सचिन कुमार जैन

संविधान शोधार्थी एवं अशोका फेलोशिप प्राप्त सामाजिक कार्यकर्ता। ‘संविधान की विकास गाथा’, ‘संविधान और हम’ सहित 65 से अधिक पुस्तक-पुस्तिकाओं का लेखन।

समान नागरिक संहिता का अर्थ क्या है और इसे लेकर किस तरह की समझ निर्मित है? क्या एक बेहतर समाज के निर्माण के लिए समान नागरिक संहिता एक अहम जरूरत है? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिन्हें तार्किक ढंग से संबोधित किया जाना आवश्यक है। 

अब जबकि समान नागरिक संहिता का मुद्दा नये सिरे से सार्वजनिक बहस में है तो यह जानना भी जरूरी है कि समान नागरिक संहिता की अवधारणा को “साम्प्रदायिकता की सत्ताकामी राजनीति” के नज़रिये से प्रस्तुत और परिभाषित किया गया है। भारत की आज़ादी और भारत के संविधान की रचना का मूल आधार केवल एक विदेशी सरकार से मुक्ति हासिल कर लेने की इच्छा भर नहीं था। अपने विचारों में विविधता के बावजूद महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल और डॉ. बी. आर. अम्बेडकर का मकसद व्यक्ति की आज़ादी और ऐसे समाज की स्थापना करना था, जिसमें प्रेम, समानता, न्याय और अमन के सूत्र जीवन के आधारभूत सिद्धांत हों। यह उल्लेख करना जरूरी है कि जिस वक्त भारत आज़ाद हुआ था, उस वक्त हिन्दू समुदाय में स्त्री-पुरुषों में तलाक की व्यवस्था नहीं थी, जबकि पुरुषों को एक से ज्यादा विवाह करने का अधिकार था। दूसरी तरफ विधवाओं को पुनर्विवाह करने का अधिकार भी नहीं था। विधवा महिलाओं को संपत्ति के अधिकार से भी वंचित रखे जाने की व्यवस्था थी। महिलाओं को अपने पिता या पति या परिवार की संपत्ति पर कोई हक़ नहीं था। देखा जाए तो महिलाओं को संपत्ति में हिस्सेदारी तो आज भी हासिल नहीं है। हम ऐसे समाज का हिस्सा हैं, जहां सामाजिक व्यवस्था, जिसमें स्त्रियों को सामाजिक-आर्थिक नियमों के जरिये गुलाम बनाये रखा जाता है और इन्हें “धर्म के सिद्धांत-धर्म के निजी क़ानून” के रूप में पेश किया जाता है, ताकि कोई इस पितृसत्ता को चुनौती देने की हिम्मत न कर सके। 

तेइस नवम्बर 1948 को संविधान के उस अनुच्छेद 35 पर चर्चा शुरू हुई, जिसमें समान नागरिक संहिता का उल्लेख था। इस अनुच्छेद में लिखा है, “राज्य, भारत के समस्त राज्यक्षेत्र में नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता प्राप्त करने का प्रयास करेगा।’’ इस चर्चा से यह स्पष्ट होता है कि तब शोषण से मुक्ति और समानता के अधिकार को धर्म के सिद्धांतों के खिलाफ समझा जा रहा था। संविधान सभा के सदस्य मोहम्मद इस्माइल साहब ने कहा, “निजी कानूनों पर चलने वाले लोगों के लिए इन पर चलना उनके जीवन का अंग है; यह उनके धर्म का भाग है और संस्कृति का भाग है। यदि निजी कानूनों पर प्रभावकारी कोई बात की जाती है तो यह उनके जीवन की प्रणाली में हस्तक्षेप करने के बराबर है। हम जो असाम्प्रदायिक राज्य बनाना चाहते हैं, उसे लोगों के धर्म या जीवन की प्रणाली में हस्तक्षेप करने का कोई काम नहीं करना चाहिए।” उन्होंने कहा, ‘‘विश्व के कई देशों में अल्पसंख्यकों के लिए निजी और पारिवारिक कानूनों से सम्बंधित संरक्षण के प्रावधान हैं, किन्तु मेरा संशोधन केवल अल्पसंख्यकों के विषय में ही नहीं है, अपितु सबके संबंध में है जिनमें बहुसंख्यक जाति भी सम्मिलित हैं।” उन्होंने डॉ. अम्बेडकर द्वारा पेश किए गये अनुच्छेद में यह जोड़ने का सुझाव दिया – “पर किसी वर्ग, सम्प्रदाय या जाति का यदि कोई निजी क़ानून हो तो उसे वह क़ानून छोड़ने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा।” 

जाहिर है कि इस संशोधन का अर्थ यह निकलता है कि जब तक धार्मिक या सामाजिक समूह की सहमति न मिल जाए, तब तक ऐसी संहिता नहीं बनाई जा सकेगी। 

नजीरुद्दीन अहमद का कहना था कि हमने अपने संविधान में लिखा है कि सभी व्यक्तियों को अपने विश्वास का पालन करने तथा धर्म को अबाध-रूप से मानने तथा प्रचार करने का समान अधिकार होगा और इस अनुच्छेद की कोई भी बात, राज्य को ऐसे क़ानून बनाने से नहीं रोकेगी जो धार्मिक आचरण से सम्बंधित आर्थिक, वित्तीय, राजनैतिक या अन्य लौकिक क्रियाकलाप का विनियमन या निर्बन्धन करते हैं। इसका मतलब है कि संसद को ऐसे क़ानून और नीतियां बनाने की शक्ति दी जा चुकी है, जो जनकल्याण और संवैधानिक प्रावधानों के उचित क्रियान्वयन के नज़रिये से महत्वपूर्ण लगते हैं।   

समान नागरिक संहिता का मूल अर्थ यह नहीं है कि भारत में रहने वाले सभी सम्प्रदायों को एक जैसे त्यौहार मनाने होंगे, एक जैसी प्रार्थना पद्धति अपनानी होगी, एक जैसी संस्कृति, भाषा या रहन-सहन अपनाना होगा। इस संहिता का मूल विश्वास यह है कि भारत के विभिन्न सम्प्रदायों में कुछ व्यवहार ऐसे हैं, जो लैंगिक असमानता बनाये रखते हैं, उन्हें बदलने की जरूरत है। ऐसे व्यवहार धार्मिक संभाषणों के आधार पर बनाये रखे गये हैं, किन्तु वास्तव में उनका व्यवहार अनुचित है और देश में समानता का लक्ष्य हासिल करने में बाधक है। के. एम. मुंशी ने संविधान सभा में 23 नवम्बर 1948 को ही कहा था, ‘‘मैं जानता हूं कि हिन्दुओं में भी ऐसे बहुत से लोग हैं, जो एकविध व्यवहार संहिता नहीं चाहते। उनकी भावना है कि उत्तराधिकार आदि का निजी क़ानून वास्तव में उनके धर्म का भाग है। यदि ऐसा है तो आप महिलाओं को कभी समानता प्रदान नहीं कर सकते हैं, जबकि मूलाधिकार में लिखा है कि लिंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा।”

ब्रिटिश सरकार पहले ही आर्थिक और सामाजिक विषयों पर ऐसे क़ानून बना चुकी थी, जो सभी धार्मिक समूहों पर एक समान रूप से लागू होने लगे थे। मसलन रजिस्ट्रेशन क़ानून, अवधि क़ानून (लिमिटेशन एक्ट), व्यवहार विधि संहिता, आपराधिक विधि संहिता, दंड संहिता, साक्ष्य क़ानून, संपत्ति हस्तांतरण क़ानून, शारदा क़ानून। लेकिन महबूब अली बेग बहादुर का कहना था कि “अंग्रेजों ने विवाह प्रणाली तथा उत्तराधिकार के कानूनों में कभी हस्तक्षेप नहीं किया। मेरा निवेदन है कि इन मामलों में हस्तक्षेप धीरे-धीरे होना चाहिए और समय के साथ इसमें प्रगति होनी चाहिए। मुझे इसमें संदेह नहीं है कि एक समय आएगा जब कि व्यवहार क़ानून एकरूप होगा, किन्तु अभी ऐसा समय नहीं आया है। किसी सम्प्रदाय विशेष के संबंध में धार्मिक कानूनों को उस सम्प्रदाय की सहमति के बिना नहीं बदलना चाहिए और यह सहमति ऐसी प्रणाली द्वारा विदित की जाना चाहिए, जो कि संसद क़ानून द्वारा निश्चित करे। चाहे संसद उस जाति की इच्छा उनके प्रतिनिधियों द्वारा भी जानने का निश्चय करे। और यह प्रतिनिधि अपने निर्वाचन-भाषणों और प्रतिज्ञाओं द्वारा उनकी इच्छा जान सकते हैं। वास्तव में यह किसी निर्वाचन में विश्वास की कसौटी बनायी जा सकती है। मेरा विश्वास है कि इससे देश के बहुत से वर्गों में अत्यधिक गलतफहमी और घृणा उत्पन्न हो जायेगी। हमें शीघ्रता नहीं करनी चाहिए, वरन सावधानी से, अनुभव से, सूझबूझ से तथा समानुभूति से कार्य करना चाहिए।”

बी. पोकर ने कहा “क्या यह परिषद इन सब विभिन्नताओं (देश में रहने वाली कई जातियां अलग-अलग व्यवस्था में अलग-अलग व्यवहार करती हैं, यही विविधता है) को मिटाकर उन्हें एकरूप करने जा रही है? इतनी जातियां हैं, जो शताब्दियों से या हज़ारों सालों से विभिन्न रीतियों का पालन करती हैं। ज़रा सा लिख देने (संविधान में समान नागरिक संहिता का प्रावधान) से ही आप उन सबको अवैध कर देना चाहते हैं?”

हुसैन इमाम ने एक महत्वपूर्ण बात को रेखांकित करते हुए कहा कि आज़ादी के बाद साम्प्रदायिकता का भय जड़ से मिटाने की पहल देश के राजनीतिक दलों को करनी चाहिए थी, जो नहीं की गयी। इसके उलट चुनावी राजनीति में जाति, पूंजी, संपदा, साम्प्रदायिक वैमनस्यता को मुख्य रणनीति के रूप में इस्तेमाल किया गया। इससे यह बात साफ़ हो गयी कि सम्प्रदायों में समान नागरिक संहिता के बारे में फैले हुए भ्रम को दूर करना आसान काम न होगा। 

अल्पसंख्यकों के मन में यह डर बैठा हुआ है कि समान नागरिक संहिता का इस्तेमाल उनकी धार्मिक व्यवस्थाओं को खत्म करने के लिए किया जाएगा। इस पर हुसैन इमाम ने स्पष्ट रूप से कहा था कि “मेरे विचार से भी एकविध क़ानून बनाना सर्वथा उपयुक्त और वांछनीय है। इसके लिए हमें उस समय की प्रतीक्षा करनी चाहिए, जबकि सारा भारत शिक्षित हो जाए, जब जनसाधारण की निरक्षरता दूर हो जाए, जब लोग प्रगतिशील हो जाएं, जब उनकी आर्थिक अवस्था मौजूदा से बेहतर हो जाए, जब प्रत्येक मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा होने लगे तथा अपने जीवन-संग्राम में स्वयं लड़ सके। तब आप समान क़ानून बना सकते हैं।”  प्रश्न यह है कि क्या हमने यह स्थितियां हासिल कर ली हैं?   

के. एम. मुंशी का तर्क था कि हम धर्म को निजी क़ानून से अलग करना चाहते हैं, उसे सामाजिक संबंधों से अथवा उत्तराधिकार के विषय में पक्षकारों के अधिकारों से अलग करना चाहते हैं। इन चीजों का धर्म से क्या संबंध है? 

अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर का मानना था कि समाज को आगे बढ़ना होगा। उन्होंने कहा था, ‘‘उत्तराधिकार और अन्य विषयों में अलग-अलग व्यवस्थाओं के कारण भी विभिन्न जातियों में अंतर (असमानता) पैदा हुआ है। हमारे पूर्वजों ने एकविध राष्ट्र को लोकतंत्र के धागे में बांधने की कल्पना भी नहीं की थी। सदा अतीत से चिपटे रहने से कोई लाभ नहीं है। हम एक महत्वपूर्ण बात में अतीत से विदा ले रहे हैं, वह यह है कि हम सारे भारत को एक ही राष्ट्र के रूप में बनाना तथा संगठित करना चाहते हैं। क्या हम उन बातों में सहायता दे रहे हैं, जो एक राष्ट्र के संगठन में सहायक होती हैं अथवा क्या हम इस देश को सदा प्रतिद्वंदी जातियों का स्थान बनाए रखना चाहते हैं? यही प्रश्न विचारणीय है।’’

डॉ. अम्बेडकर ने कहा कि हमारे यहां मानवीय संबंधों के लगभग हर क्षेत्र में एक समान क़ानून और संहिताएं हैं। दंड-विधान, सम्पूर्ण आपराधिक क़ानून, आपराधिक विधि संहिता, संपत्ति हस्तांतरण क़ानून, नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट सरीखे असंख्य उदाहरण हैं, जो बताते हैं कि देश में लगभग एक ही व्यवहार संहिता है। अब तक केवल विवाह और उत्तराधिकार के क्षेत्र में राज्य का व्यवहार क़ानून नहीं बन पाया है। यही एक छोटा सा कोना है, जिसमें हम अब तक हस्तक्षेप नहीं कर पाये हैं और अनुच्छेद 35 की इच्छा इसी सुधार को लाने की है। 

डॉ. अम्बेडकर ने सभी तर्कों को खारिज करते हुए कहा कि यह मानना सही नहीं है कि पूरे देश में अलग-अलग क्षेत्रों में हिन्दुओं और मुसलमानों के एक जैसे निजी क़ानून व्यवहार में आते हैं। डॉ. बी. आर. अम्बेडकर ने समान नागरिक संहिता में बदलाव के लिए प्रस्तुत किये गये संशोधनों के सुझाव को खारिज कर दिया। वे मानते थे कि भारत में स्त्रियों को समानता का हक़ दिलाने के लिए धर्म के नाम पर बनी हुई व्यवस्थाओं और नियमों को “राज्य के कानूनों” से ही सुधारा जा सकता है। समाज खुद उन व्यवस्थाओं में बदलाव नहीं करेगा, जो पुरुषों को मालिक का दर्ज़ा देते हैं। स्वतंत्र भारत में महिलाओं की स्वतंत्रता के लिए समान नागरिक संहिता जरूरी होगी।

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