के जीवन के सिद्धांत रूप में अभिज्ञात करता है। स्वातंत्र्य, समता और बंधुत्व के इन सिद्धांतों को तीनों के एक संयुक्त रूप से अलग अलग मदों के रूप में नहीं समझना चाहिए। इनमें से एक का दूसरे से विच्छेद करना लोकतंत्र के प्रयोजन को ही विफल करना है। स्वातंत्र्य को समता से पृथक नहीं किया जा सकता है, समता को स्वातंत्र्य से पृथक नहीं किया जा सकता है और न स्वातंत्र्य या समता को ही बंधुत्व से पृथक किया जा सकता है। सामाजिक स्तर पर हमारे भारत में हमारा एक ऐसा समाज है, जो क्रमानुसार निश्चित असमता के सिद्धांत पर आश्रित है। जिसका अर्थ कुछ व्यक्तियों की उन्नति और कुछ का पतन है। आर्थिक स्तर पर हमारा एक ऐसा समाज है, जिसमें कुछ लोग ऐसे हैं जिनके पास अतुल संपत्ति है और कुछ ऐसे हैं जो निरी निर्धनता में जीवन बिता रहे हैं। 26 जनवरी 1950 को हम विरोधी भावनाओं से परिपूर्ण जीवन में प्रवेश कर रहे हैं। राजनैतिक जीवन में हम समता का व्यवहार करेंगे और सामाजिक और आर्थिक जीवन में असमता का। राजनीति में हम एक व्यक्ति के लिए एक मत और एक मत का एक ही मूल्य है इस ‘सिद्धांत’ को मानेंगे। अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में अपनी सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था के कारण एक व्यक्ति का एक ही मूल्य के सिद्धांत का खंडन करते रहेंगे। यदि हम इसका बहुत काल तक खंडन करते रहेंगे तो हम अपने राजनैतिक लोकतंत्र को संकट में डाल देंगे।’’                                                                 
-बी.आर अम्बेडकर (25 नवंबर 1949)

इससे पहले 17 अक्टूबर 1949 को आचार्य जे.बी. कृपलानी ने लोकतंत्र को परिभाषित करते हुए कहा था, ‘‘मैं सभा को याद दिलाना चाहता हूं कि इस प्रस्तावना में हमने जो भी प्रस्ताव रखे हैं वे केवल नैतिक या राजनैतिक सिद्धांत नहीं हैं बल्कि वे महान आध्यात्मिक सिद्धांत भी हैं। लोकतंत्र को ही लीजिये। यह क्या है? उसमें मानव समता निहित है, उसमें बंधुता का भाव निहित है। और सबसे बड़ी बात यह है कि उसमें अहिंसा के महान सिद्धांत का बहाव निहित है। जहां हिंसा है, वहां लोकतंत्र कैसे हो सकता है? लोकतंत्र की साधारण परिभाषा तक यह है कि सिर तोड़ने की अपेक्षा हम सिर गिनते हैं। तो लोकतंत्र के मूल में यह अहिंसा है। यदि हम लोकतंत्र का प्रयोग केवल एक विधि संबंधी संवैधानिक और औपचारिक योजना के रूप में करना चाहते हैं तो मैं निवेदन करना चाहता हूं कि हम असफल होंगे। चूंकि लोकतंत्र को हमने संविधान के मूल में रखा है, मैं चाहता हूं कि समस्त देश लोकतंत्र के नैतिक, आध्यात्मिक और गहन भाव को समझ ले। यदि नहीं समझा तो हम उसी प्रकार असफल होंगे जैसे अन्य देश हुए हैं। लोकतंत्र को तानाशाही व्यवस्था बना दिया जाएगा। और फिर उसके साम्राज्यतंत्र बना दिया जाएगा और फिर एकतंत्र हो जाएगा। लोकतंत्र जाति-व्यवस्था से असंगत है। जाति-व्यवस्था सामाजिक शिष्टवाद है, जातिभेद और वर्ग भेद को हमें मिटा देना चाहिए। अन्यथा हम लोकतंत्रवाद की शपथ ग्रहण नहीं कर सकते हैं। हमने यह भी कहा है कि हम विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासन की स्वतंत्रता रखेंगे। हमें इसकी जटिलता को भी समझ लेना चाहिए। इन सब स्वतंत्रताओं की अहिंसा के आधार पर ही प्रत्याभूति (गारंटी) हो सकती है।’’

इस प्रकार हम देख सकते हैं कि हमारी संविधान सभा के विद्वान सदस्य लोकतंत्र की परिभाषा और उसके गुणों को लेकर पूरी तरह स्पष्ट थे और वे यह मानते थे कि भारत एक लोकतांत्रिक देश के रूप में ही अपने तय आदर्शों और लक्ष्यों को हासिल करने की दिशा में आगे बढ़ सकता है। 

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