सचिन कुमार जैन

संविधान शोधार्थी एवं अशोका फेलोशिप प्राप्त सामाजिक कार्यकर्ता। ‘संविधान की विकास गाथा’, ‘संविधान और हम’ सहित 65 से अधिक पुस्तक-पुस्तिकाओं का लेखन।

आज हम भारत की आजादी, उसके संविधान से जुड़ी बहुत सी जरूरी बातों, तथ्यों और मूल्यों को भूलते जा रहे हैं। यह बहुत जरूरी है कि हम उन भूली बातों को दोबारा याद करें। यह तथ्य है कि 26 नवंबर 1949 को भारत की संविधान सभा ने संविधान को पारित किया था लेकिन यह संविधान किन परिस्थितियों में तैयार किया गया? उस समय वैश्विक हालात क्या थे? देश किन परिस्थितियों से गुजर रहा था? यह सब जानना भी उतना ही जरूरी है।

हमारा संविधान उन परिस्थितियों में लिखा गया था, जब दूसरे विश्व युद्ध के बाद दुनिया के बड़े हिस्से में बरबादी का माहौल था और देश के भीतर लगातार साम्प्रदायिक टकराव की स्थितियां बनी हुई थीं क्योंकि उसी वक्त भारत का विभाजन भी हो रहा था। इन परिस्थितियों में बाहरी घटनाओं से विचलित हुए बिना, भारत इन्साफ, बराबरी, प्रेम, लोकतंत्र, सौहार्द, स्वतंत्रता और सह-अस्तित्व के मूल्यों को जोड़कर अपना संविधान बना रहा था।

संविधान के मूल्यों पर बार-बार बात होनी चाहिए ताकि इस भ्रम को तोड़ा जा सके कि भारत के संविधान में दर्ज मूल्य भारत के आध्यात्मिक मूल्यों से असंगत हैं। क्या भारतीय आध्यात्मिक परम्पराओं में न्याय नहीं है, करुणा और बंधुत्व नहीं है, प्रेम और सद्भाव नहीं है, अहिंसा नहीं है, स्वतंत्रता नहीं है? यही तो भारतीय संवैधानिक व्यवस्था के मूल स्तम्भ हैं। यह उल्लेखनीय है कि जातिवाद, लैंगिक भेदभाव, हिंसा और साम्प्रदायिक उपनिवेश की परम्पराएं सत्ता की स्थापना के लिए बनाई गयीं और इन्हें धार्मिक सिद्धांतों का आवरण ओढ़ा दिया गया। अतः व्यवस्था की राजनीति और मूल्यों की राजनीति के परस्पर संबंधों को हमेशा ध्यान में रखना होगा।

हम निश्चित रूप से भारत के संविधान की महत्ता और उसकी व्यापकता पर मोहित हो सकते हैं, लेकिन डॉ. बी. आर. अम्बेडकर ने यह स्पष्ट कर दिया था कि हम विरोधाभासों से परिपूर्ण भारत में लोकतंत्र और समतामूलक समाज की स्थापना का सपना देख रहे हैं। उन्होंने कहा था कि यह बात नहीं है कि भारत में लोकतंत्र न था, एक समय था, जब भारत गणराज्यों से सुसज्ज्ति था… भारत से यह लोकतंत्रात्मक व्यवस्था मिट गयी है…. भारत जैसे देश में, लोकतंत्र के एक लम्बी अवधि से अप्रयुक्त रहने से एक नई सी वस्तु समझी जाती है। संभवतः लोकतंत्र के स्थान पर तानाशाही के होने का संकट वर्तमान है। यह बहुत संभव है कि नवजात लोकतंत्र अपना स्वरूप बनाये रखे पर वास्तव में अपने स्थान पर तानाशाही की स्थापना कर दे…

राजनीतिक जीवन में हम एक व्यक्ति के लिए एक मत और एक मत का एक ही मूल्य के सिद्धांत को मानेंगे, लेकिन सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था में एक व्यक्ति का एक ही मूल्य के सिद्धांत का हम खंडन करते रहेंगे… स्वाधीनता ख़ुशी का विषय है, पर हम यह न भूल जाएं कि स्वाधीनता ने हमारे ऊपर महान उत्तरदायित्व डाल दिए हैं। स्वाधीनता के कारण अब हमारे पास किसी त्रुटि के लिए अंग्रेजों पर दोष डालने का बहाना नहीं रहा। यदि अब कोई त्रुटि होती है तो सिवा अपने स्वयं के हम किसी अन्य को दोष नहीं दे सकते हैं।

भविष्य के खतरे अतीत और वर्तमान में छिपे होते हैं। इन्हें भांप भी लिया गया था। शायद यही वजह है कि संविधान पारित होने के एक दिन पहले यानी 25 नवंबर 1949 को संविधान प्रारूप समिति के सभापति डॉ बी. आर. अम्बेडकर ने जान स्टुअर्ट मिल का उल्लेख करते हुए उनके हवाले से कहा था कि किसी भी महान व्यक्ति को चरणों में अपने स्वातंत्र्य को नहीं चढ़ा देना चाहिए या उसे वे शक्तियां नहीं सौंपनी चाहिए जो उसे उन संस्थानों को मिटाने का अधिकार दें। मिल ने कहा था कि जीवन भर देश की सेवा करने वाले महान व्यक्तियों के प्रति कृतज्ञ होने में कोई बुराई नहीं है, पर कृतज्ञता की भी सीमा है।

डॉ. अंबेडकर ने कहा था कि किसी अन्य देश की अपेक्षा भारत के लिए यह चेतावनी अधिक आवश्यक है क्योंकि भारत में भक्ति या जिसे भक्ति मार्ग या वीर पूजा कहा जाता है। उसका भारत की राजनीति में इतना महत्वपूर्ण स्थान है जितना किसी अन्य देश की राजनीति में नहीं है। धर्म में भक्ति आत्म-मोक्ष का मार्ग हो सकता है, पर राजनीति में भक्ति या वीर-पूजा पतन तथा अंततः तानाशाही का एक निश्चित मार्ग है। 

संविधान सभा का स्वरूप

भारत के संविधान के निर्माण की प्रक्रिया इसकी व्यापकता और गहराई को बढ़ा देती है। दुनिया के दूसरे देशों की तुलना में भारतीय संविधान केवल इसलिए अलग नहीं है, क्योंकि यह दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान है, बल्कि इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके निर्माण की प्रक्रिया आदर्श न सही, लेकिन बहुत महत्वपूर्ण है। जब संविधान सभा का गठन हुआ तब प्रांतीय सभाओं से 292, रियासतों से 92 और मुख्य आयुक्तों के प्रान्तों से 4 प्रतिनिधि मिलाकर कुल 389 सदस्यीय सभा बनी थी। लेकिन मुस्लिम लीग के सदस्य संविधान सभा से अनुपस्थित रहे। इसके बाद 3 जून 1947 को माउंटबेटन योजना के अनुसार पाकिस्तान के संविधान के लिए अलग सभा के गठन की बात हुई और पाकिस्तान में शामिल होने वाले प्रान्तों के ही चुने हुए प्रतिनिधियों से वह संविधान सभा बनी। इसके बाद भारत की संविधान सभा के सदस्यों की संख्या 299 रह गयी।

31 दिसंबर 1947 की स्थिति में इन 299 सदस्यों में से मद्रास प्रांत के 49, बम्बई प्रांत से 21, पश्चिम बंगाल से 19, संयुक्त प्रांत से 55, पूर्वी पंजाब से 12, बिहार से 36, मध्य प्रांत और बरार से 17, असम से 8, ओडिशा से 9, दिल्ली, अजमेर और कूर्ग से 1-1 सदस्य संविधान सभा में शामिल थे।

24 जनवरी 1950 को संविधान सभा के 284 सदस्यों ने संविधान की तीन प्रतियों पर हस्ताक्षर (जिनमें से एक हिंदी और एक अंग्रेजी की प्रति हाथ से लिखी हुई थी) किये। जिस वक्त सभा कक्ष में संविधान की प्रति पर हस्ताक्षर किये जा रहे थी, उस वक्त बाहर रिमझिम बारिश हो रही थी और इसे भारत के लिए शुभ संकेत निरुपित किया गया था।

देश का भूगोल और संविधान

तत्कालीन अंतरिम सरकार ने संविधान सभा को व्यापक रूप देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाकर 29 रियासतों और रियासत समूहों को संविधान सभा के शामिल होने के लिए तैयार किया। उस वक्त भारत कई छोटी-छोटी रियासतों में बंटा हुआ था और अगर उन्हें साथ नहीं लिया जाता तो भारत का रूप कुछ और ही होता। आज जिसे हम मध्यप्रदेश कहते हैं, उसमें ही 4 रियासतें (इंदौर, भोपाल, रीवा और ग्वालियर) थी। संविलियन की प्रक्रिया के बाद 70 सदस्य भारत की रियासतों – अलवर, बड़ौदा, भोपाल, बीकानेर, कोचीन, ग्वालियर, इंदौर, जयपुर, जोधपुर, कोल्हापुर, कोटा, मयूरभंज, मैसूर, पटियाला, रीवा, ट्रावनकोर, उदयपुर, सिक्किम और कूच बहार, त्रिपुरा, मणिपुर और खासी समूह, उत्तरप्रदेश समूह, पूर्वी राजपुताना राज्य समूह, मध्य भारत राज्य समूह, गुजरात राज्य समूह, दक्कन और मद्रास राज्य समूह, पंजाब राज्य समूह, पूर्वी राज्य समूह (एक और दो), अवशिष्ट राज्य समूह।

संवाद से जन्मा संविधान

संविधान के प्रावधानों और उसके स्वरूप पर आसानी से बहस शुरू हो जाती है, लेकिन उसकी गहराई को नहीं समझा जाता। पीआरएस लेजिसलेटिव रिसर्च (इंस्टीट्यूट फॉर पॉलिसी रिसर्च) ने संविधान सभा की बहस को एक नए अंदाज़ में समझा है। उनका अध्ययन बताता है कि संविधान सभा के गठन के दिन यानी 9 दिसंबर 1946 से संविधान लागू किये जाने (26 जनवरी 1950) तक सभा की कुल 165 बैठकें हुईं। इनमें से 46 दिन संविधान पर शुरुआती चर्चा में गये जबकि प्रारूप में दूसरी चर्चा में 101 दिन तक अनुच्छेदवार चर्चा की गयी। शुरुआती प्रस्तावों पर 5 दिन और संविधान के प्रारूप को तीसरी बार चर्चा में 13 दिन लगाए गये।

  • नवंबर 1948 से अक्टूबर 1949 के बीच हुई अनुच्छेदवार चर्चा में 101 दिनों में से 16 दिन मूलभूत अधिकारों पर चर्चा हुई, जबकि नीति निर्देशक सिद्धांतों पर 4 दिन चर्चा हुई।
  • इसके अलावा डॉ. बी.आर. अम्बेडकर ने संविधान सभा को 25 नवंबर 1949 को बताया था कि 29 अगस्त 1947 को मसौदा समिति बनाई गयी और इसने 141 दिनों तक काम किया। बी. शिवा राव के अनुसार मसौदा समिति ने कुल 42 बैठकें की थीं।
  • संविधान के अलग पहलुओं पर चर्चा करते हुए संविधान मसौदा समिति सहित 17 समितियां बनाई गयी थीं और इन समितियों ने अपने-अपने काम के लिए लगातार बैठकें कीं।
  • मसौदा समिति द्वारा प्रस्तुत किये गये दस्तावेज पर हुई बहस के दौरान 7635 संशोधन प्रस्ताव पेश किये गये, जिनमें से 2473 को स्वीकार किया गया।
  • पीआरएस का अध्ययन बताता है कि संविधान सभा में बहस-चर्चाओं में दौरान लगभग 36 लाख शब्द बोले गये। इन में से दो-तिहाई शब्द अनुच्छेद पर चर्चा के दौरान तब बोले गये जब संविधान को दूसरी बार पढ़ा जा रहा था।

संविधान का निर्माण एक जीवंत प्रक्रिया रही और एक बेहतर समतामूलक समाज के निर्माण के सपने को साकार करना इसकी अहम मंशा रही।

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