किस धर्मांतरण को संविधान सभा ने माना था अवैधानिक
भारत की संविधान सभा में धर्मांतरण के विषय पर गंभीर बहस हुई क्योंकि उपनिवेशवाद के उस दौर में ईसाई धर्मांतरण एक संवेदनशील विषय के रूप में उभर चुका था। अनुच्छेद 25 के अंतर्गत दी गई परिभाषा तो यही कहती है कि यह जरूरी नहीं कि व्यक्ति उसी धर्म को माने जिससे संबंधित परिवार में उसका जन्म हुआ हो। परंतु इस निष्कर्ष पर पहुंचने के पहले सदस्यों के बीच एक ज्ञानवर्धक बहस हुई।
सचिन कुमार जैन
संविधान शोधार्थी एवं अशोका फेलोशिप प्राप्त सामाजिक कार्यकर्ता। ‘संविधान की विकास गाथा’, ‘संविधान और हम’ सहित 65 से अधिक पुस्तक-पुस्तिकाओं का लेखन।
भारत के संविधान में दर्ज है कि ‘राज्य, किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म-स्थान या इनमें से किसी के आधार पर विभेद नहीं करेगा (अनुच्छेद 15) और लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य तथा इस भाग के अन्य उपबंधों के अधीन रहते हुए, सभी व्यक्तियों को अंतःकरण की स्वतंत्रता का और धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने का समान हक़ होगा (अनुच्छेद 25)’; इसके मायने यह हैं कि भारत का संविधान हर व्यक्ति को अपना धर्म चुनने की भी स्वतंत्रता देता है। ऐसा आवश्यक नहीं है कि व्यक्ति उसी धर्म को मानने के लिए बाध्य हो, जिससे संबंधित परिवार में उसका जन्म हुआ है।
हालांकि संविधान में सीधे रूप में धर्मांतरण का अधिकार लिखा नहीं गया है, लेकिन संविधान सभा के शुरुआती दिनों में ही सरदार वल्लभ भाई पटेल की अध्यक्षता में मौलिक अधिकार समिति ने इसे अपनी रिपोर्ट में शर्तों के साथ शामिल किया था। बाद में धर्मांतरण को धर्म को मानने, आचरण करने और उसके प्रचार से संबंधित मूलभूत अधिकार का हिस्सा मान लिया गया।
इस विषय पर गंभीर बहस इसलिए हुई क्योंकि ब्रिटिश शासन और उपनिवेशवाद के साए में ईसाई धर्मांतरण एक संवेदनशील विषय के रूप में उभरा था। पुरुषोत्तमदास टंडन ने कहा था कि हम लोगों ने इस सभा में स्वीकार कर लिया है कि हर एक को अपने धर्म को फैलाने और दूसरे को अपने धर्म में लाने का अधिकार है। एक धर्म से दूसरे धर्म में लाना और इस तरह के काम के पीछे पड़ना हम कांग्रेस वालों को अनुचित लगता है और हम इसके पक्षधर नहीं हैं। अधिकांश कांग्रेसी ‘प्रचार’ शब्द रखने के भी विरुद्ध हैं पर अपने ईसाई दोस्तों के लिहाज से हमने यह शब्द रहने दिया है। क्या बच्चों को यानी 18 साल से कम उम्र के व्यक्ति को धर्मांतरण का अधिकार होना चाहिए? अगर 18 वर्ष से कम उम्र का व्यक्ति धर्मांतरण करता है तो क्या उसे कानूनी रूप से मान्यता दी जाएगी?
संविधान सभा ने अल्पसंख्यक समुदाय और मूलभूत अधिकार संबंधी सलाहकार समिति बनाई थी। समिति ने 23 अप्रैल 1947 को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। इस समिति ने एक अनुच्छेद प्रस्तावित किया था। वह अनुच्छेद इस प्रकार था:
‘बलपूर्वक या अनुचित प्रभाव से जो धर्म परिवर्तन होगा, उसे कानून स्वीकार नहीं करेगा।‘ इस प्रस्ताव पर जब 1 मई 1947 को धर्म संबंधी अधिकारों पर बात चल रही थी, तब केएम मुंशी ने इस पर संशोधन प्रस्ताव दिया कि इसमें यह बिंदु जोड़ा जाए, ‘यह कि खंड 17 के बदले यह खंड रख दिया जाए कि – किसी भी व्यक्ति को धोखे या दबाव से या अनुचित प्रभाव डालकर अथवा 18 वर्ष से कम अवस्था के नाबालिग को, एक धर्म से दूसरे धर्म में प्रविष्ट करने पर यह धर्म परिवर्तन कानून से जायज नहीं माना जाएगा।’
वे चाहते थे कि बच्चों के धर्मांतरण को स्वीकार न किया जाए। इस संशोधन को स्वीकार करने का परिणाम यह होगा कि यदि धोखे, दबाव या नाबालिगी की अवस्था में धर्मांतरण हुआ तो उसके अधिकार कायम रहेंगे। इस पर एफआर एंथनी ने कहा था, ‘‘एक तरफ तो हमने ‘अपने धर्म के प्रचार और पालन करने’ का मौलिक अधिकार दिया है, लेकिन दूसरे हाथ से 18 वर्ष से कम अवस्था के नाबालिग का इस शर्त अधिकार इस शर्त के माध्यम से छीन मत लीजिये। इससे तो आप धर्मान्तरित करने के अधिकार को ही छीन लेते हैं। इसका परिणाम क्या होगा? कोई भी वयस्क पिता, जितना भी चाहे ह्रदय से ईसाई धर्म अकेले न ग्रहण कर सकेगा क्योंकि इस आदेश द्वारा तो आप उस मां-बाप को उसके बच्चे से अलग कर देते हैं। इस प्रावधान से मां-बाप तो ईसाई धर्म ग्रहण कर सकेंगे, लेकिन उनके बच्चे मां-बाप के धर्म और पालन पोषण से वंचित रह जाएंगे।”
उनका सुझाव था कि इस प्रावधान में यह जोड़ दिया जाए कि ‘सिवाय इस अवस्था के, जहां माता पिता या उनमें से जो भी जीवित हों, वह पहले धर्मांतरित हों और बच्चा अपने धर्म में रहना न पसंद करता हो।‘ माता-पिताओं को अधिकार है कि वह अपने बच्चों को जिस धर्म में चाहें दीक्षित करें। रेवरेंड जेजेएम निकोलस राय ने कहा कि यह सोचना कि 18 वर्ष के युवा में विवेक नहीं होता है, गलत है। ऐसे भी लोग हैं जो सांसारिक लाभ के लिए धर्मांतरण करते हैं। पर ऐसे भी लोग हैं, जो आत्मशक्ति से प्रेरित होकर धर्म परिवर्तन करते हैं। अगर बच्चे और नवयुवक आध्यात्मिक दृष्टिकोण से धर्म परिवर्तन करते हैं, तो उन्हें रोकना नहीं चाहिए।
पुरुषोत्तम दास टंडन ने कहा कि (व्यक्ति को) एक धर्म से दूसरे धर्म में लाना और इस तरह के काम के पीछे पड़ना हम कांग्रेस वालों को अनुचित लगता है और हम उसके पक्षपाती नहीं हैं। छोटे-छोटे बच्चे कैसे धर्म बदल सकते हैं? अभी उनको बुद्धि नहीं है। वह आपकी शास्त्रीय बात को नहीं समझते हैं। अगर वह धर्म परिवर्तन करते हैं तो किसी न किसी असर से करते हैं और यह असर उचित नहीं है। अगर कोई ईसाई किसी हिंदू बच्चे को अपने साथ रखता है और उसके साथ दया का बर्ताव करता है तो यह संभव है कि वह हिंदू बच्चा उसके साथ रहना पसंद करे। इसे हम नहीं रोक रहे हैं। धर्म परिवर्तन वह ठीक उम्र आने पर ही कर सकता है।
लेकिन रामनाथ गोयनका का मानना था कि ऐसा नहीं मानना चाहिए कि कोई भी व्यक्ति 18 वर्ष की उम्र का होकर ही विवेक हासिल करता है. उनका कहना था कि “जब सभी को अपना धर्म मानने का मूलभूत अधिकार दिया गया है तो उसमें वही लोग आ सकते हैं, जो समझदारी की अवस्था प्राप्त कर चुके हों। यह जरूरी नहीं कि समझदार होने के लिए पहले 18 वर्ष के हो ही चुके हों। बारह, पंद्रह, सोलह, सत्रह की उम्र भी (समझदारी की) हो सकती है।”
अलगू राय शास्त्री ने भी कहा था कि लोग आजकल इस तरह व्यवहार करते हैं कि अगर कोई आदमी अपनी जमीन बेंच दे, तो उसके साथ खड़े हुए पेड़ भी बिक जाते हैं। नाबालिग बच्चे जानते नहीं है कि धर्म क्या है और माता-पिता के धर्म परिवर्तन करने पर उनका भी धर्म परिवर्तन हो जाता है। हमें चाहिए कि हम उन बच्चों के हकों की रक्षा करें और उनको धर्म-परिवर्तन करने से रोका जाए।
डॉ. भीमराव अंबेडकर ने केएम मुंशी के संशोधन प्रस्ताव का विरोध किया। उन्होंने कहा कि बच्चों के बारे में तीन कल्पनाएं की जा सकती हैं। पहली तो उन बच्चों की, जिनके मां बाप और अभिभावक हैं। कुछ अनाथ बच्चों की कल्पना दूसरी है। और कानूनी अर्थ में जिनके कोई मां बाप और अभिभावक नहीं हैं। मान लीजिए कि 18 वर्ष तक के बच्चों का धर्मांतरण न करने का यह खंड आपने पारित कर लिया पर उन बच्चों का क्या होगा, जो अनाथ हैं? क्या उनका कोई धर्म नहीं होगा? क्या उन्हें धार्मिक शिक्षा ऐसे व्यक्ति द्वारा नहीं दी जा सकेगी, जो उन अनाथों पर दया दिखाने में दिलचस्पी रखते हैं? अगर किसी बच्चे के माता-पिता और अभिभावक हैं तो धर्म प्रचारक को उन्हें बच्चे के धर्मांतरण की सूचना देना चाहिए। यह उचित है। अभिभावकों की राय और जानकारी के साथ किया गया धर्म परिवर्तन का प्रस्ताव बिलकुल वैध है। अगर, मां बाप धर्मांतरित होते हैं तो क्या उनके बच्चों को अपने धर्मांतरित माता-पिता का धर्म स्वीकार करने का अधिकार नहीं होगा? उन बच्चों का धर्म क्या होगा? उनके लिए क्या व्यवस्था होगी? अगर धर्मांतरित होकर ईसाई बने माता-पिता के किसी बच्चे की मृत्यु हो जाती है, तो वे उसका अंतिम संस्कार दफन करके करते हैं तो क्या माता-पिता का यह कर्म जुर्म समझा जाएगा?
डॉ. अंबेडकर ने कहा कि अगर यह संशोधन स्वीकार किया जाता है तो आपको अभिभावकता कानून में भी परिवर्तन करना होगा। जिससे धर्मांतरित हुए माता-पिता अपना धार्मिक प्रभाव ऐसे बच्चों पर न डाल सकें। क्या संविधान सभा के लिए यह मंजूर करना संभव है कि एक पांच वर्ष का बच्चा केवल इसलिए अपने माता-पिता से अलग किया जा सकता है कि उसके माता-पिता ईसाई धर्म ग्रहण कर चुके हैं, जो वास्तव में उसका पहला धर्म नहीं है। हमने नाबालिग समिति और परामर्श समिति में भी इस विषय पर चर्चा की थी और हम इस परिणाम पर पहुंचे थे कि अठारह साल से कम अवस्था के बच्चों का धर्मांतरण रोकने पर कितनी ही बुराइयां पैदा हो जाएंगी।
अंतत: यह माना गया कि संविधान में ऐसा कोई प्रावधान नहीं रखना चाहिए, जिससे 18 वर्ष से कम उम्र के व्यक्ति के द्वारा किए गए धर्मांतरण को अवैधानिक माना जाए।