डॉ. बी.आर. अम्बेडकर का पहला संविधान!
डॉ. बी.आर. अम्बेडकर सन 1945 में ही अनुसूचित जाति फेडरेशन के लिए संविधान के रूप में एक दस्तावेज तैयार कर चुके थे। यह दस्तावेज मुख्य रूप से नागरिकों और अनुसूचित जाति समुदाय के सदस्यों के मौलिक अधिकारों को परिभाषित करता था। इसमें उन्होंने यह बताने की कोशिश की थी कि अनुसूचित जाति समुदाय के मौलिक अधिकारों के हनन को रोकने लिए क्या व्यवस्था होगी? स्पष्ट है कि उनके लिए संविधान में मौलिक अधिकारों का उल्लेख भर पर्याप्त नहीं था बल्कि वह उन अधिकारों के संरक्षण और उनकी सुरक्षा की व्यवस्था चाहते थे।
सचिन कुमार जैन
संविधान शोधार्थी एवं अशोका फेलोशिप प्राप्त सामाजिक कार्यकर्ता। ‘संविधान की विकास गाथा’, ‘संविधान और हम’ सहित 65 से अधिक पुस्तक-पुस्तिकाओं का लेखन।
यह बात तो सभी जानते हैं कि डॉ. भीमराव अम्बेडकर संविधान सभा की उस समिति के सभापति थे, जिसने भारतीय संविधान के दूसरे प्रारूप को तैयार किया। पहला प्रारूप सांविधानिक परामर्शदाता बी. एन. राऊ द्वारा तैयार किया गया था। डॉ. अम्बेडकर ने संवैधानिक प्रावधानों और शब्दों को अर्थ देने में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाई लेकिन एक बात जो ज्यादा लोग नहीं जानते हैं वह यह है कि वे भारतीय संविधान पर अपने स्तर पर पहले से काम कर रहे थे।
उन्होंने वर्ष 1945 में अनुसूचित जाति फेडरेशन (जिसकी स्थापना 1940 के दशक के आरंभ में उन्होंने स्वयं की थी) के लिए स्टेट्स एंड माइनॉरिटीज़ (राज्य और अल्पसंख्यक/अल्पमत) नामक दस्तावेज तैयार किया था। संविधान के रूप में ही लिखे गये इस दस्तावेज का मुख्य उद्देश्य अनुसूचित जाति समुदाय के लिए सुरक्षा तंत्र के विकल्प प्रस्तुत करना था।
उनका मानना था कि भारत को पूर्ण स्वराज्य मिल जाने के बाद भी समाज के भीतर छुआछूत, भेदभाव, शोषण और असमानता बनी रहेगी क्योंकि स्वतंत्र होने के बाद भारत की शासन व्यवस्था पर उन लोगों और समूहों का आधिपत्य होगा, जो जातिवादी, वर्ण और लैंगिक भेद आधारित साम्प्रदायिक स्वभाव रखते हैं। यही कारण है कि उन्होंने 1945 के अपने प्रस्तावित संविधान में ब्रिटिश शासित भारत की ही संकल्पना की थी। ऐसा नहीं है कि वे भारत की स्वतंत्रता के खिलाफ थे, सच तो यह है कि उन्हें ब्रिटिश शासन से मुक्ति मिलने के बाद के भारत के भीतर बनने वाले हालातों का अंदाजा था। उन्हें लगता था कि ब्रिटिश सरकार के माध्यम से सामाजिक-आर्थिक बदलाव लाना संभव होगा।
यह मुख्य रूप से नागरिकों और अनुसूचित जाति समुदाय के सदस्यों के मौलिक अधिकारों को परिभाषित करता था। उन्होंने संवैधानिक संरचना की व्याख्या करते हुए यह बताने की कोशिश की थी कि अनुसूचित जाति समुदाय के मौलिक अधिकारों के हनन को रोकने लिए क्या व्यवस्था होगी? इससे यह स्पष्ट होता है कि उनके लिए केवल इतना पर्याप्त नहीं था कि संविधान में मौलिक अधिकारों का उल्लेख भर कर दिया जाये, बल्कि उन अधिकारों के संरक्षण और उनकी सुरक्षा की व्यवस्था एक बुनियादी अनिवार्यता थी। उन्होंने एक तरह से इस दस्तावेज में “समाजवादी राज्य” और “आर्थिक प्रजातंत्र” की अवधारणा पेश की। डॉ. अम्बेडकर का सोच था कि हम ऐसी व्यवस्था बनायेंगे जिसमें सभी समुदायों को राज्य संस्थानों में समान प्रतिनिधित्व हासिल होगा। हालांकि वे पृथक निर्वाचिका का प्रावधान संविधान सभा में पारित नहीं करवा पाये, लेकिन वे राज्य विधानसभाओं और संसद में अनुसूचित जाति-जनजाति समूहों के लिए निर्धारित स्थान आरक्षित करवाने में सफल रहे।
डॉ. अम्बेडकर का कहना था कि अधिकार क़ानून के माध्यम भर से संरक्षित नहीं होते हैं। वे समाज की सामाजिक और नैतिक चेतना से संरक्षित होते हैं। यदि सामाजिक चेतना उन अधिकारों को मान्यता देने के लिए तत्पर होती है, जो क़ानून द्वारा निर्धारित किये हैं। तभी अधिकार सुरक्षित होंगे। लेकिन यदि समाज खुद मौलिक अधिकारों के खिलाफ़ हो, तो कोई क़ानून, कोई संसद, कोई न्यायपालिका अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं कर सकती है। क़ानून अधिकारों का उल्लंघन करने वाले किसी एक व्यक्ति को दण्डित कर सकता है, या सज़ा दे सकता है, किन्तु क़ानून भी ऐसे लोगों के व्यापक समूह के खिलाफ़ कार्यवाही नहीं कर सकता है, जो क़ानून के उल्लंघन के लिए प्रतिबद्ध हैं। एक लोकतांत्रिक सरकार यह धारणा लेकर चलती है कि समाज भी लोकतांत्रिक है, लेकिन लोकतंत्र की औपचारिक व्यवस्था तब तक बेमानी और बेमेल है, जब तक कि सामाजिक लोकतंत्र (खुद समाज का लोकतांत्रिक होना) स्थापित न हो। राजनीतिक विचारक यह महसूस नहीं कर पाये कि लोकतंत्र सरकार की व्यवस्था का रूप नहीं है, यह समाज की व्यवस्था का एक रूप है। किसी लोकतांत्रिक समाज के लिए यह जरूरी नहीं है कि उसे एकरूपता, उद्देश्यों की समानता, लोगों के प्रति वफादारी, एक-दूसरे के प्रति सहानुभूति से चिन्हित किया जाये, लेकिन इसमें दो तत्व जरूर शामिल हैं – एक : मानसिक प्रवृत्ति, गरिमा की प्रवृत्ति व दूसरे के प्रति समानता का भाव और दो : कठोर सामाजिक बाधाओं और भेदभाव की भावना से मुक्त समाज।
डॉ. अम्बेडकर के पहले संविधान की बातें
डॉ. अम्बेडकर अपने स्तर पर भारतीय संविधान को लेकर पहले से काम कर रहे थे। उन्होंने वर्ष 1945 में अनुसूचित जाति फेडरेशन (जिसकी स्थापना 1940 के दशक के आरंभ में उन्होंने स्वयं की थी) के लिए स्टेट्स एंड माइनॉरिटीज़ (राज्य और अल्पसंख्यक/अल्पमत) नामक दस्तावेज तैयार किया था। इसकी प्रस्तावित उद्देशिका में लिखा था, “हम ब्रिटिश शासित भारत के प्रांतीय और केंद्र प्रशासित क्षेत्रों और भारतीय राज्यों के लोग” प्रांतीय और केंद्र प्रशासित क्षेत्रों को मिलाकर एक व्यवस्थित संघ बनाने के मकसद से व्यवस्थित विधायिका, कार्यपालिका और प्रशासनिक उद्देश्यों के लिए संयुक्त राज्य भारत के रूप में निम्न लक्ष्यों से एकजुट होते हैं –
- अपने और अपनी भावी पीढ़ी के लिए संयुक्त राज्य भारत में स्व-शासन और सुशासन की स्थापना।
- जीवन के हर पक्ष में जीवन, स्वतंत्रता, खुशहाली, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अपने धर्म को मानने की स्वतंत्रता की सुनिश्चितता।
- समाज के वंचित और उपेक्षित वर्गों को बेहतर अवसर उपलब्ध करवाकर सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक असमानता को ख़त्म करना।
- हर व्यक्ति को भय और दबाव से स्वतंत्रता मिलना।
- देश की भीतरी सुरक्षा और बाहरी आक्रमण/घुसपैठ से सुरक्षा के लिए संयुक्त राज्य भारत का संविधान बनाया जाना।
उन्होंने अपने संविधान में लिखा कि नागरिकों के मौलिक अधिकार के रूप में संयुक्त राज्य भारत में जन्मे व्यक्ति की पदवी, जन्म, व्यक्ति, परिवार, धर्म और परंपरा आधारित विशेषाधिकार और वंचना को खत्म किया जाता है। राज्य ऐसा कोई क़ानून नहीं बनायेगा, जो नागरिक के अधिकार और प्रतिरक्षा को सीमित करता हो और किसी उचित क़ानून या क़ानून की प्रक्रिया के बिना जीवन, स्वतंत्रता और संपत्ति के अधिकार से नागरिक को वंचित करता हो। हर व्यक्ति क़ानून के समक्ष समान होगा। सभी नागरिक क़ानून के सामने समान हैं, और ऐसा कोई भी कानून, रीति-रिवाज़, परम्परा, आदेश, जिनके तहत किसी दंड या सज़ा का प्रावधान है, इस संविधान के लागू होते ही निष्प्रभावी हो जायेंगे। किसी भी तरह का और किसी भी स्थान पर भेदभाव अपराध होगा। बंधुआ और जबरिया मजदूरी करवाना अपराध होगा।
इसके अलावा प्रेस, मतदान, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, धर्म परिवर्तन की स्वतंत्रता को शामिल किया और लिखा कि राज्य किसी धर्म को राज्य धर्म (राज्य के धर्म) के रूप में मान्यता नहीं देगा। असमानता के व्यवहार, सामाजिक-आर्थिक शोषण, भेदभाव, छुआछूत से मुक्ति के लिए प्रावधान किया।
क्या डॉ. अम्बेडकर समाजवादी व्यवस्था चाहते थे?
इस दस्तावेज में डॉ. अम्बेडकर ने समाजवादी राज्य व्यवस्था का ही सपना देखा था। उनका मानना था कि देश के मुख्य उद्योग पूरी तरह से राज्य के अधीन होंगे। इसके बाद आधारभूत उद्योग सहकारी पद्धति से संचालित होंगे। बीमा क्षेत्र पर राज्य का नियंत्रण होगा।
इतना ही नहीं, वे कृषि को राज्य नियंत्रित संपत्ति और व्यवस्था के रूप में देख रहे थे। डॉ. अम्बेडकर ने लिखा था कि इस व्यवस्था को लागू करने के लिए राज्य निजी क्षेत्र या व्यक्तियों के मालिकाने में शामिल मुख्य उद्द्योगों, बीमा और कृषि भूमि को उनके मूल्य के मुताबिक डिबेंचर्स के रूप में मुआवजा प्रदान करके अधिग्रहीत करेगा।
इस दस्तावेज के मुताबिक़ कृषि क्षेत्र की व्यवस्था इस तरह होगी –
- राज्य अधिग्रहीत की गयी भूमि को गांव के लोगों में समान रूप से वितरित करके परिवारों के समूह को सहकारी/साझा खेती के लिए प्रदान करेगा।
- खेती के लिए राज्य नियम और निर्देश जारी करेगा। खेती से हुई आय को, खेती करने में हुए व्यय को हटाकर, सभी सहभागी परिवारों में बांटा जायेगा।
- भूमि का आवंटन/किराये पर देने की प्रक्रिया में वंश, जाति, वर्ग के आधार पर कोई भेद नहीं होगा। इसका मतलब यह है कि कोई भी भू स्वामी नहीं होगा, कोई किरायेदार नहीं होगा और कोई भी भूमिहीन मजदूर नहीं होगा।
- राज्य की जिम्मेदारी होगी कि वह खेती की प्रक्रिया का पानी, खेती में सहयोगी पशुओं का पालन, कृषि उपकरण, खाद और बीज की आपूर्ति के जरिये वित्तपोषण करेगा।
- राज्य कृषि भूमि पर एक निश्चित शुल्क लगा सकेगा।
भारत के बुनियादी ढांचे में बदलाव के लिए उन्होंने भूमि सुधार के लिए प्रावधान किये थे। इसके मुताबिक नये संविधान में एक व्यवस्थापन आयोग बनाया जायेगा, जो गैर-कृषि योग्य भूमि का उपयोग अनुसूचित जातियों के आवास/व्यवस्थापन के लिए करेगा। इस आयोग को ऐसे उद्देश्य के लिए जमीन खरीदने का भी अधिकार होगा।
स्पष्ट है कि वे अपने मूल विचारों को भारत के आधिकारिक संविधान में शामिल नहीं करवा पाये। इतना ही नहीं कुछ स्तरों (मसलन आर्थिक अधिकारों को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता देना) पर उन्होंने अपने ही विचारों को आगे नहीं बढ़ाया।
डॉ. अम्बेडकर केंद्रीकृत व्यवस्था के समर्थक नजर आते हैं, क्योंकि उन्हें लगता था कि समाज के नियम और उसका चरित्र समाज को बदलने नहीं देगा, इसलिए वे बहुत ताकतवर राज्य व्यवस्था चाहते थे।