राजा-महाराजाओं के विशेषाधिकार और उनका अंत
स्वतंत्र भारत में राजाओं-महाराजाओं और नवाबों आदि को मिले विशेष अधिकारों को लेकर आम जनमानस में कई कहानियां प्रचलित हैं। प्रिवी पर्स यानी निजी थैली समेत ये अधिकार तत्कालीन राज्याध्यक्षों को किन परिस्थितियों में दिए गये और उनका अंत किस प्रकार हुआ यह अपने आप में अत्यंत रोचक दास्तान है। प्रस्तुत आलेख कई जरूरी भ्रमों को दूर करते हुए तत्कालीन परिस्थितियों को साफगोई से सामने रखता है।
सचिन कुमार जैन
संविधान शोधार्थी एवं अशोका फेलोशिप प्राप्त सामाजिक कार्यकर्ता। ‘संविधान की विकास गाथा’, ‘संविधान और हम’ सहित 65 से अधिक पुस्तक-पुस्तिकाओं का लेखन।
आजा़दी के समय देश में जितने भी राजा-महाराजा या नवाब आदि थे, उनके सामने एक बड़ा प्रश्न यह था कि जब रियासतों का भारत में विलय हो जाएगा, तो उनका क्या होगा? भारत के संविधान को लेकर जानबूझकर फैलाए गये भ्रमों के चलते कई लोगों को लगता है कि आखिर संविधान ने भारत को दिया ही क्या है। ऐसे लोगों को भारत की रियासतों से जुड़ी घटनाओं को जानना चाहिए।
भारत स्वतंत्र तो हो गया था किंतु वह राजशाही-नवाबशाही से मुक्त नहीं हुआ था। उसके राजशाही की छाया से बाहर आने के लिए एक अलग किस्म की क्रांति की आवश्यकता पड़ी। भारत को राजाओं-महाराजाओं और नवाबों से मुक्त कराने में पंडित जवाहर लाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल, एन. गोपालस्वामी आयंगर के साथ वी. पी. मेनन ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जिस समय भारत स्वतंत्र हो रहा था, उसी समय जूनागढ़, हैदराबाद, कश्मीर जैसी रियासतें स्वतंत्रता का विकल्प तलाश रही थीं। कुछ रियासतें किसी भी तरह अपनी सत्ता बनाये रखना चाहती थीं और कुछ रियासतें पाकिस्तान की तरफ मुखातिब थीं।
रियासतों को साथ जोड़ने की कवायद
रियासतों का यह समूह छोटा नहीं था। साढ़े पांच सौ से ज्यादा रियासतों को भारत से जोड़ना आसान राजनीतिक काम नहीं था लेकिन यह हुआ और बिना युद्ध अथवा बिना किसी हिंसा के हुआ। रियासतों को भारत से जोड़ने के लिए हुए समझौतों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था नरेशों-राजप्रमुखों के लिए भारत सरकार के कोष से राज्य के राजस्व के निश्चित प्रतिशत, प्रथम लाख रुपये राजस्व पर 15 प्रतिशत, अगले चार लाख रुपये पर 10 प्रतिशत, पांच लाख रुपये से अधिक पर साढ़े सात प्रतिशत और अधिकतम 10 लाख रुपये का हिसाब लगाया गया। जयपुर, ग्वालियर, हैदराबाद, मैसूर सरीखी कुछ रियासतों के लिए अधिक राशि का भी प्रावधान किया गया।
प्रिवी पर्स यानी निजी थैली
सरदार वल्लभ भाई पटेल ने 12 अक्टूबर 1949 को संविधान सभा को सूचित किया कि “अब तक जो वचन दिए गये हैं, उनके अनुसार निजी थैली (प्रिवी पर्स) की कुल वार्षिक रकम लगभग साढ़े चार करोड़ रुपये होती है। हमने निजी थैली की जो व्यवस्था की है, उससे शासकों पर अभी होने वाला व्यय घट कर एक चौथाई रह जाएगा। ऐसा करने से राज्य के शासकों से प्राप्त हुए धन के रूप में एकीकरण की रीति से भी पर्याप्त लाभ हुआ है। उदाहरण के लिए केवल मध्य भारत के राजप्रमुख ने इतनी बड़ी राशि संघ (केंद्र सरकार) को दी है कि उसका ब्याज इतना है कि वह उन सब शासकों की कुल निजी थैली की राशि के एक बड़े भाग को पूरा कर सकती है। हमने निजी थैली की जो प्रत्याभूति दी है, वह उन ऐतिहासिक निर्णयों का अंग हैं जिनमें भारत के भौगोलिक, राजनीतिक तथा आर्थिक एकीकरण के महान आदर्शों का लक्ष्य विद्यमान है – एक वह आदर्श जो शताब्दियों तक दूर का सपना ही बना रहा और जिसको भारतीय स्वाधीनता के पश्चात भी प्राप्त करना उतना ही कठिन था और अब भी उतना ही सुदूरवर्ती होता, जितना पहले था।”
निजी थैली के प्रस्ताव के संदर्भ में बी. पट्टाभि सीतारमैया ने कहा कि “जब किसी दलदल की जगह महल बनाया जाता है, जिसकी वजह से नींव कमज़ोर हो जाती है, तो जितनी ईंटें दीवालों या उसके बाहरी भागों में दिखाई देती हैं, उनसे अधिक ईंटें उस दलदल में डाल दी जाती हैं। ध्यान बाहरी भाग की ओर ही आकर्षित होता है, बाहरी भाग पर ही कलापूर्ण काम किया जाता है; पर ईंटें उस नींव में डाली जाती हैं जो कहीं दिखाई नहीं देतीं, परंतु ऊपर जो भवन दिखाई देता है, उसके भार को वे सदैव लादे रहती हैं।”
क्या और कितनी बड़ी थी निजी थैली?
निजी थैली के अंतर्गत दी जाने वाली राशि का उपयोग रियासतों के शासकों द्वारा अपने निजी खर्चों, आवास, विवाह और अन्य समारोहों और निजी स्टाफ के लिए किया जाना था। हर रियासत के साथ ऐसा समझौता हुआ, जिसमें निजी थैली की राशि और उससे सम्बंधित शर्तों का उल्लेख था। उदाहरण के लिए 21 मार्च 1949 को बड़ौदा रियासत का भारत में विलीनीकरण समझौता हुआ। जिसमें कहा गया था – “आज की तारीख से बड़ौदा के महाराजा अधिराज्य सरकार में शामिल होते हैं और एक मई 1949 की तारीख से राज्य के अभी प्राधिकार, नियंत्रण क्षेत्र और शासन से सम्बंधित समस्त शक्तियां अधिराज्य सरकार को स्थानांतरित करते हैं। बड़ौदा महाराजा अपनी निजी अधिकार, गरिमा, शीर्षक और विशेष अधिकारों को पहले जैसे ही अपनाते रहेंगे। उन्हें राज्य के राजस्व में से सालाना चार किश्तों में 26.50 लाख रुपये, जो कि कर-मुक्त होंगे, निजी थैली के रूप में मिलेंगे, जिसका उपयोग वे अपनी निजी-पारिवारिक व्ययों, सचिवालय और निजी कर्मचारियों, आवास, विवाह और अन्य समारोहों के लिए कर सकेंगे। यह राशि न तो कम की जायेगी, न ही इसमें वृद्धि की जायेगी। रियासत के महाराजा राज्य की परिसम्प्पतियों से अलग अपनी सभी निजी संपत्तियों पर अधिकार रखते रहेंगे। महाराजा बड़ौदा पारंपरिक पद्धति से अपना उत्तराधिकारी चुन सकेंगे। भारत सरकार बड़ौदा रियासत के शासक के रूप में किए गये किसी भी कृत्य के संदर्भ में बड़ौदा महाराज के खिलाफ कोई भी न्यायिक कार्यवाही नहीं करेगी।”
पहले यह अनुमान लगाया गया था कि निजी थैली पर लगभग साढ़े चार करोड़ रुपये खर्च होंगे, लेकिन जब हैदराबाद और मैसूर से समझौता हुआ, तब निजी थैली की राशि साढ़े चार करोड़ रुपये से बढ़कर लगभग 5.8 करोड़ रुपये तक पहुंच गयी। बड़ौदा (26.50 लाख रुपये), ट्रावनकोर (18 लाख रुपये), ग्वालियर (25 लाख रुपये), इंदौर (15 लाख रुपये), जयपुर (18 लाख रुपये), बीकानेर (17 लाख रुपये), जोधपुर (17.50 लाख रुपये), हैदराबाद (50 लाख रुपये) और मैसूर (26 लाख रुपये), ये ऐसी नौ रियासतें थीं, जिन्हें दस लाख रुपये की तय राशि से ज्यादा की निजी थैली दी गयी थी। इन राज्यों के साथ यह अनुबंध किया गया कि वर्तमान थैली रियासत के केवल वर्तमान शासक/राजप्रमुख के लिए ही है। और उनके उत्तराधिकारी के लिए भारत सरकार द्वारा अलग से प्रावधान किए जायेंगे।
सरदार वल्लभ भाई पटेल ने 12 अक्टूबर 1949 के अपने वक्तव्य में साफ कह दिया था कि “निजी थैली केंद्र सरकार द्वारा तय की गयी है और इसका स्वरूप राजनैतिक है।” तत्कालीन स्थितियों में वित्तीय और प्रशासनिक संघीय व्यवस्था बनाने के लिए रियासतों और राज्यों को भारत में शामिल करना बेहद जरूरी था, इसी कारण से “निजी थैली” की राजनैतिक व्यवस्था की गयी ताकि शासक और राजप्रमुख अपनी सत्ता के लिए कोई संघर्ष करना शुरू न कर दें। इसी दिन अंतिम रूप से यह तय हुआ कि अब रियासतों और राज्यों के समूह के अपने अलग-अलग संविधान नहीं होंगे, जैसा कि कैबिनेट मिशन की योजना में तय किया गया था। संविधान सभा की मसौदा समिति ने यह प्रावधान किए थे कि संसद को बिना अनुबंध किए राज्य या राज्यों के समूह के लिए क़ानून बनाने के अधिकार तब तक नहीं होंगे, जब तक कि इसके लिए उनसे भारत सरकार का अनुबंध न हो जाए। इसके साथ ही रियासतों में सर्वोच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार और मूलभूत अधिकारों की निगरानी की व्यवस्था भी सीमित थी।
12 अक्टूबर 1949 को ही संविधान के मसौदे में अनुच्छेद 224, 225, 235, 236, 237 समेत 13 अनुच्छेद में संशोधन करके रियासतों के अधिकारों को सीमित किया गया। साथ ही रियासतों के शासकों के लिए निजी थैली का प्रावधान करने वाले अनुच्छेद 267-क को जोड़ा गया, जो अंतिम रूप से स्वीकृत संविधान में अनुच्छेद 291 पर दर्ज हुआ। इस एक व्यवस्था ने ही नए भारत की व्यवस्था को ब्रिटिश साम्राज्य की सरकार द्वारा लागू किए गये भारत शासन अधिनियम, 1935 से अलग कर दिया क्योंकि उस अधिनियम में लोकतंत्र और राजशाही को एक साथ बनाए रखने की व्यवस्था की जा रही थी। इतना ही नहीं कैबिनेट मिशन की योजना ने भी भारत में भारतीय प्रांतों और रियासतों के लिए दो अलग-अलग संवैधानिक व्यवस्थाओं के बीज बो दिए थे।
“निजी थैली” की व्यवस्था को स्थायी व्यवस्था नहीं माना गया था। वास्तव में यह व्यवस्था लोकतंत्र, समता और सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक न्याय के उन मूल्यों के विपरीत भी थी, जिनका उल्लेख संविधान की उद्देशिका में किया गया था। यह व्यवस्था मूलभूत अधिकारों में दर्ज अनुच्छेद 117, जिसमें उपाधियों का अंत किया गया था, के अनुरूप भी नहीं थी क्योंकि भारत सरकार रियासत के शासकों को अपनी उपाधि बरक़रार रखने का अधिकार भी दे रही थी।
निजी थैली और विशेषाधिकारों का अंत
“निजी थैली” के प्रावधान को हटाने की पहल वर्ष 1970 में शुरू हुई, जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं। उन्होंने दो सितम्बर 1970 को लोकसभा में चौबीसवां संविधान संशोधन विधेयक प्रस्तुत किया। इसमें संविधान के अनुच्छेद 291, 362 और 366 (22) को हटाने यानी रियासतों के नरेशों-राज प्रमुखों को निजी थैली प्रदान किए जाने की भारत सरकार की बाध्यता को समाप्त करने का प्रस्ताव था। लोकसभा में यह विधेयक पारित हो गया। इसके बाद पांच सितम्बर को यही विधेयक राज्य सभा में प्रस्तुत किया गया, लेकिन राज्य सभा में इसे दो तिहाई समर्थन नहीं मिला और यह संशोधन प्रस्ताव पारित नहीं हो सका। इसके कुछ ही घंटों बाद भारत के राष्ट्रपति ने संविधान के अनुच्छेद 366 (22) के अंतर्गत अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए रियासतों के शासकों को दी गयी मान्यता को समाप्त कर दिया। इस अनुच्छेद में राष्ट्रपति को ही निजी थैली के निर्धारण के उद्देश्य से शासकों को मान्यता देने का अधिकार दिया गया था।
भारत सरकार के इस कदम के विरुद्ध महाराजाधिराज माधव राव जीवाजी राव सिंधिया बहादुर (याचिका में दर्ज नाम) ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दर्ज की। उनका पक्ष था कि भारत सरकार के इस कदम से उनके मूलभूत अधिकारों और संवैधानिक विशेषाधिकारों का हनन हुआ है। मुख्य न्यायाधीश एम. हिदायतुल्लाह के नेतृत्व वाली 11 सदस्यीय संविधान पीठ ने भी माना कि संविधान के प्रावधान के मुताबिक़ राजाओं-शासकों को निजी थैली प्रदान करना भारत सरकार की जिम्मेदारी है और यह व्यवस्था समाप्त करने का उसका निर्णय असंवैधानिक है।
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का मानना था कि निजी थैली की व्यवस्था सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है। इसीलिए उन्होंने इसी आधार पर आम चुनावों में जाने का निर्णय लिया और “गरीबी हटाओ” के नारे के साथ चुनाव लड़कर लोकसभा में 352 स्थान हासिल किए। चूंकि अब उनके पास ज्यादा बहुमत था, इसलिए उन्होंने 31 जुलाई 1971 को संसद में छब्बीसवां संविधान संशोधन विधेयक प्रस्तुत कर दिया। इसके उद्देश्य वक्तव्य में कहा गया था कि “वर्तमान कार्य और सामाजिक उद्देश्यों के अंतर्गत निजी थैली (प्रिवी पर्स) और नरेशों/शासकों के विशेषाधिकार की अवधारणा समतामूलक सामाजिक उद्देश्यों से असंगत है। अतः सरकार ने भारत के पूर्व रियासत शासकों के विशेषाधिकारों और निजी थैली की व्यवस्था को समाप्त करने का निर्णय लिया है।”
संवैधानिक व्यवस्था में राजशाही के अवशेषों को समाप्त करने के लिए राजनैतिक प्रतिबद्धता के साथ ही उस राजनैतिक प्रावधान को समाप्त किया गया, जो भारत के एकीकरण के लिए स्वीकार किया गया था।