सचिन कुमार जैन

संविधान शोधार्थी एवं अशोका फेलोशिप प्राप्त सामाजिक कार्यकर्ता। ‘संविधान की विकास गाथा’, ‘संविधान और हम’ सहित 65 से अधिक पुस्तक-पुस्तिकाओं का लेखन।

आज समय और राजनीतिक घटनाक्रम ने संविधान को नेपथ्य से निकाल कर हमारे समाज और सरकार के सामने ला खड़ा किया है। भारत ने 26 जनवरी 1949 को अपने संविधान को अंगीकृत किया था। इसके बाद वैधानिक कार्यवाहियों और सत्ता ग्रहण कर शपथ लेने के लिए निरन्तर इसका उपयोग होता रहा। संविधान को प्राय: इन्हीं अवसरों पर उठाया जाता और दोबारा सहेज कर दुर्गम स्थान पर रख दिया जाता। यह एक बड़ा सवाल है कि जिस संविधान पर भारत की व्यवस्था टिकी हुई है,  उसके बारे में, उसके निर्माण के विचार से भारतीय समाज इस हद तक नावाकिफ क्यों है?

यह कहना गलत न होगा कि बकायदा ऐसे सुनियोजित प्रयास किए गये कि भारतीय समाज में संविधान की अच्छी पैठ न हो पाए। यही वजह है कि मज़हबी किताबों में लिखी बातों की तो खूब व्याख्या हुई, रामायण, महाभारत, समयसार, रामचरित मानस, कुरान पर खूब टीका लिखी गयीं। आधुनिक प्रबंधन की शिक्षा में भी इन्हीं ग्रंथों की कहानियों और संदेशों का उपयोग किया जाने लगा। परंतु हमने कभी नहीं सुना कि संविधान की ऐसी व्याख्या की गयी हो कि वह निरक्षर लोगों तक पहुंच सके। क्या युवकों और छात्रों के लिए संविधान पर टीका लिखी गयीं? क्या भारत की शिक्षा व्यवस्था में संवैधानिक मूल्यों को आधार बनाया गया? नहीं। ऐसा क्यों हुआ? 

छब्बीस जनवरी 1949 को देश को समर्पित संविधान को क़ानून की जटिल भाषा में लिखी गयी किताब मान लिया गया। यह भी मान लिया गया कि इसका उपयोग केवल शपथ ग्रहण के लिए या फिर उच्च न्यायालय-उच्चतम न्यायालय में किया जाएगा। यह स्थापित करने का कोई प्रयास नहीं किया गया कि यह किताब आम भारतीयों के लिए भी उपयोगी हो सकती है। 

पिछले दिनों जब देश में एक खास समुदाय के लोगों के सामने पहचान का संकट उत्पन्न किया गया तो लोग बेचैनी के साथ आधार समेत पहचान के प्रमाण खोजने में जुट गये। अचानक अपने ही देश में उनकी नागरिकता पर प्रश्नचिह्न लगा दिया गया। इसका परिणाम क्या हुआ? देश के कोने-कोने में अचानक राजनीतिक दलों की पताकाओं की जगह राष्ट्रीय ध्वज, संविधान के मुख्य पृष्ठ के चित्र और उद्देशिका ने ले ली। ज्यादातर लोगों को यह अहसास हुआ कि अपना वजूद साबित करने में अगर कोई उनकी मदद कर सकता है तो वह संविधान ही है। 

भारत के संविधान की रूह इसकी उद्देशिका में बसी है। यह उद्देशिका नागरिकों को न्याय, स्वतंत्रता, समता और बंधुता के अधिकार-अवसर देते हुए देश को पंथनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने का सपना दिखाती है। इस उद्देशिका में सोच-समझ कर कहीं भी व्यवस्था में धर्म या सम्प्रदाय को प्रधानता नहीं दी गयी है। 

यह जानना जरूरी है कि उद्देशिका में ईश्वर या धार्मिक सत्ता को व्यवस्था के मूल्य के रूप में कोई स्थान नहीं दिया गया है। ऐसा नहीं है कि संविधान बनाने वाली सभा में यह विषय या सुझाव न रखा गया हो कि संविधान में ईश्वर और धर्म का प्रधानता के साथ उल्लेख हो। ऐसे सुझाव आये थे और उन पर बहस भी हुई और संविधान सभा ने तार्किकता के साथ उन्हें खारिज भी किया।  

संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने  17 अक्टूबर 1949 को सभा को बताया कि “उनके पास उद्देशिका में संशोधन से संबंधित कई प्रस्ताव आये हैं, उनमें मुख्य रूप से ईश्वर का नाम और महात्मा गांधी का नाम किसी न किसी रूप लाए जाने का सुझाव दिया गया। मैं संशोधन पेश करने से रोक नहीं सकता हूं, किन्तु सुझाव दूंगा कि न तो ईश्वर के नाम पर, न ही महात्मा गांधी के नाम पर वाद-विवाद हो।”  

उन्होंने यह स्पष्ट किया कि मंत्रियों और अन्य व्यक्तियों के लिए, जो कि पद धारण करेंगे, उनके लिए शपथ या प्रतिज्ञान विहित कर दिया गया है। हमने इसे वैकल्पिक रूप में रखा है; जैसे कि “मैं ईश्वर की शपथ लेता हूं कि” या “मैं सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान करता हूं कि” और इस प्रकार आस्तिकों और नास्तिकों के लिए शपथ लेने या प्रतिज्ञान करने की स्वतंत्रता दी गयी है। 

संविधान सभा में परिपक्व और सजग सदस्यों की मौजूदगी का यह बहुत सुंदर प्रमाण है, कि साम्प्रदायिकता-विभाजन की आग में झुलस रहे मुल्क को जिम्मेदार और पंथ निरपेक्ष बनाये रखने की हर संभव कोशिश की जा रही थी। सभा इस बात के लिए भी सजग थी कि सभी आस्थाओं का संरक्षण भी हो। यहां तक कि ईश्वरीय सत्ता में आस्था न रखने वाले समूह या सम्प्रदायों की अस्मिता को पूरा सम्मान देने की व्यवस्था भी की जा रही थी। सभा किसी एक ख़ास तबके या मज़हब को विशेष महत्व या शक्ति देने के मकसद से संविधान नहीं बना रही थी। यही कारण था कि वह पूरी सजगता से यह महसूस कर रही थी कि संविधान की उद्देशिका में “ईश्वर या धर्म” के प्रति निष्ठा स्थापित करने की बाध्यता न रहे। 

इस विषय पर पहला संशोधन प्रस्ताव एच. वी. कामत रखने वाले थे, लेकिन इस विषय पर पहले ही बेहद संजीदा बात कहते हुए श्रीमती पूर्णिमा बनर्जी ने कहा कि “हममें से अधिकांश व्यक्तियों के लिए, चाहे वे आस्तिक हों, अथवा नास्तिक, ईश्वर की सत्ता को सिद्ध या असिद्ध करना कठिन होगा। उसके नाम को व्यर्थ वाले का प्रयत्न हम न करें। यहां उनका नाम न लाया जाए। संसार में प्रत्येक राष्ट्र ईश्वर की स्तुति करता है और ईश्वर एक निष्पक्ष सत्ता है और उसका रूप निष्पक्ष है। सदस्यों को इस विषय पर किसी न किसी पक्ष में मत देना होगा। उसकी संज्ञा इसी रूप में रहने दी जाए। इन शब्दों में मैं श्री कामत से अपील करती हूं कि ईश्वर पर मत देने की उलझन में हमें न डालें।”  

श्रीमती बनर्जी की बात से यह स्पष्ट होता है कि किसी व्यक्ति का ईश्वर में विश्वास होने का मतलब यह नहीं है कि उसे संविधान का आधार भी बनाया जाए। लेकिन एच. वी. कामत ने कहा कि मैं इस अपील को स्वीकार नहीं कर सकता।    

17 अक्टूबर 1949 को एच. वी. कामत ने उद्देशिका पर अपना संशोधन पेश करते हुए कहा कि इसमें “हम, भारत के लोग” के स्थान पर यह होना चाहिए-  

“ईश्वर का नाम लेकर, हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समानता प्राप्त कराने के लिए………… इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।”  

इस पर इ. थानू पिल्ले ने कहा कि मैं आस्तिक हूं पर क्या इस संशोधन का मतलब विश्वास के विषय में विवश करना नहीं होगा? यह विश्वास स्वतंत्रता के मूल अधिकार पर प्रभाव डालता है। संविधान के अनुसार किसी व्यक्ति को ईश्वर में विश्वास करने या न करने का अधिकार है। इस दृष्टिकोण से यह प्रस्ताव नियम विरुद्ध है।  

रोहिणी कुमार चौधरी ने यह विषय उठाया कि “चूंकि यह संशोधन प्रस्ताव लाया गया है इसलिए मैं कहना चाहता हूं कि हम शक्ति सम्प्रदाय के हैं और देवी की पूर्णतया उपेक्षा कर केवल ईश्वर का आह्वान करने का विरोध करते हैं। यदि हम ईश्वर का नाम लाते ही हैं, तो हमें देवी का नाम भी लाना चाहिये।” 

पंडित हृदयनाथ कुंजरू ने कहा कि “यह खेद की बात है कि वह विषय, जिसका हमारी आंतरिक और अत्यंत पवित्र भावनाओं से संबंध है, चर्चा का विषय बनाया जाए। अपने सर्वोच्च सद्विश्वासों और अपनी निश्चित धारणाओं के प्रति यह अधिक सुसंगत होगा कि हम उन पर आरूढ़ रहें और अपने विश्वासों को दूसरों पर लादने का प्रयास न करें… इस प्रकार की कार्यवाही प्रस्तावना से असंगत है, जिसमें विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता का वचन प्रत्येक व्यक्ति को दिया गया है। इस प्रश्न पर संकीर्ण रूप से हम कैसे विचार कर सकते हैं? हम ईश्वर का आह्वान करते हैं, पर मैं यह साहसपूर्वक कह सकता हूं कि जब हम ऐसा करते हैं, तो हम एक संकीर्ण साम्प्रदायिक भावना का प्रदर्शन करते हैं, जो संविधान की आत्मा के विरुद्ध है।” 

एच. वी. कामत के संशोधन प्रस्ताव पर मत विभाजन हुआ। जिसमें पक्ष में 41 और विपक्ष में 68 मत पड़े। यानी उद्देशिका में ईश्वर के नाम के उल्लेख के प्रस्ताव को संविधान सभा ने अस्वीकार कर दिया।  

इसके बाद प्रो. शिब्बन लाल सक्सेना ने प्रस्ताव रखा कि उद्देशिका यूं होनी चाहिए –  

“सर्वशक्तिमान ईश्वर के नाम पर, जिसकी प्रेरणा तथा मार्गदर्शन के अधीन हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के सत्य और अहिंसा के शाश्वत सिद्धांतों पर अटल रह कर राष्ट्र को दासत्व से मुक्त कर स्वतंत्रता प्राप्त कराने का मार्ग दिखाया और जिन्होंने हमारे करोड़ों देशवासियों तथा राष्ट्र पर प्राणोत्सर्ग करने वाले व्यक्तियों को अपनी मातृ भूमि की खोई हुई पूर्ण स्वाधीनता को पुनः प्राप्त करने के लिए उनके वीरोचित तथा निरंतर होने वाले संघर्ष में सहारा दिया।” 

ब्रजेश्वर प्रसाद ने इसका विरोध किया और कहा कि मैं यह नहीं चाहता हूं कि महात्मा गांधी का नाम इस संविधान में लाया जाए क्योंकि यह संविधान गांधी जी के सिद्धांतों के आधार पर नहीं है। इसके बाद आचार्य जे. बी. कृपलानी के निवेदन पर प्रो. शिब्बन लाल सक्सेना ने प्रस्ताव वापस ले लिया।  

फिर पंडित गोविन्द मालवीय ने प्रस्ताव रखा कि उद्देशिका में यह लिखा जाए – 

“परमेश्वर की कृपा से, जो पुरुषोत्तम तथा ब्रहमांड का स्वामी है, (जो संसार में भिन्न भिन्न लोगों द्वारा भिन्न भिन्न नामों से पुकारा जाता है;)…..और अपने महान नेता महात्मा गांधी और इस देश के उन असंख्य पुत्र-पुत्रियों का कृतज्ञतापूर्वक स्मरण कर जिन्होंने स्वतंत्रता के लिए घोर परिश्रम तथा संघर्ष किया और कष्ट सहे; ”……..

बाद में पंडित मालवीय ने इस संशोधन प्रस्ताव को वापस ले लिया।  

संविधान निर्माण की प्रक्रिया और संविधान सभा की बहस से यह साफ होता है कि हज़ारों साल के इतिहास के विविध अनुभवों और उपनिवेशवाद की पीड़ादायक दो शताब्दियों की सीखों ने संविधान बना रही पीढ़ी को कितना परिपक्व बना दिया था। मज़हब के आधार पर व्यक्तियों और उनके वजूद और विचारों को खारिज नहीं किया जा रहा था। उस पर संवाद हो रहा था, बहस और तर्क किए जा रहे थे। और आखिर में हो रहे निर्णय को स्वीकार किया जा रहा था। आज के माहौल को याद करते हुए सोचिए कि क्या इतनी परिपक्व बहस आज की सभाओं में संभव है? इतनी परिपक्व कि संविधान की उद्देशिका में “ईश्वर” शब्द का उल्लेख न किए जाने पर सहमत हो जाए? इतना ही नहीं इस बात पर भी खुली चर्चा हो कि संविधान में “महात्मा गांधी” शब्द भी नहीं आयेगा! यह जरूरी है कि निजी जीवन में तीन मर्तबा संविधान और उसकी पृष्ठभूमि पढ़ी-समझी जाए – विद्यालय में, विश्वविद्यालय में और विश्वविद्यालय से बाहर निकलने के बाद।

Similar Posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *