भारत में शक्तिशाली केंद्र के मायने
भारत की शासन व्यवस्था ऐसी है जहां केंद्र और राज्यों के लिए अलग-अलग व्यवस्था दी गयी है। दोनों के बीच शक्तियों का बंटवारा इस प्रकार किया गया है कि आपस में टकराव की स्थिति निर्मित न हो। परंतु विशेषज्ञ मानते हैं कि भारत में केंद्र के पास अधिक शक्तियां है। संविधान सभा में हुई चर्चा इस विषय को समझने का एक नया नज़रिया देती है।
सचिन कुमार जैन
संविधान शोधार्थी एवं अशोका फेलोशिप प्राप्त सामाजिक कार्यकर्ता। ‘संविधान की विकास गाथा’, ‘संविधान और हम’ सहित 65 से अधिक पुस्तक-पुस्तिकाओं का लेखन।
भारत में शासन व्यवस्था को लेकर होने वाली तमाम चर्चाओं में यह प्रश्न बार-बार उठता है कि क्या भारत में व्यवस्था की सारी शक्तियां किसी व्यक्ति, व्यक्तियों के छोटे से समूह या नौकरशाहों के हाथ में केन्द्रित हो सकती हैं? वास्तव में ऐसा ही होता नजर आ रहा है। माना तो यह गया था कि भारत की व्यवस्था विकेंद्रीकृत होगी जहां लोगों की भूमिका एकदम प्रत्यक्ष होगी। परंतु ऐसा नहीं हो सका।
शायद यही वजह है कि देश में विकास के नाम पर बनने वाली नीतियों ने असमानता बढ़ाई और गरीबी तथा भुखमरी को नया स्वरूप प्रदान किया। वित्तीय प्रबंधन से लेकर वैधानिक प्रावधान बनाने तक, विधायिका की भूमिका सीमित की गयी। संसद को कमज़ोर किया गया। ग्राम सभा की अवधारणा को एकदम बेकार माना जाने लगा। यह सब क्यों हुआ?
महात्मा गांधी को यकीन था कि भारत का हर गांव आत्मनिर्भर इकाई होगा। सवाल यह उठता है कि वह सपना कब, कहां और कैसे टूट गया? हम कहते जरूर हैं कि भारत एक लोकतांत्रिक गणराज्य है, किन्तु वास्तव में आज़ादी के बाद हमने कभी इस व्यवस्था के प्रति सम्मान नहीं दिखाया। इसे एक उदाहरण से समझते हैं: हमारे मन में यह बात बिठा दी गयी है कि जब तक बच्चों की निर्मम तरीके से पिटाई न की जाए तब तक वे अच्छे इंसान नहीं बन सकते हैं। इसी तरह हमें यह भी सिखाने का प्रयास किया गया कि भारत में विकेंद्रीकृत लोकतांत्रिक व्यवस्था की स्थापना संभव नहीं है। ये दोनों ही मान्यताएं साबित करती हैं कि हम अहिंसा, जवाबदेहिता और सब्र में विश्वास नहीं रखते हैं। संविधान निर्माण के दौरान जब केंद्र, राज्य और पंचायतों की शक्तियों का प्रश्न उठा तो संविधान सभा ने सबसे कमज़ोर पंचायतों, थोड़ी बहुत ताकतवर राज्य सरकारों और बहुत ताकतवर संघीय यानी केंद्र सरकार की व्यवस्था अपनायी। इसके लिए यह तर्क दिया गया कि स्रोतों के वितरण (क्योंकि केंद्र के पास करों और शुल्कों से संसाधन आते हैं), अन्य देशों से संबंध बनाने या अंतर्राष्ट्रीय व्यापार, राष्ट्र की सुरक्षा आदि के लिए संघ (केंद्र) के पास अतिरिक्त शक्तियों का होना आवश्यक है। देश की आंतरिक विविधताओं (भाषा, संस्कृति, मान्यताएं, धर्म आदि) के साथ देश की अखंडता बनाये रखने के लिए ऐसी व्यवस्था जरूरी समझी गयी। डॉ. दुर्गादास बसु ने कुछ दशक पहले अपनी किताब “भारत का संविधान-एक परिचय” में लिखा था कि “प्रबल केंद्र की ओर झुकाव भारत को एक रखने के लिए वरदान साबित हुआ है, क्योंकि हम देखते हैं कि साम्प्रदायिकता और भाषावाद की पृथकतावादी शक्तियां और सत्ता पाने की भागदौड़ केन्द्रीय नियंत्रण के होते हुए भी संविधान के लागू होने के पांच दशक बाद भी संकट उत्पन्न कर रही हैं।”
विगत दो दशकों के अनुभव बताते हैं कि जब केंद्र और राज्य में एक ही दल की सरकार होती है, तब केंद्र सरकार, राज्य के गलत कामों पर भी मौन रहती है, लेकिन जब राज्य में किसी दूसरे विचार या दल की सरकार होती है, तब केंद्र की शक्तियों का उपयोग करके राज्य सरकारों को भंग या अस्थिर किया जाता है। इतना ही नहीं वित्तीय संसाधनों के आवंटन में भी अब भेदभाव नज़र आने लगा है।
सन 1946-47 में जब भारत आजादी की प्रक्रिया से गुजर रहा था तब परिस्थितियां बहुत जटिल थीं। एक तरफ देश की व्यवस्था को संभालना और दूसरी ओर विभाजन की दर्दनाक घटना। विभाजन के परिणामस्वरूप बहुत बड़े पैमाने पर हिंसा हो रही थी किंतु संविधान सभा बहुत परिपक्वता के साथ संविधान की रचना कर रही थी। उसका प्रयास था कि विभाजन की हिंसा का असर संविधान के चरित्र पर न पड़े।
उस समय ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न हो गयी थीं जहां यह आशंका तक उत्पन्न हो गयी थी कि भारत को अपनी सुरक्षा के लिए बहुत कड़े कदम उठाने होंगे। ऐसे में केंद्र को अधिक से अधिक अधिकार देना भी जरूरी होता। रियासतों के भारत में विलीन होने के साथ ही यह आशंका भी थी कि कहीं कुछ समय के पश्चात वे विद्रोह न कर दें। इससे निपटने के लिए भी भारत का ‘‘ताकतवर’’ होना जरूरी था ताकि हर तरह से “नियंत्रण” कायम किया जा सके। संविधान सभा में केंद्र-राज्य के अधिकारों की बहस को आज के संदर्भ में भी अच्छी तरह जोड़ा जा सकता है। आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक विकेन्द्रीकरण की भावना से इसका सीधा जुड़ाव है।
भारतीय शासन व्यवस्था में “केंद्र” को शक्तिसंपन्न बनाने वाले प्रावधानों और विचार पर विविधतापूर्ण बहस सामने आयी थी। यह कहा भी गया कि आधुनिक व्यवस्थाओं, मसलन औद्योगिक उन्नति और आर्थिक दशाओं के कारण “केंद्र” सशक्त होगा और ज्यादा सशक्त होता जायेगा। इसलिए संवैधानिक रूप से शुरू से ही केंद्र को सर्व-शक्ति संपन्न बनाना न केवल गैर जरूरी है, बल्कि यह संकट को न्योता है। प्रो एन. जी. रंगा ने नौ नवम्बर 1948 को कहा, “इस व्यवस्था से केन्द्रीय सरकार सशक्त नहीं होगी, बल्कि केन्द्रीय सचिवालय (ब्यूरोक्रेसी/अफसरशाही) सशक्त हो जायेगा। केन्द्रीय सचिवालय में एक चपरासी और दफादार से लेकर सेक्रेटरी तक प्रत्येक व्यक्ति अपने को किसी प्रांतीय प्रधानमंत्री (मुख्यमंत्री) से बड़ा समझने लगेगा और प्रांतों के प्रधानमंत्रियों को केंद्र से किसी भी प्रकार की सूचना प्राप्त करने के लिए दफ्तर-दफ्तर ठोकरें खानी पड़ेंगी। ऐसे में प्रांतीय सरकारों को अपना दास बनाना और उन्हें केन्द्रीय सचिवालय और केन्द्रीय नौकरशाही के प्रभुत्व में रखना बहुत ही संकटकारी व्यवस्था होगी।”
के. संतानम का कहना था, “मैं नहीं चाहता कि हर चीज़ के लिए केन्द्र सरकार ही उत्तरदायी बनायी जाये। प्रांतों के लोगों के कल्याण का प्राथमिक दायित्व प्रांतीय सरकारों पर रहना चाहिए। केन्द्रीय सरकार का उत्तरदायित्व केवल सर्व-भारतीय मामलों में ही रहना चाहिए और बरता जाना चाहिए। अत: केंद्र की शक्तिसंपन्नता, सर्व-भारतीय विषयों के प्रति न केवल उसके अधिकारों की पर्याप्तता, वरन उन विषयों के प्रति जो सर्व भारतीय क्षेत्र के नहीं बल्कि प्रांतीय क्षेत्र के हैं, उत्तरदायित्व से मुक्ति भी है। मेरे विचार से संघीय समिति ने जिस रूप में संघीय अधिकारों की व्याख्या की है, वह गलत है। उसके द्वारा केंद्र पर हर प्रकार के अधिकारों का बोझ रखने का प्रयत्न किया गया है, जो कदापि नहीं किया जाना चाहिए थे। मैं ऐसा कोई विधान नहीं चाहता, जिससे प्रांतीय को केंद्र के पास जाकर कहना पड़े कि मैं अपने लोगों की शिक्षा व्यवस्था नहीं करा सकता; मैं उनके लिए सफाई का बंदोबस्त नहीं कर सकता, सड़कें सुधारने के लिए, उद्योग धंधों के लिए, आरंभिक शिक्षा के लिए मुझे दान दीजिए।”
आज़ाद भारत में केंद्र-राज्य अधिकारों के बंटवारे को लेकर संविधान सभा की संघ अधिकार समिति का गठन किया गया था। इसके सभापति की हैसियत से पंडित जवाहर लाल नेहरू ने पांच जुलाई 1947 को समिति की रिपोर्ट, सभा सचिवालय को सौंपी। तब तक देश का विभाजन नहीं हुआ था। इस रिपोर्ट पर खूब बहस हुई। बहस का मुख्य मुद्दा यह था कि भारत में केंद्र की शक्तियां किस हद तक होनी चाहिए? एन. गोपाल स्वामी आयंगर ने 20 अगस्त को इस समिति की रिपोर्ट पर सभा में कहा कि “संघ विधान का एक अनिवार्य सिद्धांत यह है कि उसमें सर्व-सत्ता को इस प्रकार विभाजित कर सकने की व्यवस्था रहनी चाहिए कि केंद्र की सरकार तथा प्रांतीय सरकारों में से प्रत्येक, एक निश्चित क्षेत्र के अंदर सम-सूत्रित (कोआर्डिनेट) तथा स्वाधीन हों।”
मैसूर का प्रतिनिधित्व कर रहे मोहम्मद शरीफ का कहना था, “मुझे इसलिए भी यह महत्वपूर्ण लगता है क्योंकि केंद्र तथा प्रांतों और रियासतों के मध्य शासनाधिकारों के उचित और ठीक विभाजन पर ही देश का भावी उत्तम शासन निर्भर है। इनमें मेल रखने के लिए शक्तिशाली केंद्र की आवश्यकता है। परंतु आप यह भी जानते हैं कि आवश्यकता से अधिक शक्तिशाली केंद्र निर्दयी हो जाता है और एक प्रकार से संघ के प्रादेशिक भागों के निवासियों की स्वतंत्रता और उनके विशेषाधिकारों का अपहरण करने लगता है।”
जी. एल. मेहता ने कहा “कई आर्थिक उद्योग धंधों से सम्बंधित विषयों को सरलता से केंद्र-राज्यों के बीच बांटा नहीं जा सकता है। श्रम के संबंध में कई कारणों से एकरूपता वांछनीय है। अन्यथा एक प्रांत के पिछड़ जाने और दूसरे के उससे आगे बढ़ने की आशंका है, इसलिए राष्ट्रीय आधार पर नियम बनाने की बात में बल है।”
रामनारायण सिंह ने कहा “मेरा ख़याल यह है कि किसी सरकार को जितने कम अधिकार दिए जाएं, उतना अच्छा होता है। साहब, सारी जिंदगी सरकार से लड़ने में ही बीती। एक सरकार को खत्म किया और दूसरी सरकार हम कायम कर रहे हैं और अभी तक जो राज्य अथवा सरकार रही हैं, उनके प्रति दिल में अच्छा भाव पैदा नहीं हो रहा है। सवाल यह है कि केन्द्रीय सरकार और सूबे की सरकार के कितने अधिकार हों? हमारी तो इच्छा होती है कि सबसे पहले गांव में सरकार होनी चाहिए थी। सबसे अधिक अधिकार ग्राम सरकार को मिलने चाहिए थे, उससे कम सूबे की सरकार को और उससे भी कम केन्द्रीय सरकार को। मगर दुर्भाग्यवश अभी ग्राम सरकार लापता है। सरकार को कितना अधिकार हो, इसकी चिंता सबको होनी चाहिए; लेकिन साथ-साथ यह भी चिंता होनी चाहिए कि सरकार पर जनता का कितना अधिकार रहे। हमें सबसे अधिक इसी विषय पर सोचना है।”
इसी तरह मुद्रा, कराधान, खनिजों के दोहन और उससे आय सरीखे विषयों पर भी तार्किक संवाद हुआ।
संविधान सभा में इस बात पर भी बहुत बहस हुई कि डॉ. अम्बेडकर ने संविधान के प्रारूप में भारत की शासन व्यवस्था को बहुत केंद्रीकृत बनाया है और इसमें संघ यानी केंद्र को अतिरिक्त शक्तियां प्रदान की गयी हैं। कहा गया कि उन्होंने भारत शासन की व्यवस्था को “संघात्मक” बनाया है। हमारा संविधान इस अर्थ में संघात्मक संविधान है, क्योंकि यह द्विमुखी राज्य व्यवस्था का पालन करता है। इसमें संघ राज्य तथा अन्य प्रादेशिक राज्य, दोनों को प्रभुता प्राप्त है, जिसका प्रयोग ये विधान द्वारा सौंपे गये अपने-अपने विषयों में कर सकते हैं। भारत और अमेरिका के विधान में इतनी समानता है कि दोनों अलग-अलग रूपों की संघात्मक व्यवस्थाएं हैं, लेकिन मुख्य अंतर यह है कि अमेरिकी संघ का तथा अन्य सभी संघ राज्यों का विधान एक ऐसे कठोर संघात्मक ढांचे में रखा गया है कि वे अपने स्वरूप को कभी बदल नहीं सकते हैं, चाहे कैसी भी परिस्थिति क्यों न हो। किसी भी हालत में इनकी राज्य-व्यवस्था एकात्मक या केंद्र प्रधान नहीं हो सकती। इसके प्रतिकूल हमारा विधान समय, परिस्थिति एवं आवश्यकता के अनुसार एकात्मक या संघात्मक दोनों प्रकार का हो सकता है। हमारे विधान के मुताबिक राज्य व्यवस्था केन्द्रात्मक पद्धति पर चलाई जा सकती है। ज्यों ही प्रधान (राष्ट्रपति) उक्त आशय की घोषणा करेगा, जिसका कि उसे प्रस्तुत विधान के अनुच्छेद 275 के अनुसार अधिकार है, हमारी समस्त राज्य-व्यवस्था संघात्मक से बदलकर तत्क्षण केन्द्रात्मक बन जायेगी।”
उनका मानना था कि कभी न कभी यह जरूरत पड़ेगी कि केंद्र सरकार राज्यों का शासन भी अपने हाथ में ले लें, जैसा कि भारत में आपातकाल की घोषणा के साथ हुआ था।
इस प्रावधान के जरिये भारत में ऐसी शासन व्यवस्था बनायी गयी, जब केंद्र शासन राज्यों के अधिकारों को अपने नियंत्रण में लेकर स्वयं उनका उपयोग कर सकता है। बहरहाल डॉ. अम्बेडकर ने माना था कि शासन व्यवस्था के संचालन के लिए वैधानिक नैतिकता एक अनिवार्यता है। यदि वैधानिक नैतिकता नहीं है तो हमें शासन व्यवस्था के लिए विस्तृत विवरण, नियम या ब्यौरे रख कर व्यवस्था के संचालन की व्यवस्था करना होगी। परंतु इसके उलट उन्होंने यह भरोसा भी रखा कि केंद्र या संघ सरकार सदैव नियमों का वैधानिक नैतिकता के साथ संचालन करेगी। वे लोकतंत्र के भीतर अधिनायकवादी व्यवस्था की आशंका को भांप नहीं पाये और गांवों-विकेंद्रीकरण को नकारते-नकारते लोकतंत्र को नुकसान पहुंचाने वाली केन्द्रीय व्यवस्था के लिए स्थान बना गये। भारत के संविधान में राज्य व्यवस्था के प्रावधानों के मूल में यह विश्वास था कि राजनीतिक दल “नैतिकता” के सिद्धांत का और भारत के लोग “नागरिकता” के मूल्यों का पालन करेंगे। किन्तु इन दोनों के पालन में नाकामी हाथ लगी। यही कारण है कि सत्ता हासिल करने के राजनीतिक षड्यंत्र अब “सामान्य व्यवहार” माना जाने लगा है और “मतदाता नागरिक” यह सवाल नहीं करते कि उनके चुने हुए जनप्रतिनिधि सत्ता के लिए अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता कैसे बदल सकते हैं? नागरिक मौन है और राजनीतिक दलों में पूंजीवादी सत्ता का विषाणु बेहद सक्रिय!
अपने मसौदे के पक्ष में उन्होंने कहा कि भारतीय संघ (अनुच्छेद 275 के तहत) चाहे तो ये (राज्य या प्रांतीय सरकार के) अधिकार अपने हाथ में ले सकता है। (1) किसी भी विषय पर क़ानून बनाने का अधिकार चाहे वह विषय राज्य सूची में ही हो; (2) प्रादेशिक राज्यों को, इस बात के आदेश जारी करने का अधिकार, कि वे उन मामलों को उनके (केंद्र के) सुपुर्द करें और अपनी कार्यपालिक शक्ति का प्रयोग किस प्रकार करें, (3) किसी प्राधिकारी को किसी भी प्रयोजन के लिए शक्ति प्रदान करने का अधिकार तथा (4) विधान में रखी हुई अर्थ संबंधी व्यवस्थाओं के स्थगन का अधिकार; संघात्मक राज्य-व्यवस्था को बदलकर केंद्रात्मक बनाने का अधिकार किसी भी संघ राज्य (राज्य सरकार/प्रांतीय सरकार) को नहीं है।” डॉ. अम्बेडकर का मानना था कि हमारा विधान परिवर्तनशील और लचीला है, किन्तु सच यह भी है कि वास्तव में भारत के संविधान को “केंद्र” के पक्ष में लचीला बनाया गया है।
बहरहाल, फ्रैंक एन्थनी संविधान के मसौदे में केंद्र की अधिक भूमिका के प्रस्ताव से सहमत रहे। उन्होंने यहां तक कहा कि पुलिस, शिक्षा और स्वास्थ्य के विषयों की जिम्मेदारी भी केन्द्रीय शासन को सौंपने के पक्ष में हैं, ताकि मानक व्यवस्था बन सके।
बी. दास के मुताबिक “इस विधान का मसौदा, चाहे संघात्मक नाम से पुकारें या एकतंत्रात्मक नाम से, परिषदात्मक नाम से या अध्यक्षात्मक नाम से; यह विधान संघात्मक राज्य की अपेक्षा एक शक्तिशाली एकात्मक राज्य की जड़ अधिक जमा रहा है, मेरा आशय यही है कि प्रांतों को अधिकार देने की अपेक्षा केंद्र को कपट से बहुत अधिकार दे दिये गये हैं। केंद्र क्या है? शक्ति के इस केन्द्रीकरण से न मालूम भविष्य क्या होगा? परंतु अपने वर्तमान अनुभव के आधार पर मैं यह कहूंगा कि हमारी वर्तमान सरकार का इतना केन्द्रीकरण हो गया है और अधिकारी वर्ग अधिकारों का इतना भूखा है कि यदि देश सजग न रहे और जनता अधिक जागरूक न हो, तो पूरी आशंका है कि न्याय, व्यवस्था, शांति और एकता के नाम पर वे आसानी से पथ भ्रष्ट हो सकते हैं…। प्रश्न यह है कि हम एक शक्तिशाली केंद्र चाहते हैं? किसके विरुद्ध? पाकिस्तान के विरुद्ध, रूस के विरुद्ध या स्वयं भारतीयों के विरुद्ध?” ये सवाल आज भी प्रासांगिक है।